तीन दशक में जिस तरह से डायरिया, खसरा जैसे रोगों पर नियंत्रण पाया गया है उस गति में निचले फेफड़ों के संक्रमण से मौतों पर नियंत्रण की कोशिश नहीं हुई है।
सरकार भले ही वायु प्रदूषण से मौतों की बात को खारिज करती हो लेकिन जो अपना दुख ठीक से बता नहीं सकते वही वायु प्रदूषण के सबसे बड़े शिकार हैं। पांच वर्ष से छोटी उम्र के बच्चे यदि वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के कारण मौत के मुंह में जाने से बच जाते हैं तो भी उनकी जिंदगी आसान नहीं रहती। वे घुट-घुट कर जीने को बेबस हैं।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) और इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवेल्युशन (आईएचएमई) के संयुक्त अध्ययन ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज (जीबीडी), 2017 के दीर्घावधि वाले आंकड़ों के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट होती है।
1990 से लेकर 2017 तक पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की प्रमुख बीमारियों से होने वाले मौतों के आंकड़ों का विश्लेषण करने से यह साफ पता चलता है कि जिस तरह से डायरिया, खसरा जैसे रोगों पर नियंत्रण पाया गया है उस गति में निचले फेफड़ों के संक्रमण से मौतों पर नियंत्रण की कोशिश नहीं हुई है। मसलन 1990 में पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की डायरिया से 16.73 फीसदी (4.69 लाख मौतें) हुई थीं जबकि 2017 में नियंत्रण से यह 9.91 फीसदी (एक लाख) पहुंच गईं। वहीं, निचले फेफड़ों के संक्रमण से 1990 में 20.20 फीसदी (5.66 लाख मौतें) हुईं थी जो कि 2017 में 17.9 फीसदी (1.85 लाख) तक ही पहुंची। यानी करीब तीन दशक में एलआरआई से मौतों की फीसदी में गिरावट बेहद मामूली है।
पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की मौत का प्रमुख कारण क्या है? इस सवाल के जबाव में 1990 से 2017 तक के जीबीडी आंकड़ों का विश्लेषण यह बताता है कि पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की मौत का दूसरा सबसे प्रबल कारक निचले फेफड़ों का संक्रमण है। वहीं, निचले फेफड़ों के संक्रमण में वायु प्रदूषण की बड़ी भूमिका है। विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पार्टिकुलेट मैटर 2.5 प्रदूषण के वो कण हैं जो आंखों से दिखाई नहीं देते और इतने महीन होते हैं कि श्वास नली के जरिए निचले फेफड़े तक पहुंच जाते हैं। सिर्फ बच्चों में ही यह प्रदूषण कण इसलिए भी ज्यादा प्रभावी होते हैं क्योंकि बच्चे किसी वयस्क के मुकाबले ज्यादा सांस के दौरान ज्यादा प्रदूषण कण भी अपने फेफडों तक पहुंचाते हैं।
जीबीडी के ही आंकड़ों के मुताबिक पांच वर्ष से कम उम्र आयु वर्ग में अब भी अपरिपक्वता, समयपूर्व जन्म, कम वजन का होना, स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना जैसे नवजात विकारों के कारण दम तोड़ देते हैं। 28 दिन की उम्र से नीचे यानी नवजात बच्चों की मृत्यु में भी यह कारक प्रमुख हैं। लेकिन जो इस स्टेज को पार कर जाते हैं और पांच वर्ष से छोटे हैं उनमें निचले फेफड़े का संक्रमण होने का जोखिम सबसे ज्यादा है और इसी आयु वर्ग के बच्चे निचले फेफड़े के संक्रमण से दम तोड़ रहे हैं।
जीबीडी, 2017 के आंकड़ों के मुताबिक देश के हर एक घंटे में पांच वर्ष से कम उम्र वाले 21.17 बच्चे निचले फेफड़े के संक्रमण (एलआरआई) के कारण दम तोड़ रहे हैं। इसमें राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार के बच्चे सबसे बड़े भुक्तभोगी हैं। देश में अब तक के उपलब्ध विस्तृत आंकड़ों के मुताबिक 2017 में 5 वर्ष से कम उम्र वाले 1,035,882.01 बच्चों की मौत विभिन्न रोगों और कारकों से हुई। इनमें 17.9 फीसदी यानी 185,428.53 बच्चे निचले फेफड़ों के संक्रमण के कारण असमय ही मृत्यु की आगोश में चले गए।
लचर स्वास्थ्य सेवाएं और निम्न आय वर्ग वाले राज्यों में वायु प्रदूषण के कारण बच्चों की मृत्युदर का आंकड़ा भी सर्वाधिक है। जीबीडी, 2017 के आंकडो़ं के मुताबिक वर्ष 2017 में 41.38 फीसदी यानी 428647.98 मौतें इन्हीं कारणों से हुईं। इसके बाद बच्चों की मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण निचले फेफड़े के संक्रमण ही है। वर्ष 2017 में निचले फेफड़ों के संक्रमण के कारण 17.9 फीसदी मौते यानी 185,428.53 बच्चों की मृत्यु हुई है।
निचले फेफड़े के संक्रमण और वायु प्रदूषण के घटक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 के बीच एक गहरा रिश्ता भी है। 0 से 5 आयु वर्ग वाले समूह में निचले फेफड़े का संक्रमण जितना प्रभावी है उतना 5 से 14 वर्ष आयु वर्ग वालों पर नहीं है। 2017 में 5 से 14 आयु वर्ग वाले बच्चों में निचले फेफड़ों के संक्रमण से 6 फीसदी बच्चों की मृत्यु हुई। इससे स्पष्ट है कि निचले फेफड़ों का संक्रमण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर ही ज्यादा प्रभावी है। इनके फेफड़े क्यों संक्रमण के सहज शिकार हो जाते हैं?
भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली के श्वसन रोग विशेषज्ञ विजय हड्डा बताते हैं कि निचले फेफड़ों के संक्रमण में वायु प्रदूषण की बड़ी भूमिका है। खासतौर से पार्टिकुलेट मैटर 2.5 जो कि आंखों से नहीं दिखाई देते हैं और बेहद महीन कण होते हैं सांसों के दौरान श्वसन नली से निचले फेफड़े तक आसानी से पहुंच जाते हैं। इसे आसानी से ऐसे समझिए कि एक बाल का व्यास 50 से 60 माइक्रोन तक होता है जबकि 2.5 व्यास वाला पार्टिकुलेट मैटर कितना महीन होगा। ऐसे में किसी प्रदूषित वातावरण में जितनी सांस एक व्यस्क ले रहा है उससे ज्यादा सांसे बच्चे को लेनी पड़ती हैं। इसलिए जहां ज्यादा पीएम 2.5 प्रदूषण, वहां ज्यादा मौतें हो रही हैं। 2017 में जारी द लैंसेट की रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार में पीएम 2.5 सालाना सामान्य मानकों से काफी अधिक रहा।
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