लॉकडाउन में गंगा नदी स्वच्छ या अस्वच्छ : सीपीसीबी को तीन महीनों से नहीं मालूम

कृषि कार्यों में इस वक्त कटाई का सीजन है और पानी की जरूरत नहीं है।लगातार बारिश हुई है और जो भी पानी नदियों में छोड़ा जा रहा है वह उसके पर्यावरण प्रवाह को बेहतर बना रहा है। 

By Vivek Mishra
Published: Wednesday 22 April 2020

 
उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक करीब 2500 किलोमीटर लंबाई वाली गंगा नदी का पानी कहां-कहां पीने और नहाने लायक है, यह देश की प्रमुख प्रदूषण नियंत्रण संस्था केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को स्पष्ट तौर पर नहीं पता है। लॉकडाउन में भले ही हम तस्वीरों-वीडियो में नदी के बदले हुए रंग और ज्यादा बहाव को देखकर चौंक रहे हों लेकिन नदी की सेहत बताने वाले कई ऐसे जैविक और रासायनिक मानक हैं जो सिर्फ देखकर तय नहीं हो सकते बल्कि नदी वाकई साफ हो गई है, इसकी पुष्टि नमूनों की जांच के बाद ही की जा सकती है। बीते तीन महीनों में नमूने लिए गए हैं या नहीं? जांच रिपोर्ट क्या रही, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। एक चीज स्पष्ट है कि 20 जनवरी तक गंगा का पानी सीधे पीने लायक नहीं था। 
 
डाउन टू अर्थ ने पड़ताल में पाया है कि सीपीसीबी को नमूनों की जांच के आधार यह नहीं मालूम है कि 20 जनवरी, 2020 के बाद से गंगा बहाव के अहम हिस्सों में वाकई कोई बदलाव आया है या नहीं। दरअसल राज्यों की ओर से सीपीसीबी को महीने में एक बार किया जाने वाला अपडेट 21 जनवरी, 2020 से अभी तक अपलोड नहीं किया जा सका है। सीपीसीबी के सदस्य सचिव प्रशांत गार्गव ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि उन्होंने राज्यों को आदेश दिया था कि वे एक बार गंगा के नमूनों को एकत्र कर उसकी जांच करें। कुछ जगहों पर जांच हुई और कुछ जगहों पर जांच नहीं हुई। 80 बिंदुओं पर रीयल टाइम आंकड़ों का संग्रहण भी हो रहा है।  हालांकि गंगा नमूनों की जांच ऑनलाइन क्यों नहीं मौजूद है, इसके लिए वह प्रयास करेंगे। नमूने कब और कहां से लिए गए? जांच रिपोर्ट में क्या पता चला और क्यों नहीं उन्हें 20 जनवरी के बाद से अपडेट किया गया ? इन सवालों के जवाब नहीं मिल सके। 
 
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 27 जुलाई, 2018 को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को आदेश दिया था कि वह गंगा के बहाव क्षेत्र का नक्शा तैयार करके उसमें 100 किलोमीटर के निश्चित दायरे पर आम लोगों को यह बताएं कि किस स्थान पर पानी नहाने लायक है और कहां पर पीने लायक है। इस आदेश का पालन करते हुए सीपीसीबी कों गंगा में प्रदूषण के विभिन्न मानकों का स्तर 24 घंटे उपलब्ध कराना है। इसके लिए बीते वर्ष सुटेबिलिटी ऑफ रिवर गंगा नाम का एक ऑनलाइन पेज सीपीसीबी के जरिए बनाया गया था, जिसमें एक महीने में लिए जाने वाले नमूनों के जांच आंकड़ों को प्रदर्शित किया जा रहा है। पेज पर स्पष्ट लिखा गया है कि ताजा आंकड़े राज्यों की ओर से अपलोड करने के बाद ही हासिल होंगे।  
 
'सुटेबिलिटी ऑफ रिवर गंगा' के मुताबिक गंगा राज्यों - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल  की तरफ से नदी क्षेत्र के नमूनों की जांच रिपोर्ट लॉकडाउन से करीब दो महीने पहले अपलो़ड किए गए थे। हालांकि तब कुल 86 स्थानों में उत्तराखंड  में हरि की पौड़ी समेत 6 स्थान और उत्तर प्रदेश में बिजनौर में हीपानी ए श्रेणी यानी  (डिसइन्फेक्ट) साफ करके पीने लायक था। अन्य 80 स्थानों पर पानी मानकों पर फिट नहीं था। यानी बीओडी, सीओडी और कोलीफॉर्म जैसे स्तर बढ़े हुए थे।  हालांकि, 20 जनवरी के ही नमूनों की जांच रिपोर्ट के मुताबिक देहरादून में डाउनस्ट्रीम रायवाला के पास गंगा का पानी मानकों पर फिट यानी ए श्रेणी में नहीं है। यह भी चेतावनी है कि गंगा का पानी सीधे न पिएं। उत्तर प्रदेश में कानपुर के बिठूर में 20 जनवरी, 2020 को बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड 2.6 था जबकि यह 2 एमजी प्रति लीटर से कम होना चाहिए। वहीं कुल कोलीफॉर्म 3300 एमपीएन/100 एमएल था जो कि अधिकतम 50एमपीएन / 100 एमएल होना चाहिए। इसी तरह पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के बेहरामपुर स्थित गोरा बाजार में गंगा पानी के नमूनों में 20 जनवरी को कॉलीफोर्म का स्तर 17000 प्रति 100 एमएल रिकॉर्ड किया गया था।
 
 
 
गंगा साफ हुई है या नहीं। यह आंकड़ा जानने के लिए आपको सुटेबिलिटी ऑफ रिवर गंगा के अलावा रीयल टाइम मॉनिटरिंग आंकड़ों को देखना होगा। यह आंकड़े भी दुरुस्त नहीं हैं।करीब दस से ज्यादा मानकों पर रीयल टाइम आंकड़ों को गंगा के विविध बिंदुओं को जांचना था। हालांकि सभी बिंदुओं पर आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। यहां तक कि कई आंकड़े जस का तस कई स्टेशनों पर बने हुए हैं। यह उपलब्ध आंकड़े क्या भरोसे के लायक हैं। दरअसल ज्यादातर कॉ़लम में भ्रामक आंकड़े दिए जा रहे हैे। जैसे नदी का जलस्तर पश्चिम बंगाल के एक स्टेशन पर 269 मीटर बताया जा रहा तो कहीं 0 मीटर। इसी तरह जलस्तर के कारण अन्य आंकड़ों की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है। 
 
यमुना जिए अभियान के संयोजक मनोज मिश्रा ने बताया कि आंकड़े काफी भ्रामक हैं और भरोसे लायक नहीं हैं। गंगा नदी की गहराई कहीं भी 150 फीट तक नहीं हो सकती। इसके अलावा कहीं भी आंकड़ों का कोई विश्लेषण सीपीसीबी ने नहीं किया है। न ही तारीख है और न ही कोई समय। इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अभी सिर्फ नदी को देखकर जो एहसास है वही बताया जा सकता है लेकिन बिना नमूनों की जांच रिपोर्ट के स्पष्ट तौर पर कुछ भी ठोस कहना मुश्किल है। 
 
बहरहाल गंगा नदी के स्वच्छ होने का एहसास कई पर्यावरणविद कर रहे हैं और ऐसा वह कई वर्षों बाद औद्योगिक गतिविधियों, पूजा-पाठ, नहान-ध्यान के ठप होने व नदी के जलस्तर, उसके रंग-बहाव आदि को देखकर कह रहे हैं। क्या यह सही है ?  1892 में एक रसायन विज्ञानी एलेन हैजन ने पानी का रंग देखकर उसमें प्रदूषण स्तर पता लगाने का तरीका खोजा था। यह तरीका अब भी कहीं-कहीं उपयोग में है। इसे हैजन स्केल से नापते हैं, मसलन एकदम पारदर्शी दिखने वाले पानी 0 से बहुत गाढ़े रंग के पानी 500 तक पानी के प्रदूषण स्तर को बांटते हैं। हालांकि ऐसा कोई तरीका गंगा के लिए फिलहाल नहीं अपनाया गया है। 
 
यह सच है कि दिखने में गंगा नदी में बदलाव हुआ है लेकिन यह बदलाव कैसा है? सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट के जल कार्यक्रम अधिकारी सुरेश रोहिला ने बताया कि कृषि कार्यों में सबसे ज्यादा पानी की जरूरत होती है। इस वक्त कटाई का सीजन है और पानी की जरूरत नहीं है। फिर दिसंबर के बाद से लगातार बारिश हुई है और जो भी पानी नदियों में छोड़ा जा रहा है वह उसके पर्यावरणीय प्रवाह को बेहतर बना रहा है। पानी का ज्यादा बहाव स्वतः ही खुद सफाई का काम करती है।  उन्होंने बताया कि नदी के साफ होने की यह भी वजह है कि इस वक्त लॉकडाउन के दौरान कोविड-19 से बचाव के लिए हम बार-बार हाथ धो रहे हैं। करीब पांच लोगों का परिवार 200 लीटर पानी तक इस्तेमाल कर रहा है। यह ग्रे वाटर है जो नालियों से नदियों में पहुंच रहा है और वहां ब्लैक वाटर को कम कर रहा है। यदि नमूनों में स्वच्छता की बात सामने आ भी रही है तो यह ध्यान रखना चाहिए कि एक गिलास और एक बाल्टी के पानी से लिए गए नमूनों में फर्क हो सकता है। इस वक्त जुटाए जा रहे आंकड़े और जिस वक्त नदी में बिल्कुल बहाव नहीं होता, पानी कम होता है और कृषि व उद्योग के लिए पानी का इस्तेमाल होता है तब लिए गए नमूनों में बिल्कुल फर्क आएगा।  
 
गंगा में उद्योगों का 30 फीसदी और सीवेज का प्रदूषण करीब 70 फीसदी है। लॉकडाउन के दौरान सीवेज का लोड धर्मशालाओं, होटल और आश्रम से जरूर कम हुआ माना जा रहा है, हालांकि उत्तराखंड सरकार गंगा सफाई के लिए पहले एनजीटी को दिए गए अपने हलफनामे में यह कह चुकी है कि वह हरिद्वार में आश्रम, होटल और धर्मशालाओं की सीवेज निकासी को गंगा में गिरने से रोक चुकी है। ऐसे में यदि कोई जांच रिपोर्ट सीवेज निकासी के कम होने को फिर से आंकती है तो यह भी संशयपूर्ण हो सकता है, क्योंकि 20 जनवरी को ही हरि की पौड़ी पर पानी ए श्रेणी में पहुंचा था। इसे लॉकडाउन के बाद पहली बार यदि बताया जाएगा तो वह भी संशयपूर्ण होगा। 
 

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