बीजापुर का वैभव

औरंगजेब से हारने के बाद आदिल शाही वंश ने इस्लामी इमारतों के रूप में समृद्ध विरासत छोड़ी। इसके साथ ही उन्होंने शहर में जल आपूर्ति की कुछ काबिलेगौर व्यवस्था भी छोड़ी थी। 

Published: Monday 15 January 2018
तोरवी के नीचे से एक भूमिगत जल मार्ग गुजरता था, जो 1.6 किमी. लंबा था और अफजलपुर जलाशय तक पहुंचकर खत्म होता था (फोटो: सुशीला नैयर / सीएसई)

उत्तरी कर्नाटक का बीजापुर शहर पहले विजयपुरा के नाम से जाना जाता था। यादव वंश के राज में यह करीब 100 वर्षों तक एक महत्वपूर्ण शहर रहा। लेकिन सन 1294 में इसे बहमनी सुलतान की प्रांतीय राजधानी बना दिया गया। सन 1489 में जब आदिल शाही वंश के पहले शासक यूसुफ अली आदिल शाह ने गद्दी संभाली और बीजापुर को राजधानी बनाया तो फिर इसका महत्व बढ़ गया। सन 1686 में मुगल बादशाह औरंगजेब से हारने के बाद आदिल शाही वंश ने इस्लामी इमारतों के रूप में समृद्ध विरासत छोड़ी। इसके साथ ही उसने शहर में जल आपूर्ति की कुछ काबिलेगौर व्यवस्था भी छोड़ी थी।

शहर में आंशिक सिंचाई तुंगभद्रा के अनिकटों बांधों के द्वारा होती थी। 1881-82 में यहां कुओं और सोतों के अलावा सिंचाई की 32 व्यवस्थाएं थीं। यद्यपि बीजापुर में चश्मे बहुत थे, मगर शहर को उन्हीं के भरोसे नहीं रखा जा सकता था। अली आदिल शाह (सन 1557-1580) प्रथम शासक था जिसने शहर की जल आपूर्ति पर ध्यान दिया। उसने शाहापुर में बड़ा चांद कुआं बनवाया और उससे शहर भर में पानी पहुंचाने के लिए नहरें बनवाईं। बीजापुर से 5 किमी. दूर तोरवी में भूमिगत नहर आदिल शाह ने ही बनवाई थी।

बीजापुर से 5 किमी. पश्चिम तोरवी से पानी लाने वाली और शहर में जगह-जगह पहुंचाने वाली नहर इंजीनियरिंग की अद्भुत मिसाल है। तोरवी से एक मील ऊपर एक घाटी में पक्के बांध का निर्माण किया गया, इस तरह जलाशय तालाब बना। यहां इसके तले से भूमिगत नाली तैयार की गई जो तोरवी के नीचे से होती हुई एक मील दूर अफजलपुर पहुंचती थी, जहां एक जलाशय में मिल जाती थी। तोरवी से 367 मीटर पश्चिम में पहाड़ी के तल में छोटा पक्का गड्ढा या कुआं बनाया गया, जो पूरक स्त्रोत का काम करता था। यहां कुछ प्रबल झरनों का पानी जलाशय में जमा किया जाता था। और इसे भूमिगत नहर से तोरवी पहुंचाया जाता था, जहां यह बड़ी नहर में मिल जाता था।



अफजलपुर के जलाशय को पहाड़ियों में बने दूसरे तालाब से पानी मिलता था। यह पानी बीच के मकानों के ऊपर बने मेहराबों से गुजरता था। इस जलाशय के अवशेष बताते हैं कि यह विशालकाय था। गारे आदि से चिना बांध 18.3 मीटर ऊंचा था और तटबंधों पर खास तरह के खाने बने हुए थे। मुख्य झील से नीचे एक छोटा जलाशय था, ताकि अतिरिक्त पानी को जमा किया जा सके और शहर के आसपास के हिस्सों को पानी पहुंचाया जा सके। मुख्य झील से भूमिगत नालियों के द्वारा पानी तीन मील दूर शहर तक पहुंचता था।

इस नहर की खुदाई काफी मुश्किल रही होगी, क्योंकि कहीं-कहीं यह चट्टान के नीचे 18.3 मीटर गहराई पर थी। इस नहर के कुछ हिस्से ईंट की चिनाई से बने थे, बाकी चट्टानी नालियों के बीच से पानी बहता था। जगह-जगह हवा के लिए सतह तक उस्वास (चिमनी) बनाए गए थे। 37-37 मीटर की दूरी पर बनी ये चिमनियां इब्राहिम रोजा तक पाई गई। बगीचे और इब्राहिम रोजा के बीच नहर दो धाराओं में फूट गई दिखी। चिमनियों का एक सिलसिला जामा जस्जिद की ओर जाता दिखा। कुछ चिमनियों में सीढ़ियां बनी थीं ताकि नहर की सफाई की जा सके। इसी नहर से पानी शहर तक पहुंचता था। महल जलाशय और तर्क किले के बाहरी खंदक तक भी इसी से पानी पहुंचता था। इस पानी का स्त्रोत तोरवी नहीं, कुछ और था। नहर में पानी शायद रास्ते के चश्मों से पहुंचाया जाता था।



बाद के वर्षों में जब महलों की संख्या बढ़ गई तो अतिरिक्त पानी की जरूरत महसूस हुई और ऊंचाई पर एक घाटी में एक मील लंबा बांध बनाकर बड़ी झील तैयार की गई। यह झील 202़5 हेक्टेयर में फैली थी और बीजापुर से काफी ऊंचाई पर थी, सो उतनी ऊंचाई तक पानी पहुंचाने के लिए पर्याप्त दबाव बनता था। 38 सेमी. व्यास वाले (चिने हुए) पाइप से पानी लाया जाता था। यह पाइप जमीन से 4.5 से 15 मीटर गहराई तक धंसा होता था।

पाइप के पूरे रास्ते में करीब 244 मीटर की दूरी पर बड़ी वर्गाकार मीनारें बनाई गई थीं, ताकि पानी के दबाव को कम किया जाए और पाइप को टूटने से बचाया जाए। इन मीनारों में पानी 6 से 9 मीटर तक ऊपर आता था। ये मीनारें कारीगरी का अच्छा नमूना थीं। ज्यादा पानी अर्क किले में आता था, जहां वितरण मीनारें बनाई गई थीं। पानी जमीन से 9 मीटर ऊपर तक पहुंचाया जाता था। कुछ महलों में छोटी नहरें और जलाशय बने थे।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

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