वैश्विक भूख सूचकांक एक सच्चाई क्यों है?

वैश्विक भूख सूचकांक को नकारा जा रहा है, लेकिन इस स्वीकार करना क्यों जरूरी है? पढ़ें, सचिन कुमार जैन के आलेख का दूसरा भाग

By Sachin Kumar Jain
Published: Wednesday 26 October 2022

पहले लेख में आपने पढ़ा: भूख और भूख सूचकांक को स्वीकारना जरूरी है! पढ़ें दूसरा लेख...

वैश्विक भूख सूचकांक (2022) में भारत की स्थिति को लेकर एक किस्म की राजनीतिक भावनात्मक प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि इससे मौजूदा आर्थिक और सामजिक विकास की नीतियों पर प्रश्न चिन्ह लगता है। यह तो तय है कि भीड़ कभी भी बहस या विषय पर चर्चा के लिए तैयार नहीं होती है, ऐसे में विवेक और तर्कों के साथ वैज्ञानिक पहलुओं को सामने लाते रहना चाहिए। अगर वास्तव में भारत को एक बेहतर मुल्क बनाना है, तो भूख की स्थिति को समझना भी होगा और स्वीकारना भी होगा।

इस विषय से सम्बंधित कुछ पहलुओं को सामने लाना जरूरी है। सबसे अहम् बात तो यह है कि केवल अनाजों से पेट भर लेने को भूख से मुक्ति की अवस्था नहीं माना जाता है। जब व्यक्ति को विविधता पूर्ण भोजन (यानी निर्धारित मात्रा में अनाज, दालें, फल, सब्जियां, अंडे/मांस/मछली, दूध उत्पाद, कंद, तेल/घी, मसाले आदि) नियमित रूप से सम्मानजनक तरीके से हासिल होते हों, तभी भूख से मुक्ति की अवस्था आती है। अब प्रश्न यह है कि क्या भारत में कितने लोगों को नियमित रूप से विविधता से भरपूर भोजन की थाली सम्मान के साथ हासिल होती है? इस प्रश्न का उत्तर देकर हम खुद भी अपने आसपास व्याप्त भूख का सूचकांक तैयार कर सकते हैं।

तथ्य यह है कि व्यक्ति को सम्मानजनक और स्वस्थ जीवन जीने के लिए कैलोरी (यानी ऊर्जा), प्रोटीन, सूक्ष्म पोषक तत्वों-विटामिन और खनिज और वसा की जरूरत होती है। वैज्ञानिक सिद्धांत के मुताबिक़ व्यक्ति को दिन भर में जितनी ऊर्जा चाहिए होती है, उसमें से केवल एक तिहाई ऊर्जा ही अनाजों से लेना चाहिए, और शेष दो तिहाई ऊर्जा और अनिवार्य सूक्ष्म पोषक तत्व प्रोटीन, फलों, सब्जियों, मांसाहारी उत्पाद, दूध उत्पाद, तेल/घी, मसलों से हासिल होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है, तो भी यह माना जाता है कि हम ‘अदृश्य भूख” के साथ जी रहे हैं यानी अनाज से पेट तो भरा, लेकिन शरीर को चलाने, उसकी मरम्मत और विकास के लिए जरूरी पोषण नहीं मिला। अभी हमारा देश पोषण के विज्ञान और संस्कृति की अज्ञानता से जूझ रहा है। यह एक भारी संकट की स्थिति भी है।

कितना प्रोटीन खाते हैं भारतीय?

यह माना जाता है कि हर व्यक्ति को अपने एक किलो वज़न पर एक ग्राम प्रोटीन का सेवन करना चाहिए। प्रोटीन हमारे शरीर की के ढाँचे और मांसपेशियों को मज़बूत करने का काम करता है। वर्ष 2017 में हुए एक अध्ययन (प्रोटीन कन्ज़म्प्शन इन डाईट आफ एडल्ट इंडियंस) के मुताबिक़ 10 में से 9 लोग आवश्यकता से कम प्रोटीन का उपभोग करते हैं। 93 प्रतिशत लोगों को यह जानकारी नहीं है कि उन्हें कितने प्रोटीन की आवश्यकता होती है। 85 प्रतिशत लोगों की यह धारणा भी थी कि प्रोटीन खाने से वज़न बढ़ता है। दुनिया के स्तर पर औसतन 68 ग्राम प्रोटीन प्रति व्यक्ति उपभोग होता है, लेकिन भारत में यह 47 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन ही रहा।

वैश्विक भूख सूचकांक पर सरकार अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों की सूची प्रस्तुत करती है। लेकिन उनका सच क्या है?

सार्वजनिक राशन प्रणाली (पीडीएस) से भारत के 67 प्रतिशत परिवारों को 5 किलो अनाज दिए जाने का प्रावधान है। अगर उन्हें अच्छी गुणवत्ता का गेहूं मिले, तब इस प्रावधान से एक व्यक्ति को 166 ग्राम गेहूं के उपयोग का अवसर मिलता है यानी लगभग साढे पांच रोटी हर दिन. इससे उन्हें लगभग 16 ग्राम प्रोटीन मिल सकता है, जबकि जरूरत औसतन 60 ग्राम से ज्यादा की होती है। यह भी जानना जरूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में दालों और खाने के तेल का प्रावधान नहीं होने से खाद्य सुरक्षा हासिल करने का सपना टूटा-फूटा रहता है।

इस योजना के साथ ही सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में माध्यमिक कक्षा तक के बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना संचालित होती है। इसमें 450 से 700 किलोकैलोरी और 12-20 ग्राम प्रोटीन होना चाहिए, लेकिन मध्यान्ह भोजन योजना के लिए जो आवंटन है, वह इतना कम है कि वह भोजन भी प्रोटीन-मुक्त ही रह जाता है। इसी तरह एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत आंगनवाड़ी सेवाओं के माध्यम से पूरक पोषण आहार कार्यक्रम है। इसमें बच्चों को 500 किलोकैलोरी और 12-15 ग्राम प्रोटीन युक्त भोजन दिए जाने का प्रावधान है, लेकिन प्रतिबद्धता, विकेंद्रीकरण और जवाबदेहिता के अभाव में यह कार्यक्रम गुणवत्ताहीन होता गया है। भारत में वर्ष 2021 में दाल की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता मात्र 54 ग्राम थी, जबकि इसे कम से कम 80 ग्राम तक होना चाहिए। भारत के लिए दाल प्रोटीन का अहम् स्रोत है।

छिपी हुई भूख?

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (2022) में अल्पपोषण, कुपोषण और बाल मृत्यु के आंकड़ों का सन्दर्भ लिया गया है। उन आंकड़ों को राजनीतिक हितों के लिए फ़ुटबाल बनाना निहायत ही अनैतिक कृत्य है। वास्तव में स्थिति उन आंकड़ों से ज्यादा गंभीर है। मानव शरीर के विकास और व्यवस्थित संचालन के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों-विटामिन और खनिज की बहुत जरूरत होती है। हांलाकि इनकी जरूरत बहुत छोटी सी मात्रा में होती है, लेकिन इनकी जरूरत का पूरा होना अनिवार्य होता है। ये तत्व हमें दिखाई नहीं देते या पेट को पूरा नहीं भरते, इसीलिए हम इनके महत्व को साफ़-साफ़ नहीं देख पाते हैं।

द न्यूट्रीशन सोसायटी के जर्नल आफ न्यूट्रीशनल साइंस द्वारा प्रकाशित शोध पत्र (माइक्रोन्युट्रीयेंट्स डेफिशियेंसी इन इंडिया – ए सिस्टेमेटिक रिव्यू एंड मेटा एनालिसिस-29 नवम्बर 2021) के निष्कर्ष बताते हैं कि वास्ते में “अदृश्य भूख” का फैलाव कितना व्यापक है। यह अध्ययन 270 शोध पत्रों के आधार पर किया गया था।

इस अध्ययन से पता चला कि 17 प्रतिशत भारतीयों में आयोडीन की कमी है। आयोडीन की कमी के कारण शरीर के संचालन में समस्या पैदा होती है और घेंघा रोग होता है। 37 प्रतिशत लोगों में फोलिक एसिड की कमी है। इसकी कमी से जनजात विसंगतियां होती हैं। 53 प्रतिशत लोगों में विटामिन बी-12 की कमी है। इसकी कमी से थकान और कमजोरी होती है, यह प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ता है और मानसिक तंत्र को स्वस्थ रखता है। 19 प्रतिशत भारतीयों में विटामिन-ए की कमी है। इससे आँखों का स्वास्थ्य जुड़ा होता है। 61 प्रतिशत भारतीयों में विटामिन-डी का अभाव पाया गया। यह हड्डियों को मज़बूत करने के लिए भी जरूरी है और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी।   

बच्चों में अदृश्य भूख की स्थिति?

बच्चों को विकास के लिए सभी तरह के वृहद् और सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरत होती है। अगर उन्हें प्रोटीन न मिले, तो उनकी मांसपेशियों का विकास नहीं हो पाता है और प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होती है। विटामिन-ए की कमी के कारण आँखे कमज़ोर हो जाती हैं और एनीमिया के कारण कमजोरी-चिडचिडापन होता है, एकाग्रता कम होती है। प्लोस वन  में प्रकाशित अध्ययन (प्रिविलेंस आफ स्पेसिफिक माइक्रोन्युट्रीयेंट डेफिशियेंसीस इन अर्बन स्कूल गोइंग चिल्ड्रन एंड एडोलोसेंट्स आफ इंडिया; 2021-22) के निष्कर्ष हैं कि शहरी स्कूलों में पढने वाले 59.9 प्रतिशत बच्चों में कैल्शियम की कमी है। जबकि 48.4 प्रतिशत बच्चों में आयरन की कमी है। 25-हायड्रोक्सी विटामिन-डी की कमी 39.7 प्रतिशत बच्चों में पाई गई। 22.2 प्रतिशत बच्चों में फोलेट की कमी है तो 10.4 प्रतिशत बच्चों में सेलेनियम की कमी और 6.8 प्रतिशत बच्चों में जिंक (प्रतिरोधक क्षमता के लिए जरूरी) की कमी पाई गई। यह नहीं माना जाना चाहिए कि अगर बच्चों का पेट रोटी और चावल से भरा हुआ है, तो वे भूख के प्रकोप से सुरक्षित हो गए हैं। हमें पोषण की सुरक्षा के प्रति सजग और सचेत होना होगा।

मिट्टी में उग रही है अदृश्य भूख

यह जरूरी है कि भारत का महिला और बाल विकास मंत्रालय और लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग यह अध्ययन भी करे कि भारत की मिट्टी का स्वास्थ्य और पोषण कैसा है? मानव भोजन में पोषक तत्व पारिस्थितिकी तंत्र, मुख्य रूप से मिट्टी से आते हैं। मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों से ही पौधों का विकास होता है। पौधे मिट्टी से पोषक तत्व अवशोषित करते हैं और जीवाणुओं से मिलकर फसल को विकसित करते हैं। भूख के प्रश्न का उत्तर बहुत सतही ढंग से खोजा जा रहा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स को खारिज करते समय भारत सरकार को नई कृषि पद्धतियों और नीतियों पर भी नज़र डाल लेना चाहिए ताकि मिट्टी के स्वास्थ्य का भूख से रिश्ता समझा जा सके। आईसीएआर-इंडियन इंस्टीटयूट आफ साइल साइंसेस, नेशनल एकेडमी आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च मैनेजमेंट, इंडियन कौंसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के विशेषज्ञों के शोध पत्र – असेसिंग मल्टी माइक्रो न्यूट्रीएंट डेफिशियेंसी इन एग्रीकल्चरल साइल्स आफ इंडिया (2021) ने बताया कि भारत के खेती की जमीन में कई महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की कमी है। स्वाभाविक है कि इनका असर खाद्य पदार्थों की पोषण गुणवत्ता पर भी पड़ता है। भारत के 28 राज्यों के 615 जिलों में शून्य से 15 सेंटीमीटर गहराई तक की मिट्टी के 242728 नमूने लेकर किये गए इस अध्ययन के मुताबिक़ –

  • भारत की खेती जिस मिट्टी में हो रही है, उसमें 30.8 प्रतिशत नमूनों में सल्फर की कम या बहुत ज्यादा कमी पाई गई।     
  • मानव भोजन में जिंक भी मिट्टी से ही आता है। भारत के विशेषज्ञों द्वारा किये गए अध्ययन के मुताबिक़ मिट्टी के 36.5 प्रतिशत नमूनों में जिंक की कम से बहुत ज्यादा कमी पाई गई।
  • 2 प्रतिशत नमूनों में बोरोन की कम से बहुत ज्यादा कमी पाई गई।
  • आयरन भी मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म पोषक तत्व होता है। मिट्टी के 20.9 प्रतिशत नमूनों में ही आयरन पर्याप्त मात्रा में आया गया। 12.8 प्रतिशत नमूनों में आयरन की कमी है, जबकि 59.9 प्रतिशत मानक से ज्यादा आयरन मौजूद था।
  • यही स्थिति कापर के सम्बन्ध में भी उभर कर आई। लगभग 21 प्रतिशत नमूनों में कापर पर्याप्त मात्रा में मौजूद है, जबकि 67.2 प्रतिशत में इसकी मात्रा ज्यादा है।
  • मैगनीज के सन्दर्भ में यह पता चला कि 60.4 प्रतिशत नमूनों में कापर की मात्रा ज्यादा रही 22.3 प्रतिशत नमूनों में यह पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में है।

इसी अध्ययन में उल्लेख है कि उच्च उत्पादक बीजों और रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी में पोषक तत्वों में कमी और असंतुलन पैदा हुआ है। जब असंतुलित पोषक तत्वों वाली मिट्टी में खाद्य सामग्री का उत्पादन किया जाता है, तो इसका असर पशुओं और मानवों में सोक्ष्म पोषक तत्वों वाले कुपोषण के रूप में सामने आता है।    

स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि जिन कारकों से मिलकर भूख एक चुनौती के रूप में विकराल रूप लेती है, वे सभी कारक भारत में यही संकेत करते हैं कि “भूख” एक वास्तविकता है। अतः सूचकांक का प्रतिरोध करने के बजाये, “भूख” की समस्या का प्रतिरोध करने की तैयार करना बेहतर होगा। इन सन्दर्भों में वैश्विक भूख सूचकांक को जानना-समझना बेहतर होगा। अपनी समस्याओं को प्रति आँखें मूँद लेने से भारत विकास कर पायेगा, ऐसी अपेक्षा करना बेमानी है।

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