कोरोना काल में लौटे प्रवासियों को रोक पाएगा उत्तराखंड?

कोरोना काल में उत्तराखंड में 3.30 लाख से अधिक प्रवासी लौटे हैं, लेकिन इनमें से कितने प्रवासियों को राज्य सरकार रोक पाएगी?

By Raju Sajwan, Srikant Chaudhary
Published: Wednesday 26 August 2020

 

उत्तराखंड में एक कहावत प्रचलित है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नहीं रहती, बह कर मैदानों में चली जाती है। लेकिन कोरोना काल में जब छोटे-बड़े शहरों में काम बंद हो गए तो पहाड़ की जवानी पहाड़ वापस लौटी है। उत्तराखंड के अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक 3.30 लाख प्रवासी उत्तराखंड लौटे हैं। राज्य सरकार का दावा है कि प्रवासियों को राज्य में रोका जाएगा, लेकिन क्या यह संभव है? यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने उत्तराखंड के पौड़ी जिले की यात्रा की। 


दरअसल, 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड के कुल 16 हजार 793 गांवों में 1048 गांव निर्जन हो चुके थे। यानी इन गांवों में कोई नहीं रहता और इन्हें घोस्ट विलेज या भुतहा गांव घोषित कर दिया गया। इसके बाद सितंबर 2019 में उत्तराखंड ग्रामीण विकास और पलायन आयोग की एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि 2011 और 2018 के बीच 734 गांव और निर्जन हो गए। इन 8 सालों में सबसे अधिक 181 गांव पौड़ी में निर्जन हुए। इसलिए डाउन टू अर्थ ने अपनी ग्राउंड रिपोर्ट को पौड़ी जिले को ही चुना। 

इससे पहले वर्ष 2015 में डाउन टू अर्थ ने पौड़ी के कुछ भूतहा गांव (घोस्ट विलेज) की यात्रा की थी। इनमें से एक गांव था बौंडुल। इन पांच सालों में इस गांव में क्या कुछ बदला है और कोरोना के प्रकोप के चलते इस गांव में भी लोग लौटे हैं। 2020 में कोरोना के कारण क्या इस गांव में कुछ बदलाव आया है। जब डाउन टू अर्थ की टीम वहां पहुंची तो गांव में कुछ लोग काम करते दिखाई देते। यहां बताते चले कि 2015 में जब डाउन टू अर्थ यहां पहुंचा था, तब यहां विमला देवी और पुष्पा देवी अकेली रह रही थी और दोनों महिलाओं के बच्चे रोजगार के लिए बड़े शहरों में रह रहे थे। 

लेकिन लॉकडाउन के चलते जब बड़े शहरों में काम बंद हो गया तो दोनों महिलाओं के बेटे अपने परिवार के साथ लौट आए हैं। विमला देवी के पुत्र दुर्गेश जुयाल और पुष्पा देवी के पुत्र किशन जुयाल वहां मनरेगा का काम कर रहे थे। हालांकि दोनों का कहना था कि मनरेगा के काम से परिवार नहीं चलने वाला। इसलिए अगर सरकार यहां रोजगार के साथ-साथ बच्चों के बेहतर भविष्य का भरोसा दिलाए तो वे लोग कोरोना खत्म होने के बाद भी रह सकते हैं, लेकिन अभी फिलहाल जो स्थिति है, उससे उनके पास दोबारा वहां से पलायन के अलावा कोई नहीं रास्ता दिखता। 

इसके बाद डाउन टू अर्थ ने पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक के गांव बलूणी का दौरा किया। पढ़ें, बलूणी में क्यों नहीं लौटे लोग

निराशा के बीच जब डाउन टू अर्थ कोट ब्लॉक के गांव कठुड़ पहुंचा तो वहां उम्मीद की किरण दिखाई दी। यहां कुछ युवा बंजर खेतों में काम कर रहे थे। वे लॉकडाउन के बाद गांव लौटे थे, लेकिन खाली बैठने की बजाय उन्होंने बंजर खेतों में काम शुरू किया और अब नई इबारत लिख रहे हैं। कुछ ऐसी ही हिम्मत पौड़ी ब्लॉक के बलोड़ी गांव के अचलानंद जुगरान ने भी दिखाई है। अचलानंद एक इंजीनियरिंग कॉलेज में केंटीन चलाते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद गांव लौट आए और बंजर पड़े खेतों में हाथ आजमाने लगे। 

दरअसल, जो युवा बड़े शहरों से लौटे हैं, उनमें से काफी युवा वापस आना चाहते हैं, लेकिन कुछ युवा शहरी जिंदगी परेशान से आकर पहाड़ों में काम करना चाहते हैं। डाउन टू अर्थ ने गांव बूंग में दिल्ली से लौटे किशनदेव कत्याल से बात की। वह अब गांव में अपनी जमीन आम और लीची के बाग लगाना चाहते हैं, हालांकि उन्हें अभी तक सरकार की ओर से कोई सहयोग नहीं मिला है। 

उत्तराखंड ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग ने 3.30 लाख प्रवासियों में से लगभग 2.75 लाख लोगों का विश्लेषण किया है। आयोग की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में सबसे अधिक 80.68 फीसदी प्रवासी देश के दूसरे राज्यों से आए हैं, जबकि उत्तराखंड के ही अन्य जनपद से अपने गांव-कस्बे में लौटे प्रवासियों की संख्या 18.11 प्रतिशत, जनपद से जनपद में ही लौटे लोगों की संख्या 0.92 प्रतिशत और विदेशों से लौटे प्रवासियों की संख्या लगभग 0.29 प्रतिशत थी। 

इनमें से कितने लोग लौटे हैं, इस बारे में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने डाउन टू अर्थ को बताया कि लगभग 45 फीसदी राज्य में रुक सकते हैं। पढ़ें, पूरा इंटरव्यू -

हालांकि विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान, हैदराबाद में एसआर शंकरन चेयर (रूरल लेबर) प्रोफेसर राजेंद्र पी. ममगाईं कहते हैं कि कोविड-19 के बाद जब प्रवासी उत्तराखंड लौट रहे थे तो उस समय उन्होंने भी सैंपल सर्वे किया था, जिसमें लगभग 85 फीसदी लोगों ने कहा था कि वे वापस चले जाएंगे, क्योंकि उत्तराखंड में रोजगार के साधन नहीं हैं। वहीं, पिछले कई सालों से उत्तराखंड में पलायन के मुद्दे पर काम कर रही संस्था के संयोजक रतन सिंह असवाल ने लॉकडाउन के दौरान 10 जिलों का दौरा किया और प्रवासी युवकों से बात की। वह कहते हैं कि केवल 5 से 10 फीसदी युवा ही रुकेंगे, हालांकि उन्हें काम मिल जाए, यह जरूरी नहीं, इसलिए इन युवाओं को उन लोगों के साथ जोड़ना चाहिए, जो पहले से राज्य में अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। 

दरअसल, जब देश में कोरोनावायरस संक्रमण फैला और प्रवासियों ने अपने गांव की ओर रुख किया तो उत्तराखंड सरकार, जो पहले से लगातार दावा कर रही थी कि वे पलायन को रोकने की दिशा में काफी काम कर रही है के लिए यह चुनौती बन गया कि जो प्रवासी अब वापस आ रहे हैं। उन्हें रोका कैसे जाए? इसलिए तुरत-फुरत में कई योजनाओं की घोषणा कर दी गई। राज्य के मुख्यमंत्री बताते हैं कि प्रवासियों को रोकने के लिए राज्य में कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। पढ़ें, पूरा इंटरव्यू 

अब सवाल यही है कि जो लोग अब उत्तराखंड में रहना चाहते हैं, उनके लिए सरकार को क्या करना चाहिए। ममगाईं कहते हैं कि सरकार केवल पांच फीसदी प्रवासियों को रोकने का प्रयास करे और उन्हें हर संभव सुविधाएं दें। अगर ये प्रवासी यहां सफल रहते हैं तो उन्हें रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करके सरकार अगले पांच साल में 50 फीसदी प्रवासियों को वापस बुलाने में कामयाब हो सकती है। 

कोविड-19 वैश्विक आपदा उत्तराखंड के लिए एक अवसर लेकर जरूर आई है, लेकिन सरकार के प्रयास और जमीनी हकीकत में काफी अंतर दिखता है। अभी चूंकि हालात सामान्य नहीं हुए हैं, इसलिए बहुत से प्रवासी सामान्य होने का इंतजार कर रहे हैं तो कई प्रवासी अपने गांव में ही अपना करियर तलाशने के लिए उत्साहित हैं। ऐसे में, आरपी ममगाई की इस बात पर गौर करना चाहिए कि अगर इस मौके पर केवल 5 फीसदी प्रवासियों को रोकने में सरकार सफल रहती है और ये प्रवासी अगले पांच साल के दौरान यहीं अपनी नई इबारत लिख लेते हैं तो इन 5 फीसदी प्रवासियों की देखादेखी 50 फीसदी प्रवासी वापस लौट सकते हैं।

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