विश्व जल दिवस विशेष: एक दशक में दोगुना हुआ आरओ का बाजार, भूजल दोहन बढ़ा
चिकित्सा विशेषज्ञ कहते हैं कि जब आरओ सिस्टम पानी से टीडीएस निकाल देता है तो उस वक्त कैल्शियम और मैग्नीशियम भी धुल जाते हैं
By Vivek Mishra
Published: Thursday 21 March 2024
यूं तो पानी रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन और पारदर्शी होता है लेकिन बीते तीन दशक में देश के अलग-अलग हिस्सों में पेयजल के बदले हुए रंग और स्वाद ने वाटर प्यूरीफायर का एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। इस बाजार में रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ) प्रणाली अग्रणी बन चुकी है। बीते एक दशक में आरओ का बाजार भारत में दोगुना हो चुका है और अगले एक दशक में यह आकार में दोगुना और बढ़ जाएगा। लेकिन इस बढ़ते हुए बाजार ने कुछ बड़ी चिंताएं भी खड़ी कर दी हैं। आरओ अपने दावे के विपरीत खनिजविहीन पेयजल का साधन बन गया है, जिसके कारण लोगों की सेहत दांव पर है। व्यावसायिक आरओ प्लांट से लेकर घरेलू आरओ प्लांट की सर्विस में पानी की गुणवत्ता सवालों के घेरे में है। आरओ के इस कड़वे सच से पर्दा उठाती विवेक मिश्रा की रिपोर्ट की पहली कड़ी -
हर दिन की तरह 35 हजार की आबादी वाले मंगरूलपीर तालुका में एक दर्जन से अधिक व्यावसायिक आरओ (रिवर्स ओस्मोसिस) प्लांट्स में गहमागहमी है। इन प्लांट्स से 60 हजार लीटर फिल्टर पानी, टैंक और जार में भरकर घर और दुकानों में पहुंचाने की तैयारी चल रही है। आरओ से निकले इस 60 हजार लीटर पानी के लिए करीब 90 हजार लीटर (कुल पानी का करीब 60 प्रतिशत) पानी बर्बाद कर नालियों में बहा दिया गया है।
यह तालुका महाराष्ट्र के सबसे सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र के वाशिम जिले में है। व्यावसायिक प्लांट लगाकर यहां 12 साल से आरओ का ठंडा पानी बेच रहे विनोद लुंगे पानी की इस बर्बादी से वाकिफ हैं। शुद्ध जल की भारी मांग के कारण वह इस कारोबार में उतरे हैं। लुंगे अपने 380 ग्राहकों तक रोजाना 4,000-4,500 लीटर आरओ पानी पहुंचाते हैं और इस पानी के लिए उन्हें 12,000 लीटर से अधिक भूजल का दोहन करना पड़ता है।
लुंगे आरओ का पानी बेचने से पहले एक लैंड डेवलपमेंट बैंक में नौकरी करते थे। यह बैंक 2011 में बंद हो गया। बेरोजगारी के दौर में उन्होंने संतरे पैदा करने वाले अपने खेत में 1,300 वर्गफीट की जगह में 1,000 लीटर प्रति घंटे की क्षमता वाला आरओ प्लांट स्थापित करवाया। यह प्लांट अल्ट्रावायलेट (यूवी) लैंप सिस्टम से लैस है। इसका काम पानी में कीटाणु और जीवाणु को मारना होता है। लुंगे के लिए खेती फायदे का सौदा नहीं थी। आय के नियमित साधन के लिए उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई के करीब चार लाख रुपए प्लांट (डेढ़ लाख रुपए का प्लांट और ढाई लाख रुपए का चिलर) पर खर्च किए। इसके साथ ही उन्होंने साढ़े तीन लाख रुपए का लोन लेकर एक पिकअप गाड़ी भी खरीदी। अब वह प्लांट से हर महीने कम से कम 30 हजार रुपए बचा लेते हैं।
वाशिम जिले के ही पेयजल को लेकर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सचिन कुलकर्णी पानी के इस कारोबार के फलने-फूलने की वजह समझाते हैं, “लोगों को सरकारी पेयजल में क्लोरीन का स्वाद नहीं भा रहा है और उनकी दूसरी चिंता जमीन से निकलने वाले पानी में टोटल डिजॉल्व सॉलिड (टीडीएस) की अधिकता की है। इस कारण जिले में बीते एक दशक में हर 3 से 4 हजार की आबादी पर व्यावसायिक आरओ प्लांट्स लग गए हैं क्योंकि उपलब्ध पेयजल साधनों से लोगों का भरोसा उठ गया है।”
ऐसा नहीं है कि केवल महाराष्ट्र में ही खेती या निजी जमीनों पर लोगों ने बड़ी क्षमता वाले व्यावसायिक आरओ प्लांट्स लगाए हैं। यह कारोबार दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, पंजाब जैसे राज्यों में आम हो चुका है। हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गोठड़ा गांव निवासी 60 वर्षीय जय भगवान कुकुरमुत्तों की तरह पनपे आरओ प्लांट के लिए पानी के खारेपन और अनियमित जलापूर्ति को जिम्मेदार ठहराते हैं। उन्होंने इसी कारण 2013 में 9 हजार रुपए खर्च कर घर में आरओ लगाया था। लेकिन एक साल के भीतर ही यह खराब हो गया। अब वह हर दूसरे दिन 20 लीटर का आरओ पानी वाला जार लेकर काम चला रहे हैं। यह पानी उनके पड़ोसी गांव में लगे प्लांट से आता है।
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निकटवर्ती झज्जर जिले के झामरी गांव में रहने वाले 68 वर्षीय हीरा सिंह पुराने दिनों को याद करते हैं, “1976-77 में पानी अच्छा हुआ करता था। बरसात धीरे-धीरे कम हुई और नहरों से आने वाला पानी भी अनियमित हो गया। इसके कारण इलाके में पानी खारा होता गया।” वह तालाब के किनारे खड़े होकर इशारा करते हैं कि इसी का पानी हम अपने घरेलू आरओ में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा हमें हर सुबह गांव आने वाले निजी टैंक से भी एक रुपए प्रति लीटर पानी खरीदना पड़ता है क्योंकि घरेलू आरओ सभी सदस्यों की पेयजल की जरूरतें पूरी नहीं कर पाता।
झज्जर जिले में ही झालड़ी गांव में अपने खेतों पर 1,000 लीटर प्रति घंटा से अधिक क्षमता वाला व्यावसायिक आरओ प्लांट चलाने वाले कपूर जांगड़ा 12 साल से इस कारोबार में हैं। वह कहते हैं कि जिस तरह खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, उसी तरह लोग भी दूसरों को देखकर आरओ का पानी इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी से हमारा कारोबार भी चलता है। उनके पास छह गाड़ियां है जिनमें 1,000 लीटर से अधिक की टंकी लगी हैं। वह इनमें आरओ का पानी भरते हैं और आसपास के गांवों में रोजाना सप्लाई करते हैं। पानी को शुद्ध करने की प्रक्रिया में निकलने वाला वेस्टवाटर प्लांट के पीछे खेतों में डाल देते हैं।
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले के भिन्गा मुख्यालय से 4 किलोमीटर दूर एक खेती की जमीन जो अब नगर पालिका के दायरे में आ चुकी है, वहां आरओ प्लांट चलाने वाले वीरेंद्र मिश्रा पूरे उत्साह से बताते हैं, “एक बार हमारे आरओ प्लांट के खिलाफ कुछ लोग शिकायत करने जिलाधिकारी (डीएम) के पास गए थे, उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा क्योंकि डीएम खुद हमारे पानी का इस्तेमाल करते थे।”
इनका प्लांट रोजाना करीब 5,000 लीटर आरओ से छनकर निकलने वाले पानी की सप्लाई गांव में करता है। वीरेंद्र का दावा है कि जिले में करीब 75 व्यावसायिक आरओ प्लांट काम कर रहे हैं लेकिन उनके प्लांट जितनी क्षमता व शुद्धता वाला दूसरा नहीं है। वह 250 फुट जमीन के नीचे से पानी की निकासी करते हैं और जिसका टीडीएस वैल्यू 354 से 355 एमजी (पानी में घुले लवण और खनिज को टीडीएस कहते हैं जिसे मिलीग्राम या पार्ट्स पर मिलियन यानी पीपीएम में मापा जाता है) प्रति लीटर होता है।
वीरेंद्र इस बात से अनजान है कि 500 एमजी प्रति लीटर तक टीडीएस वैल्यू के पानी को साफ करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने एक पेशेवर चिकित्सक की सलाह पर पानी का टीडीएस 55 से 100 एमजी प्रति लीटर के बीच सेट कर दिया है। अब वह गांवों में 55 से 100 एमजी प्रति लीटर टीडीएस वैल्यू वाला पानी बेच रहे हैं। श्रावस्ती के पटना खरगौरा गांव के राहुल पांडेय के मुताबिक, यहां पानी पीला पड़ जाता है, इसलिए लोग नलों का पानी कम इस्तेमाल करते हैं। गांव के लोग अब व्यावसायिक आरओ प्लांट का पानी खरीदकर पीने लगे हैं। उत्तराखंड के रुड़की में भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान की कुछ साल पहले आई रिपोर्ट “वाटर प्यूरीफायर्स फॉर ड्रिंकिंग वाटर” कहती हैं कि पानी में पीलापन ज्यादा आयरन या जीवाणु संक्रमण का संकेत है। इसका साधारण निदान पानी को उबालकर भी किया जा सकता है। हालांकि, राहुल बताते हैं कि पीने के लिए आरओ का पानी जब एक रुपए में एक लीटर मिल रहा है तो गांव वालों को यह लेने में आसानी होती है। गांव का भरोसा है कि आरओ से निकला पानी सेहत के लिए ज्यादा बेहतर है।
कैल्शियम की कमी खतरनाकडॉ अनिल अरोड़ा, सीनियर कंसल्टेंट, इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर गैस्ट्रोइंट्रोलॉजी एंड पैनक्रिएटिको बाइलेरी साइंसेज, सर गंगाराम अस्पताल, नई दिल्लीऐसे में यदि पानी में भी कैल्शियम, मैग्नीशियम की कमी हो जाती है तो यह संकट और बढ़ सकता है। हमारे देश में आरओ के दुष्प्रभाव को लेकर एक व्यापक अध्ययन की जरूरत है। भारत में समस्या है कि हम चिकित्सक के पास मरीजों का सेंट्रल रिकॉर्ड नहीं होता, जबकि भूमध्यसागरीय देशों (मेडिटेरियन कंट्रीज) में लोगों के सेंट्रल रिकॉर्ड होते हैं जिससे चिकित्सकों को राय बनाने में आसानी होती है। ऐसे में मरीज के बदलते रिकॉर्ड डाटा के आधार पर पक्की राय नहीं बनती। कुछ दवाएं शरीर में कैल्शियम कम कर देती हैं। इनमें ओमिप्रोपोजॉल और पैंटाप्रोपोजॉल जैसी दवाएं शामिल हैं। वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि आरओ सिस्टम कैल्शियम और मैग्नीशियम को कम कर देता है। आरओ का इस्तेमाल कर रहे लोगों को अपने पानी की जांच करानी चाहिए ताकि उन्हें वास्तविकता पता चल सके। |
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