विश्व जल दिवस विशेष: मानकों से खेल रहे हैं पानी के व्यापारी, क्या है टीडीएस का भ्रम?

पानी में टीडीएस की सीमाओं का अंदाजा न होने के बावजूद लोग अंधे विश्वास के साथ आरओ का इस्तेमाल कर रहे हैं

By Vivek Mishra

On: Thursday 21 March 2024
 
झज्जर जिले में रहने वाले 68 वर्षीय हीरा सिंह घरेलू आरओ का इस्तेमाल करते हुए (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)

पहली कड़ी में आपने पढ़ा: विश्व जल दिवस विशेष: एक दशक में दोगुुना हुआ आरओ का बाजार, भूजल दोहन बढ़ा पढ़ें अगली कड़ी 

बीते दो दशक में गांवों और कस्बों में जहां खुले जार से आरओ वाटर लेने का चलन तेजी से बढ़ा है, वहीं चार दशक पहले वाटर प्यूरीफायर मार्केट की दुनिया में दस्तक देने वाली घरेलू आरओ तकनीक अब पूरी तरह से साफ पानी का पर्याय बन चुकी है। प्वाइंट ऑफ यूज (पीओयू) डॉमेस्टिक आरओ सिस्टम नामक इस तकनीक का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 2018 में गाजियाबाद के वसुंधरा से ग्रेटर नोएडा की गौड़ सिटी में शिफ्ट हुए 45 वर्षीय राकेश परमार ने ग्रेटर नोएडा में मकान खरीदते ही सबसे पहले कार्बन कैंडल वाला वाटर प्यूरीफायर बदलकर आरओ लगवाया। वह मानते हैं कि यहां आरओ के पानी के बिना नहीं रहा जा सकता। हालांकि, अपने इस मत के पीछे वह कोई तर्क नहीं देते बल्कि लोगों के बीच चलन वाला एक आम विश्वास भर जाहिर करते हैं।

परमार को लगता है कि उनके इलाके में पानी का स्वाद और रंग अच्छा है लेकिन लोगों के बीच यह प्रचार है कि जमीन का पानी प्रदूषित है और इसलिए आरओ लगाना जरूरी है। उन्होंने भी पांच साल पहले 14 हजार रुपए का आरओ खरीदा था। इस आरओ में अल्ट्रावॉयलेट, अल्ट्राफिल्टर, टीडीएस नियंत्रण की सुविधा मौजूद है। इस आरओ के भीतर एक उपकरण लगा होता है जिसे पेचकस के सहारे ढीला या कसकर टीडीएस वैल्यू बदली जा सकती है। हालांकि, यह स्वयं से तभी किया जा सकता है जब आपको टीडीएस वैल्यू मालूम हो और सर्विसिंग का पता हो। यह आरओ पानी में मौजूद मिनरल को बचाने का भी दावा करता है। ऐसा दावा किया जाता है कि यह आरओ ब्रैकिश वाटर (जिसमें मीठे जल से अधिक लेकिन समुद्री जल से कम लवणता हो) के लिए मुफीद होते हैं। ये टैप वाटर, म्यूनिसिपल वाटर सप्लाई को साफ करने का दावा भी करते हैं।

राकेश परमार ने पांच साल में जितने का आरओ खरीदा था, लगभग उतनी ही राशि उसके मेंटिनेंस पर खर्च कर चुके हैं। वह इस बात से अनजान है कि उनके पानी में टीडीएस पहले कितना था और अब कितना है। इसकी जांच पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। केवल सर्विसमैन के कहने पर उन्होंने अपने आरओ के पानी को बेहतर मान लिया।

पांच साल में डबल हो जाएगा बाजार

सभी तरह के वाटर प्यूरीफायर में आरओ यानी रिवर्स ओस्मोसिस सबसे लोकप्रिय है। यह डिजॉल्व्ड सॉल्ट, अशुद्धियों और कीटाणुओं को पानी से हटाता है। इसके लिए एक अर्धपारगम्य झिल्ली (सेमिपरमिबएबल मेंबरेन) का इस्तेमाल होता है जो पानी से कीटाणुओं और डिजॉल्व्ड केमिकल्स को अलग कर देता है। रिवर्स ओस्मोसिस की प्रक्रिया में एक अत्यधिक बाहरी दबाव उस तरफ लगाया जाता है जहां बड़े पार्टिकल्स मौजूद होते हैं यानी जहां अशुद्धियां होती हैं। इससे अशुद्धियां मेंबरेन के दबाव वाले क्षेत्र में ही रह जाती हैं जबकि शुद्ध पानी दूसरी तरफ मेंबरेन से होकर पास हो जाता है। आरओ के मेंबरेन के छिद्र का आकार 0.0001 से 0.001 माइक्रोग्राम तक होता है जो सिर्फ साफ पानी को ही बाहर जाने देता है। अशुद्धियां और डिजॉल्व्ड सॉल्ट व माइक्रोब्स मेंबरेन के दूसरी तरफ ही रुक कर बाहर हो जाता है।

ट्रांसपेरेंसी मार्केट रिसर्च के मुताबिक, भारत में वाटर प्यूरीफायर बाजार में कई तकनीकी मौजूद है, मसलन, ग्रेविटी प्यूरीफायर जो एक नॉन इलेक्ट्रिक साधारण फिल्टर है। इसके अलावा पानी को गर्म करके रेडिएशन से साफ करने वाला अल्ट्रावॉयलेट प्यूरीफायर, पानी में बड़े और अनचाहे कणों को छांटने वाला सेडीमेंट प्यूरीफायर और हार्ड वाटर को कोमल बनाने वाला वाटर सॉफ्टनर आदि। हालांकि, 2015 तक आरओ इन सबमें सर्वाधिक लोकप्रिय बनकर करीब 37 फीसदी बाजार की हिस्सेदारी कर रहा था।

यह लेख मूल रूप से डाउन टू अर्थ मार्च 2024 के आवरण कथा में प्रकाशित हुआ था। 
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वहीं, आईएमआरसी ग्रुप की इंडिया वाटर प्यूरीफायर मार्केट रिपोर्ट बताती है कि 2023 में इंडिया वाटर प्यूरीफायर मार्केट का आकार 3,080.7 मिलियन यूएस डॉलर तक पहुंच गया जो 2032 तक दोगुना से अधिक होकर 688.3 मिलियन यूएस डॉलर का हो जाएगा। समूह ने 2024-32 के बीच इस बाजार की ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 9.1 फीसदी आंका है। रिसर्च रिपोर्ट बताती हैं कि वाटर प्यूरीफायर बाजार के बढ़ने के वजह लोगों का अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत होना है। ज्यादातर लोग बेहतर स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित पानी की मांग कर रहे हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, वाटर प्यूरीफायर मार्केट में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी हाउसहोल्ड सेक्टर की है। वहीं, भारत में पश्चिम और केंद्रीय भारत में वाटर प्यूरीफायर मार्केट सबसे ज्यादा है। भारत के यह क्षेत्र सूखे की मार भी झेलते हैं और यहां औद्योगिक इकाइयों की भी संख्या काफी है।

फिलहाल यूरेका फोर्ब्स, केंट आरओ सिस्टम, हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड, टाटा केमिकल्स लिमिटेड, ऑयन एक्सचेंज, ब्लू स्टार, एओ स्मिथ कॉरपोरेशन, लिवप्योर, एलजी, नसाका आदि प्रमुख डोमेस्टिक आरओ निर्माता बाजार में बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं। हालांकि घरेलू आरओ सिस्टम बाजार में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले केंट के मुताबिक, उनका आरओ सबसे ज्यादा उत्तर भारत में मांगा जा रहा है। पूर्वी दिल्ली में आरओ वाला डॉट कॉम नाम से दुकान चलाने वाले एक विक्रेता के अनुसार, वह 6 हजार से 27 हजार रुपए तक का आरओ बेचते हैं। वह मांग के अनुरूप ब्रांडेड और नाॅन ब्रांडेड दोनों आरओ बेचते हैं। उनके ग्राहक टीडीएस की चिंता के कारण आरओ की मांग करते हैं। जैसा ग्राहक चाहते हैं वैसा टीडीएस विक्रेता फिक्स कर देते हैं।

टीडीएस का भ्रम

क्या टीडीएस की 75 एमजी प्रति लीटर मात्रा पानी में स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक है? व्यावसायिक प्लांट चलाने वाले विनोद लुंगे इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि वह वैज्ञानिक तौर पर नहीं जानते कि टीडीएस की यह मात्रा सही है या नहीं। न ही उनसे किसी ने इस बारे में कभी बताया है। वह यह जानते हैं कि टीडीएस की मात्रा का पानी में अधिक होना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। इसी बात के डर से ज्यादातर लोग उनसे पानी भी खरीदते हैं।

वहीं, उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती, गाजियाबाद, मध्य प्रदेश के सीहोर और दिल्ली के व्यावसायिक प्लांट्स के संचालकों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वह पानी में 500 एमजी प्रति लीटर टीडीएस वाले पानी का भी उपचार करते हैं जो अनुचित है। ज्यादातर उपभोक्ता भी उनसे यह सवाल नहीं करते हैं कि उनके पानी में कितना टीडीएस सप्लाई किया जा रहा है। सिर्फ आरओ के पानी के नाम पर वह इसका उपभोग करते हैं।

क्या वाकई टीडीएस का कम और ज्यादा होना स्वास्थ्य के लिए घातक है? या फिर पानी में 300 से अधिक एमजी प्रति लीटर टीडीएस ज्यादा है? विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2017 में जारी पेयजल मानकों में टीडीएस से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का कोई मानक तय नहीं किया है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, इस बात के बहुत कम आंकड़े मौजूद हैं कि टीडीएस की अधिकता से स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालांकि, वह इस बात पर जोर डालता है कि पेयजल में 600 एमजी प्रति लीटर तक टीडीएस रहे। डब्ल्यूएचओ 1,000 एमजी प्रति लीटर से अधिक टीडीएस को आपत्तिजनक मानता है। भारत की तरह ही यूरोप, अमेरिका, कनाडा के पेयजल में 500 से 600 टीडीएस एमजी प्रति लीटर तक के मानक रखे गए हैं।

पेयजल के मानक

भारत में पेयजल के लिए मानक तय करने वाला भारत मानक ब्यूरो (बीएसआई) ने 1991 में पहली बार पेयजल के मानक तय किए। बीआईएस ने “इंडियन स्टैंडर्ड फॉर ड्रिंकिंग वाटर– स्पेशिफिकेशन आईएस 10500: 1991” के तहत पानी के रंग, स्वाद, कठोरता, क्षारीयता और उसमें मौजूद सभी जरूरी खनिज तत्वों की वांछनीय व स्वीकार्य सीमा तय की। अब तक इस मानक को तीन बार बदला जा चुका है। इस वक्त पेयजल के लिए बीआईएस का भारतीय मानक 10500:2012 लागू है (देखें, भारतीय मानक ब्यूरो के पेयजल मानक,)।

स्रोत: नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी की रिपोर्ट - वाटर प्यूरीफायर्स फॉर ड्रिंकिंग वाटर

पेयजल के इस मानक के मुताबिक, पानी में टीडीएस की अधिकतम सीमा 500 एमजी प्रति लीटर होनी चाहिए। वहीं, किसी वैकल्पिक पानी स्रोत के अभाव में 2,000 एमजी प्रति लीटर की टीडीएस सीमा स्वीकार्य है। विशेष परिस्थितियों यानी वैकल्पिक पानी के स्रोत न होने पर 2,000 एमजी प्रति लीटर तक टीडीएस वाला पानी पिया जा सकता है। यह भी सवाल है कि टीडीएस की न्यूनतम सीमा क्या होनी चाहिए? उत्तराखंड में रुड़की स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी में पर्यावरणीय जलविज्ञान प्रभाग के वैज्ञानिक राजेश सिंह मानते हैं कि देश में टीडीएस की कोई न्यूनतम सीमा नहीं तय की गई है। हालांकि, 30 एमजी प्रति लीटर टीडीएस पानी को स्थिर बनाता है फिर भी व्यक्तिगत तौर पर वह मानते हैं कि पानी में 60 एमजी प्रति लीटर से अधिक टीडीएस सुरक्षित है। यह हैरानी भरा है कि टीडीएस की न्यूनतम सीमा किसी भारतीय मानक में तय नहीं किया गया है।

आरओ के मामले में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की एक्सपर्ट कमेटी ने टीडीएस के सवाल के साथ यह भी पहलू उठाया था कि बीआईएस क्यों नहीं आरओ के लिए पेयजल में कैल्शियम और मैग्नीशियम की न्यूनतम सीमाओं को तय कर रहे हैं (देखें, देश की 21 नदियों में 80 से 150 टीडीएस,)। इसके बाद ही पैकेट, बोतल या बंद जार में बिकने वाले पेयजल में कैल्शियम और मैग्नीशियम की न्यूनतम सीमाएं लागू की गईं। 30 अक्टूबर, 2019 को एफएसएसएआई की ओर से जारी अधिसूचना में बताया गया है कि पैकेज्ड वाटर में कैल्शियम 20 से 75 मिलीग्राम प्रति लीटर जबकि मैग्नीशियम 10 से 30 मिलीग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। यह मानक घरेलू स्तर पर लगाए गए आरओ के जरिए निकले पानी में तय नहीं है क्योंकि सभी आरओ कंपनियां पेयजल के आईएस 10500:2012 स्टैंडर्ड को फॉलो करती हैं और यह स्टैंडर्ड खनिजों की सिर्फ अधिकतम सीमाओं की ही बात करता है न कि न्यूनतम की।

आरओ के पानी में किस तरह की कमियां हैं? इसे जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) से आरटीआई के जरिए पूछा क्या आपने कभी घरेलू आरओ कंपनियों के पानी को जांचा है? इस सवाल पर सीपीसीबी ने फरवरी, 2024 में जवाब देते हुए कहा कि उन्होंने कभी आरओ के पानी की जांच नहीं की है, यह उनके एम्बिट से बाहर है। फ्रैंड्स संस्था के संयोजक शरद तिवारी के अनुसार, यदि ऐसा है तो सीपीसीबी ने किस आधार पर एनजीटी को यह बताया कि आरओ न सिर्फ पानी का बर्बाद करता है बल्कि यह टीडीएस और जरूरी मिनरल्स को काफी कम कर सकता है (देखें, कैल्शियम की कमी खतरनाक,)।

आरओ प्रबंधन की चुनौती

चाहे व्यावसायिक प्लांट हो या फिर घरेलू स्तर पर लगा हुआ आरओ सिस्टम, दोनों ही प्रणाली में मेंबरेन और फिल्टर की अहम भूमिका है। यदि आरओ लगा हुआ है और निश्चित समय अंतराल पर उसके मेंबरेन व फिल्टर को बदला नहीं जा रहा है तो वह आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। (देखें, नुकसान पहुंचाने वाले माइक्रोब्स)।

महावीर कैंसर संस्थान में विभागाध्यक्ष (शोध)नुकसान पहुंचाने वाले माइक्रोब्स

डॉ अशोक घोष, महावीर कैंसर संस्थान में विभागाध्यक्ष (शोध)

मैं आज 73 साल का हूं और कभी आरओ फिल्टर नहीं इस्तेमाल नहीं किया है। आरओ पैसों और पानी दोनों की बर्बादी है। ज्यादातर आरओ मार्केटिंग में दावा करते हैं कि हमने मिनरलाइजर लगाया है जो पानी में मिनरल को सप्लीमेंट करता है। जबकि यह सिर्फ मानसिक संतोष के लिए है। यह मिनरल कितना कम और ज्यादा करता है इसकी कोई सीमा तय नहीं है। घरेलू पीओयू आरओ का यदि मेंटनेंस नहीं किया जाए तो यह फायदे के बजाए घातक हो जाता है। क्योंकि आरओ के मेंबरेन पर माइक्रोब्स जमा होने लगते हैं वह पानी में आने लगता है और फिलटर करने की क्षमता भी मेंबरेन की घट जाती है। यह बहुत बड़ा मिथ है कि आरओ सारे दुखों का हल है।

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में व्यावसायिक आरओ प्लांट संचालन का अनुभव रखने वाले संतोष चौरसिया के मुताबिक, मेंबरेन ज्यादातर देश के बाहर से आते हैं। अमेरिका से आने वाले मेंबरेन टिकाऊ होते हैं जिनमें अधिकतम एक साल की वारंटी होती है। एक साल के बाद इसे बदलना ही पड़ता है।

आरओ मेंबरेन में फिल्म की कई शीट या परतें होती हैं जिन्हें एक साथ बांधा जाता है और फिर एक प्लास्टिक ट्यूब के चारों ओर सर्पिल विन्यास में घुमाया जाता है। इस पूरी चीज को थिन फिल्म कंपोजिट या टीएफसी झिल्ली के नाम से जाना जाता है। इसमें 0.0001 माइक्रोन आकार के छिद्र हैं और यह अर्ध-पारगम्य है। इसलिए यह पानी के अणुओं को गुजरने की अनुमति देता है, क्योंकि यह अघुलनशील अशुद्धियों के लिए बाधा के रूप में कार्य करता है। पानी के अणु झिल्ली की सतह से गुजरते हैं और इसके माध्यम से प्रवेश करके केंद्र ट्यूब में एकत्र हो जाते हैं जहां दूषित पदार्थ छांट दिए जाते हैं।

वीरेंद्र अपने आरओ प्लांट में जापान निर्मित 9.5 फुट का मेंबरेन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसकी कीमत करीब 98 हजार रुपए है। इसी तरह से घरेलू स्तर के आरओ में भी मेंबरेन और फिल्टर समय-समय पर बदलने होते हैं अन्यथा यह नुकसान पहुंचाते हैं। वीरेंद्र के अनुसार, व्यावसायिक आरओ प्लांट्स में पानी के शुद्धिकरण की प्रक्रिया के दौरान कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे जरूरी खनिज बाहर निकल जाते हैं। ऐसे में एक कैल्साइड फिल्टर भी आरओ प्लांट को लगाना होता है ताकि कैल्शियम की मात्रा मानकों के तहत की जा सके लेकिन कैल्साइड फिल्टर बहुत कम प्लांट्स में लगे होते हैं।

दिल्ली में एक दशक से ज्यादा समय से आरओ बेचने वाले ट्रेडर कृतिका इंटरप्राइजेज के संतोष कुमार झा बताते हैं कि आरओ मेंबरेन, फिल्टर और पंप जैसे सामान चीन, साउथ कोरिया, अमेरिका से आयात होते हैं और इन आयतित सामानों को निरंतर बदलना पड़ता है। हालांकि ग्राहक इस पर ध्यान नहीं देते। वह कई साल तक मेंबरेन और फिल्टर इस्तेमाल करते रहते हैं जो उनके लिए नुकसानदायक है।

अनभिज्ञ उपभोक्ता

प्रोफेसर मिनाती दास दक्षिणी दिल्ली के मालवीय नगर में 2005 से रह रही हैं। शुरुआत में जब वह भूजल का इस्तेमाल करती थीं, तब उसका रंग पीला था और टीडीएस जांच कराने पर वह सामान्य पैरामीटर्स से काफी ज्यादा था। कितना ज्यादा था यह उन्हें नहीं याद है। इसके बाद 2005 में ही उन्होंने एक कंपनी का आरओ लगाया जिसकी कीमत 10 हजार रुपए थी। कंपनी ने इस आरओ में यूवी, यूएफ, टीडीएस कंट्रोलर और मिनरल सुरक्षित रखने का दावा किया था। हालांकि, वह कंपनी के दावों पर विश्वास करके इसका इस्तेमाल कर रही हैं। उन्होंने कभी उन दावों को विज्ञान की कसौटी पर नहीं परखा। वह रंग और स्वाद के आधार पर यह अनुमान लगाती हैं कि पानी आरओ के बाद ठीक है। फिलहाल आखिरी बार नवंबर, 2023 में जब उन्होंने पानी में टीडीएस की जांच करवाई थी, तब वह काफी कम था। टीडीएस कितना था, यह उन्हें याद नहीं है। प्रोफेसर मिनाती भी आरओ का इस्तेमाल करने वाले दूसरे लोगों की तरह इस बात पर दुख जताती हैं कि आरओ प्रक्रिया में 50 से ज्यादा फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है।

ऐसे ही दिल्ली-एनसीआर के इलाकों में कई आरओ उपभोक्ताओं ने बताया कि पानी के रंग और स्वाद के अलावा उन्होंने एक फियर फैक्टर व कंपनी के दावों के आधार पर या फिर टेलीविजन पर दिखाए गए सेलिब्रेटीज के प्रचार के आधार पर आरओ खरीदने का निर्णय लिया। उल्लेखनीय है कई कंपनियां नामी गिरामी फिल्मी सितारों से आरओ का प्रचार करवा रहीं हैं, जिससे लोग आकर्षित हो रहे हैं।

स्रोत: नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी की रिपोर्ट - वाटर प्यूरीफायर्स फॉर ड्रिंकिंग वाटरटीडीएस जिसके कारण आरओ पानी का बड़ा कारोबार जनसमूह के बीच चल रहा है, उसे लेकर यह मतभेद बना हुआ है। टीडीएस की न्यूनतम सीमा क्या होनी चाहिए, इस पर भी स्पष्टता नहीं है। पानी में टीडीएस की न्यूनतम सीमा नहीं तय की गई है और अधिकतम सीमा को लेकर लोग डरे हुए हैं। घरों में लगने वाले ज्यादातर आरओ सिस्टम पानी में टीडीएस की न्यूनतम सीमा को 30 एमजी प्रति लीटर या उससे भी नीचे पहुंचा देते हैं, जिससे पानी में से जरूरी खनिज निकल जाता है। इसकी पुष्टि कई शोध करते हैं।

अविश्वास का फायदा

हमारे पेजयल के तीन प्रमुख स्रोत हैं। पहला सतह का जल यानी नदी, तालाब, झरने और दूसरा भूजल व तीसरा वर्षा जल। नीति आयोग की कंपोजिट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स रिपोर्ट, 2018 में बताया गया कि 70 फीसदी सतह का जल संक्रमित हो चुका है। वहीं, देश के प्रमुख शहरों मे भूजल की लगातार कमी हो रही है। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, भारत दुनिया में सर्वाधिक भूजल का इस्तेमाल करने वाला देश है। भारत सालाना 230 क्यूबिक किलोमीटर भूजल का इस्तेमाल करता है। वहीं, करीब 85 फीसदी पेयजल की आपूर्ति भूजल के जरिए होती है। शहरी निवासी मुख्य रूप से भूजल पर निर्भर करते हैं क्योंकि निगम की जलापूर्ति अविश्वसनीय और अपर्याप्त है।

आईआईएम इंदौर में मार्केटिंग क्षेत्र की असिस्टेंट प्रोफेसर श्रीपल्ली भवानी शंकर अपने एक शोधपत्र “मार्केट बेस्ड सोल्यूशन टु सेफ ड्रिंकिंग वाटर : एप्रोचेस एंड कांस्ट्रेंट्स” में बताते हैं कि 2001 और 2011 की जनगणना रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि लोग पानी के खुले स्रोत जिनके संक्रमित होने की संभावना होती है, उसे छोड़कर सुरक्षित पानी स्रोतों जैसे टैप, हैंडपंप, ट्यूबवेल को अपना रहे हैं। यानी भूजल के पानी पर निर्भरता बढ़ रही है। वहीं, इकोनॉमेक सर्वे 2022-23 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 85 फीसदी परिवारों के पास सुरक्षित पानी उपलब्ध है। हालांकि, गांव से लेकर शहर तक उपलब्ध सुरक्षित पानी को बतौर पेयजल इस्तेमाल करने के लिए लोगों में भरोसा नहीं है। डाउन टू अर्थ ने कई वैज्ञानिक और जानकारों से बात की और सभी के मुताबिक पानी में मिट्टी, बालू जैसी गंदगी (टर्ब्यूडिटी) व रोगाणु कम करने के लिए साधारण फिल्टर या यूवी सिस्टम या पानी उबाल कर पेयजल इस्तेमाल किया जा सकता है जबकि असल में आरओ की आवश्यकता हर जगह नहीं है।

पेयजल मानकों पर खरा है या नहीं? यह जानने के लिए भारतीयों के पास कोई ठोस साधन नहीं है। इस बात का फायदा बाजार ने उठाया और यूरेका फोर्ब्स के जरिए वाटर प्यूरीफायर मार्केट ने देश में 1980 में कदम रखा। कंपनी ने अपना पहला वाटर प्यूरीफायर एक्वॉगार्ड लॉन्च किया। जबरदस्त प्रचार-प्रसार ने एक्वागार्ड को भारत में वाटर प्यूरीफायर का पर्याय बना दिया। यह आज भी एक प्रमुख वाटर प्यूरीफायर कंपनी है। इसके एक दशक बाद 1990 में केंट के आरओ तकनीक ने बाजार में इंट्री ली और फिर तीन दशकों में यह पूरे देश में छा गया। आरओ तकनीकी के प्रचार-प्रसार ने बाजार में कई कंपनियों को फलने-फूलने का मौका दिया है। खासतौर से गैर ब्रांड वाले आरओ निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों को निशाना बनाते हैं क्योंकि ऐसे आरओ 5 से 7 हजार रुपए तक बाजार में उपलब्ध हैं।

संतोष कुमार झा आरओ कंपनियों बीच चल रही प्रतिस्पर्धा का जिक्र करते हुए कहते हैं कि एफएमसीजी, ऑटो सेल्स या इलेक्ट्रॉनिक्स की बड़ी और मल्टीनेशनल कंपनियां भी आरओ में दांव आजमा रही हैं लेकिन केंट और एक्वागार्ड के आगे टिक नहीं पाती। इन दोनों ब्रांड में डोमेस्टिक आरओ सिस्टम में 7 हजार रुपए से लेकर 32 हजार रुपए तक का आरओ उपलब्ध हैं। हर सीजन में इनकी मांग बनी रहती है।

सिर्फ बाजारों में ही नहीं अब आरओ कंपनियां ऑनलाइन भी उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं। अपने विज्ञापनों से वह ग्राहकों को लुभाती हैं। संतोष मुताबिक ऑनलाइन माध्यम से लिवप्योर की मांग ज्यादा होती है। इन आरओ को खरीदना फिर भी आसान है लेकिन इनका मेटनेंस बहुत खर्चीला होता है। इसे देखते हुए कंपनियों ने खुद की सर्विसिंग को भी प्रमोट करना शुरू कर दिया है। आरओ में सालाना 3,500 रुपए तक का खर्चा आता है। प्रमुख कंपनियां एक से तीन साल तक की एक्सटेंडेड वारंटी देती हैं।

कंपनियों के जीरो लिक्विड डिस्चार्ज वाले आरओ प्रचार के बारे में दिल्ली के एक अन्य आरओ ट्रेडर अपना मत जाहिर करते हैं, “ऐसा कोई आरओ नहीं है जो पानी को बर्बाद न करता हो। यह प्रचार का सिर्फ तरीका भर है।” वह बाजार का गणित समझाते हुए कहते हैं कि आरओ की 70 फीसदी मांग दिल्ली-एनसीआर में है जबकि देश के अन्य शहरों में 30 फीसदी है।

देश में सभी आरओ निर्माता कंपनियों को बीआईएस मानक लाइसेंस लेने के लिए एक साल का वक्त दिया गया है। बीते वर्ष नवंबर में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अधिसूचना जारी की है। हालांकि, इस अधिसूचना पर भी सवाल उठ रहे हैं क्योंकि एनजीटी के आदेशों का पालन इस अधिसूचना में भी नहीं किया गया है (देखें, कमजोर अधिसूचना,)।

कमजोर अधिसूचना

शरद तिवारी, गैर सरकारी संस्था फ्रेंड्स के संस्थापक और आरओ मामले के याचिकाकर्ता

शरद तिवारी, गैर सरकारी संस्था फ्रेंड्स के संस्थापक और आरओ मामले के याचिकाकर्ताएनजीटी ने 28 मई, 2019 को घरेलू, व्यावसायिक, और औद्योगिक स्तर पर इस्तेमाल होने वाले आरओ फिल्टर के मद्देनजर बहुत महत्वपूर्ण आदेश दिए थे, जो पर्यावरण, नागरिकों और जल संरक्षण से संबंधित सरकार की विभिन्न नीतियों के हित में थे। मगर कुछ व्यापारियों के हित में जरूर नहीं थे। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने भी एनजीटी के आदेश को ही लागू करते हुए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को इस संबंध में अधिसूचना जारी करने का आदेश दिया था।

अफसोस की बात है कि संबंधित नोटिफिकेशन एनजीटी की लगातार नाराजगी के बावजूद उसके आदेश के अनुरूप नहीं निकाला गया। एनजीटी ने इस मामले में दोबारा पर्यावरण मंत्रालय को सख्त आदेश दिया, हालांकि यह मामला अब सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। वहीं, इस बीच केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से नवंबर, 2023 में जारी वाटर प्यूरीफिकेशन सिस्टम (रेग्युलेशन ऑफ यूज) रूल्स, 2023 अधिसूचना में फिर से आरओ कंपनियों को रूल्स का पालन करने के लिए एक साल का वक्त दे दिया गया है। जबकि जल की अथाह बरबादी तो हो ही रही है साथ ही उसकी गुणवत्ता से संबंधित अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू भी प्रभावित हुए हैं। केंद्र के जरिए जारी अधिसूचना में एनजीटी द्वारा गठित एक्सपर्ट कमेटी की सिफारिशों और आदेशों को दरकिनार किया गया है। मसलन पीने के पानी में 500 या उससे कम टीडीएस होने पर आरओ फिल्टर सिस्टम न लगाने और आरओ द्वारा फिल्टर्ड पीने के पानी में न्यूनतम टीडीएस स्तर 150 रखने की बात नहीं की गई है।

 

पढ़ें, अगली कड़ी विश्व जल दिवस विशेष: क्या सच में सुरक्षित है आरओ का पानी, कहीं बीमार तो नहीं कर रहा?

 

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