2 अक्टूबर को पूरा हो जाएगा स्वच्छ भारत मिशन का लक्ष्य, लेकिन...

अब नहीं होना होगा शर्मसार, खुले में शौच से मिली मुक्ति-1 : हर घर में शौचालय बन चुका है लेकिन सिर्फ 47 फीसदी बस्तियों तक ही पर्याप्त पानी पहुंचा है, क्या इससे मिशन अधूरा नहीं रहेगा? 

By Sushmita Sengupta

On: Saturday 28 September 2019
 
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में यमुना के तट पर बसे ओडीएफ ग्राम पंचायत बेंदा में स्थित इज्जत घर (विकास चौधरी / सीएसई)

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर सकते हैं। सरकार ने जब पांच साल पहले स्वच्छ भारत मिशन शुरू किया था तो लक्ष्य रखा गया था कि 2 अक्टूबर 2019 तक देश में 10 करोड़ शौचालय बनाए जाएंगे और देश में कोई भी खुले में शौच नहीं करेगा। सरकार का दावा है कि यह लक्ष्य हासिल कर लिया गया है 2 अक्टूबर को स्वयं प्रधानमंत्री इसकी घोषणा करेंगे। भारत जैसे देश के लिए इसे बहुत बड़ी सफलता माना जा रहा है। डाउन टू अर्थ भारत सरकार की इस योजना पर शुरू से नजर रखे हुए है और अब जब यह योजना पूरी होने वाली है। डाउन टू अर्थ नेस्वच्छ भारत मिशन के लगभग सभी पहलुओं की व्यापक पड़ताल की और 2 अक्टूबर तक इसे एक श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। प्रस्तुत है, इसकी पहली कड़ी- 

 

भारत जल्द ही आधिकारिक तौर पर खुले में शौचमुक्त देश का दर्जा हासिल कर लेगा। इसका अर्थ हुआ कि देश के हर एक घर के सदस्य की पहुंच शौचालय तक हो गई है। इस वृहद व मुश्किल लगने वाले लक्ष्य को स्वच्छ भारत मिशन के तहत हासिल किया गया है। “हर घर में शौचालय” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताओं की फेहरिस्त में सबसे ऊपर था और इसे ध्यान में रखते हुए वर्ष 2014 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनने के साथ ही स्वच्छ भारत मिशन शुरू कर दिया गया था। महज 5 वर्षों में ही 10 करोड़ से ज्यादा शौचालय बनाने के इस बड़े लक्ष्य को पूरा कर लिया गया।

2018 में प्रकाशित इंडियन सोसाइटी इंटरनेशनल जर्नल ऑफ होम साइंस के मुताबिक ग्रामीण भारत में इस मिशन को लागू करते हुए 11 करोड़ से अधिक शौचालय बनाने में 1 लाख 34 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया था।

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वर्ष 2014 में जब एनडीए सरकार बनी थी, तो देश में शौचालय की उपलब्धता महज 31 प्रतिशत थी जबकि पांच वर्ष बाद अब अक्टूबर, 2019 तक 100 फीसदी घरों में शौचालय बन जाएंगे।

जलशक्ति मंत्रालय के पेयजल व स्वच्छता विभाग के अनुसार देश के कुल 731 जिलों में से 698 जिलों ने खुद को खुले में शौचमुक्त (ओडीएफ) घोषित कर दिया गया है। इनमें 81 फीसदी जिलों का सत्यापन भी किया जा चुका है। स्वच्छता को लेकर काम करने वाले शोधार्थी और साझेदारों का सवाल है कि क्या स्वच्छता में सुधार का प्रभाव लोगों की सेहत पर पड़ा है?

जलशक्ति मंत्रालय के पेयजल व स्वच्छता विभाग के संयुक्त सचिव अरुण बकोरा बताते हैं “स्वच्छता मंत्रालय ने ओडीएफ की वजह से 2014 से 2019 तक सेनिटेशन संबंधी करीब 3,00,000 मौतों को न सिर्फ रोका बल्कि हर वर्ष डायरिया के 20 करोड़ मामलों से भी बचाव किया। खुले में शौचमुक्त वातावरण के कारण प्रत्येक परिवार को प्रतिवर्ष 50,000 रुपए की बचत भी हुई है।”

वहीं, पेयजल व स्वच्छता विभाग के आंकड़ों के मुताबिक ओडीएफ गांवों की तुलना में गैर-ओडीएफ गांवों में भूगर्भ जल के प्रदूषित होने की आशंका 12.7 गुना से भी अधिक थी। ऐसे में जलसंकट की समस्या और गहरी हो जाती।

जर्नल ऑफ फैमिली मेडिसिन एंड प्राइमरी केयर की ओर से इसी साल किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि इस क्षेत्र में एक सकारात्मक बदलाव आया है। ज्यादा से ज्यादा गांवों के ओडीएफ होने से घातक डायरिया के मामलों में काफी गिरावट आई है। (देखें : स्वच्छता से सेहत) विज्ञानियों ने इस सिलसिले में नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय) के एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) से डायरिया की साप्ताहिक रिपोर्ट भी हासिल की थी।

स्रोत: जी. डंडाबथुला व अन्य, 2019. इम्पैक्ट असेसमेंट ऑफ इंडियाज स्वच्छ भारत मिशन-क्लीन इंडिया कैम्पेन ऑन एक्यूट डायरियल डिजीज आउटब्रेक्स: येस, देयर इज ए पॉजीटिव चेंज। जर्नल ऑफ फैमिली मेडिसिन एंड प्राइमरी केयर, मार्च; 8(3):1202-1208

11 पंचवर्षीय योजनाएं रहीं नाकाम

देश में स्वच्छता की बात पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) से ही चल रही है, तब से लेकर अब तक कुल 12 पंचवर्षीय योजनाएं लागू हुईं लेकिन 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) तक स्वच्छता के क्षेत्र में विकास बेहद धीमा रहा। पेयजल व स्वच्छता विभाग के अनुसार 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के बाद ही स्वच्छता के क्षेत्र में बड़ा बदलाव देखा जा सका।

पानी व स्वच्छता को लेकर काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था आईआरसी की ओर से 2012 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, पहली पंचवर्षीय योजना के आखिर तक महज 5 प्रतिशत घरों में शौचालय थे। वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय बाल कोष (यूनिसेफ) और िवश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की तरफ से संयुक्त रूप तैयार किए गए ज्वाइंट मॉनिटरिंग प्रोग्राम में कहा गया कि 31 प्रतिशत घरों में ही शौचालय बन पाए। ग्रामीण स्वच्छता के हालात बेहद खराब थे और 1981 में यह महज 1 प्रतिशत (सरकार के पास उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक) था, जिसमें सुधार हुआ और वर्ष 2008 (ज्वाइंट मॉनिटरिंग प्रोग्राम) में स्वच्छता कवरेज 22 प्रतिशत पर पहुंच गया।

स्रोत: पेयजल व स्वच्छता विभाग

कैसे होगा शौचालय का इस्तेमाल

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जल समस्या से जूझते इन शौचालयों के इस्तेमाल पर कैसे ध्यान केंद्रित किया जाएगा? पेयजल व स्वच्छता विभाग आनेवाले 10 वर्षों के लिए एक रणनीति पर काम कर रहा है ताकि शौचालय अभियान प्रभावी व दीर्घकालिक बन सके। रणनीति के मसौदे को 9 सितंबर को सार्वजनिक किया गया, ताकि इस पर विस्तृत बहस की जा सके। पेयजल व स्वच्छता विभाग, केपीएमजी और यूनिसेफ ने मिल कर इस मसौदे को तैयार किया है। केपीएमजी एक निजी संस्था है।

वर्ष 2018-2019 की राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वे (एनएआरएसएस) की रिपोर्ट बताती है कि शौचालय का इस्तेमाल 80 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा है। मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार, बड़े पैमाने पर जागरुकता कार्यक्रमों के चलते ही ये लक्ष्य पूरा हो सका है। जब स्वच्छता मिशन शुरू हुआ था, तो शौचालय निर्माण को महिलाओं की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया। स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत कई जगहों पर तो शौचालयों को “इज्जतघर” नाम भी दिया गया, क्योंकि शौचालयों के कारण महिलाओं को बाहर नहीं जाना पड़ता था। एसएम सहगल फाउंडेशन के शोधकर्ताओं ने गरीब व पिछड़े हरियाणा के मेवात क्षेत्र का सर्वेक्षण किया, तो पाया कि यहां आर्थिक मजबूरियों के चलते नहीं बल्कि जागरुकता में कमी के कारण लोग शौचालय का निर्माण नहीं कराते हैं।

कई जगहों पर परिवार के पुरुष सदस्यों ने शौचालय बनाने का विरोध किया, तो कई जगहों पर यह भी दिखा कि जिन घरों में शौचालय बने थे, वहां के पुरुष उनका इस्तेमाल ही नहीं कर रहे हैं। सरकार ने शौचालयों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए मीडिया और नामी शख्सियतों को जागरुकता अभियान में शामिल किया। व्यवहार में बदलाव के नाम पर सरकारी अफसरों की लोगों पर ज्यादतियों की खबरें भी आईं। उत्तर प्रदेश के स्वच्छ भारत मिशन से जुड़े अधिकारियों ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया कि शौचालय निर्माण के लक्ष्य को पूरा करने के लिए वे लगातार दबाव में थे। इंटरनेशनल इनिशिएटिव फॉर इम्पैक्ट इवेलुएशन (3आईई) समर्थित चार टीमों ने 2017 और 2019 के बीच (2019 में रिपोर्ट प्रकाशित) ग्रामीण गुजरात, कर्नाटक और ओडिशा में अध्ययन कर पाया कि स्वच्छता कार्यक्रम के अंतर्गत व्यवहार में बदलाव लोगों को शौचालय का इस्तेमाल करने में प्रेरित और प्रोत्साहित कर सकता है।

3आईई के अध्ययन में यह भी सामने आया कि व्यवहार में बदलाव पर फोकस किया जाना चाहिए, मगर लोग शौचालय का इस्तेमाल जारी रखें, इसके लिए शौचालय के खराब डिजाइन या पानी की कमी जैसे अहम पहलुओं पर ध्यान देना भी अत्यंत जरूरी है। पेयजल व स्वच्छता विभाग के सचिव परमेश्वरन अय्यर ने कहा, “ओडीएफ को बरकरार रखने के लिए संचार के जरिए सामाजिक व्यवहार में बदलाव की रणनीति पर सबसे ज्यादा फोकस रहेगा।” अय्यर आगे कहते हैं कि जो सामुदायिक स्वच्छता परिसर और मकान छूट गए हैं, उनकी पहुंच शौचालयों तक बरकरार रहे, इसके लिए उन्हें रियायतें देना जारी रखा जाएगा। विभाग इस बात पर सहमत है कि चूंकि लोगों के व्यवहार में बदलाव आ रहा है और लोग शौचालयों का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं लेकिन शौचालयों का इस्तेमाल तभी टिकेगा जब उसमें पानी उपलब्ध हो।

डाउन टू अर्थ ने जलसंकट वाले राजस्थान के चुरू जिले का दौरा किया। इस दौरे में हमने जाना कि शौचालय को महिलाओं की इज्जत व प्रतिष्ठा से जोड़ने के चलते किस तरह समुदाय के व्यवहार में बदलाव आया और उन्होंने पानी की उपलब्धता के लिए काम किया। इस जिले ने पंप के जरिए क्षारीय पानी निकाल कर और बारिश का पानी बचा कर जल प्रबंधन किया। हालांकि, व्यवहार में बदलाव के बावजूद पानी के विकल्प न होने पर शौचालय के इस्तेमाल को बनाए रखने में मुश्किलें आ रही हैं।

डाउन टू अर्थ ने पूर्व में झांसी में पाया था कि लोग शौचालय का इस्तेमाल तभी करते थे, जब पानी उपलब्ध होता था। पानी की किल्लत के समय उन्हें दूर-दराज से पानी लाना पड़ता था। इससे जाहिर होता है कि अगर पानी उपलब्ध न हो, तो व्यवहार में बदलाव की सारी कवायदें अप्रभावी हो जाती हैं।

शौचालय में पानी नहीं

पेयजल व स्वच्छता विभाग के आंकड़ों के मुताबिक,अप्रैल 2019 तक महज 18.3 प्रतिशत घरों तक पाइप के जरिए पानी पहुंच रहा है। जलशक्ति मंत्रालय के ही आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल 2018 में 54 प्रतिशत घरों की पहुंच पाइप के पानी तक है। अगर पाइप के जरिए पानी की सप्लाई होने वाले घरों से इसकी तुलना की जाए, तो आंकड़ा 18.3 प्रतिशत ही ठहरता है। वर्ष 2009-2010 और 2018 के बीच पाइप के जरिए पानी की सप्लाई की स्कीमें 74 प्रतिशत ही पूरी हो पाईं और लोगों को इसका लाभ मिलना शुरू हुआ। हालांकि, जिन घरों तक नल से पानी पहुंचाया गया, वहां इस बात को लेकर संदेह है कि अब भी नल से पानी की सप्लाई जारी होगी। वर्ष 2012 से 2017 के बीच ग्रामीण इलाकों में पानी की सप्लाई की समीक्षा कर भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि 4.76 लाख घर पूर्ण रूप से आंशिक पानी की सप्लाई वाले घरों में तब्दील हो गए।

वहीं, फरवरी 2014 में पेयजल व स्वच्छता मंत्रालय के तत्कालीन मंत्री भरतसिंह सोलंकी ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में न्यूनतम जरूरतों के हिसाब से प्रति व्यक्ति प्रति दिन 55 लीटर पानी की सप्लाई करना तय हुआ है क्योंकि एक व्यक्ति को पीने, खाना पकाने, नहाने, बर्तन धोने आदि के लिए कम से कम इतने पानी की जरूरत होगी। लेकिन, जलशक्ति मंत्रालय के मौजूदा मंत्री के अनुसार महज 47 प्रतिशत बस्ती (हैबिटेशन) ही ऐसी हैं जिस तक शत-प्रतिशत 55 लीटर (प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) पहुंच रहा है। हैबिटेशन का आशय किसी बस्ती में 10 से 100 तक घरों का समूह होता है। जबकि कई बस्तियों को अब भी 40 लीटर (प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) पानी ही मिलता है (देखें : बस्तियों में पानी आपूर्ति, पृष्ठ 43)। हालांकि, जिन्हें रोज 55 लीटर पानी मिल रहा है, उनके बारे में भी यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है कि उन तक नल का पानी ही पहुंच रहा है।

स्रोत: पेयजल व स्वच्छता विभाग  (कवरेज होने वाली देश की बस्तियां यानी हैबिटेशन - 10 से 100 घरों का समूह है।  )


स्वच्छता कार्यक्रम

कई बार विफल हुए, क्योंकि जागरुकता कार्यक्रम कभी केंद्र बिंदु नहीं रहा

केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम
1986

केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम

ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता। लक्ष्य हासिल के वर्ष का जिक्र नहीं

कार्यक्रम मुख्य रूप से आपूर्ति आधारित था, जिसमें शौचालय के लगातार इस्तेमाल पर बहुत कम जोर दिया गया था। इसमें लोगों को सब्सिडी नकदी के रूप में मिलती थी। स्थानीय ठेकेदार शौचालय बनाते थे। यह कार्यक्रम विफल हो गया क्योंकि शौचालय का इस्तेमाल नहीं हुआ। लोगों को जागरूक भी कम किया गया।

सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी)
1999

सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी)

सबके लिए शौचालय। लक्ष्य वर्ष-2017

शौचालय के निर्माण से पहले सब्सिडी देने के नियम को खत्म करके गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वालों को शौचालय निर्माण के बाद इंसेटिव दिया गया। ग्राम पंचायतों को प्रोत्साहत करने के लिए एपीएल निर्मल ग्राम पुरस्कार के जरिए जागरुकता कार्यक्रम चला। इसे इंदिरा आवास योजना के साथ जोड़ा गया। जागरूकता के लिए प्रचार और नई तकनीक अपनाई गई। लेकिन, यह अभियान विफल हो गया क्योंकि ये कई विभागों की ओर से चल रहा था और फंड प्रशासक भी शामिल थे। इस योजना में भी कई तरह की खामियां रहीं।

निर्मल भारत अभियान
2012

निर्मल भारत अभियान

‘निर्मल’ का तमगा, जीवनस्तर में सुधार और सभी को शौचालय। लक्ष्य का वर्ष-2022

पूर्ण स्वच्छता अभियान के मुकाबले इंसेटिव में इजाफा किया गया। सूचना शिक्षा प्रचार और आशा तथा आंगनबाड़ी वर्करों को शामिल किया गया। लक्ष्य आधारित वार्षिक प्लान लागू हुआ। शौचालयों के रखरखाव पर भी जोर दिया गया। ठोस व तरल वर्ज्य पदार्थों के प्रबंधन से जुड़े प्रोजेक्टों को ज्यादा तवज्जो दी गई। इसे मनरेगा (शौचालय के लिए 10000 रुपए के इंसेटिव) से जोड़ा गया। सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, इन प्रयासों के बावजूद शौचालय निर्माण में तेजी नहीं आई। कोई सफलता नहीं मिली।

स्वच्छ भारत मिशन
2014

स्वच्छ भारत मिशन

100 प्रतिशत खुले में शौचमुक्त का दर्जा। लक्ष्य - 2019

इंसेटिव की राशि को 10 हजार रुपए (निर्मल भारत अभियान) से बढ़ा कर 12 हजार रुपए कर दिया गया। पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता के कवरेज पर नजर रखना शुरू किया गया। शौचालय के इस्तेमाल पर खासा जोर दिया गया। ओडीएफ का दर्जा मिलने के बाद एक पद बना, जो विभिन्न विभागों के स्कीमों के सहयोग से ठोस व तरल अपशिष्ट प्रबंधन पर बात करता है। अपशिष्ट प्रबंधन और शौचालय के निर्माण में निजी फंडों का इस्तेमाल करना है। ओडीएफ का दर्जा हासिल हुआ।

स्रोत: एस. सेनगुप्ता, 2016, क्लीन अप योर एक्ट:द स्टेट ऑफ सेनिटेशन इन इंडिया, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट, नई दिल्ली; पेयजल व स्वच्छता विभाग

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