बैठे ठाले: दो बीघा जमीन का सीक्वल

शम्भू क्या धरा है इस खेती-बाड़ी में? खाना तो आज की डेट में ऑनलाइन ऑर्डर से घर पर आ जाता है

By Sorit Gupto

On: Thursday 27 August 2020
 

सोरित / सीएसई “दो बीघा जमीन” फिल्म, पार्ट वन में अभी तक आपने देखा कि किस प्रकार बेवकूफ और अड़ियल किसान शम्भू महतो अपने गांव के विकास में बाधा उत्पन्न करने के बुरे इरादे से “गांव-भक्त” जमींदार ठाकुर हरनाम सिंह की चौखट पर जाता है। ठाकुर साहब उसे प्रेम से समझाते हुए कहते हैं, “शम्भू क्या धरा है इस खेती-बाड़ी में? खाना तो आज की डेट में ऑनलाइन ऑर्डर से घर पर ही आ जाता है। मेरी बात मानो, अपनी दो बीघा जमीन मुझे बेचे दो।”

इसके जवाब में शम्भू अपने “मन की बात” कहता है, “जमीन तो मां जैसे होती है!”

अपने कर्जे को पूरा करने के लिए शम्भू अपने बेटे रत्तन के साथ शहर की ओर कूच कर जाता है। आखिरकार वह कुछ पैसे जोड़कर गांव वापस आता है तो देखता है कि गांव का फुल्टू विकास हो चुका है। किसान अब ठाकुर हरनाम सिंह और उनके शहरी दोस्त के कारखाने में गांव के लोग दिहाड़ी-मजदूर और पहरेदार बनकर खुशहाल और सम्मान की जिंदगी जी रहे हैं। उसकी जमीन पर “विकास” का पूरी तरह से कब्जा हो चुका है।

यह सब देखकर शम्भू फूला नहीं समाता और वह खुशी-खुशी वापस शहर की ओर लौट जाता है। वापस लौटते वक्त वह अपनी जमीन की एक मुठ्ठी मिट्टी उठाना चाहता है पर कारखाने का पहरेदार उसे रोकते हुए कहता है, “गांव से धूल क्यों ले जा रहे हो? शहर में वैसे भी बहुत ज्यादा धूल उड़ती है। फांक लेना जब मन करे।

इस सुखांत फिल्म ने जमकर बिजनेस किया। कहते हैं कि इसकी बॉक्स ऑफिस की अपार सफलता को देखते हुए बिमल राय ने इसका सीक्वल बनाने की सोची। सीक्वल की शुरुआत रत्तन से होती है जो अब महानगर के फुटपाथों पर सपरिवार एक सुखी और हंसता-खेलता जीवन जी रहा है। उसके बीवी-बच्चे रेडलाइट पर कभी अगरबत्ती, कभी टिस्यूपेपर-रोल, कभी चीनी खिलौने तो कभी नीबू-मिर्ची का टोटका बेचते दिखते हैं। रत्तन कभी पानी की बोतल, कभी चिप्स, कभी गाड़ी के शीशे को ढंकने का कला पर्दा तो कभी मोबाइल चार्जर बेचता पाया जाता है। सोने को झक्कास फुटपाथ, मच्छर भगाने के लिए के लिए महंगी गाड़ियों का मुफ्त धुआं है... और क्या चाहिए जिंदगी में?

पर इस हंसते-खेलते परिवार पर किसी की बुरी नजर लग जाती है। एक रात बारह बजे के बाद अचानक शहर में कर्फ्यू सा लग जाता है। अगले दिन शहर में कोई नहीं निकलता, कोई गाड़ियां नहीं चलतीं। गाड़ियां नहीं चलेंगी तो भला पानी के बोतल, चिप्स, अगरबत्ती, नीबू-मिर्ची का टोटका कौन खरीदेगा? रत्तन के पास अब कोई चारा नहीं बचता और वह अपने परिवार को लेकर अपने गांव लौट जाता है। लौटने पर पता चलता है कि ठाकुर हरनाम सिंह के कारखाने से निकले गंदे पानी से तालाब गंदे हो गए हैं, जमीन बांझ हो गई है। कुछ साल पहले ठाकुर के कारखाने में विस्फोट हुआ था और जहरीली गैस पूरे गांव में फैल गई थी जिसमें कई लोग मर गए थे। मजबूरन रत्तन एक बार फिर शहर की ओर लौट जाना चाहता है। लौटते वक्त अपने बाप शम्भू की तरह रत्तन गांव की मिट्टी को अपने माथे पर लगाना चाहता है। सर तक लाते-लाते उसे मिट्टी से एक दुर्गन्ध आती है, किसी मरे जानवर के सड़ने जैसी बू। कारखाने के विषैले रसायनों ने मिट्टी को मार दिया था।

रत्तन अपने मैले-फटे पेंट में अपनी उंगलियां पोंछकर शहर की ओर चल पड़ता है।

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