गन्ना और पराली जलाने से किसानों को हो सकती है किडनी से जुड़ी रहस्यमय बीमारी

वैज्ञानिकों को गन्ने की राख में सिलिका के महीन कणों का पता चला है जो सांस या दूषित पानी के जरिए शरीर में प्रवेश कर सकते हैं और गुर्दे से जुड़ी रहस्यमय बीमारी की वजह बन सकते हैं

By Lalit Maurya

On: Tuesday 31 October 2023
 
खेत में गन्ने के बोझ बांधता भारतीय किसान; फोटो: आईस्टॉक

वैज्ञानिकों को गन्ना और पराली जलाने से पैदा हुई सिलिका और किडनी से जुड़ी रहस्यमय बीमारी के बीच संबंधों का पता चला है। गौरतलब है कि किसानों और कृषि कार्यों में लगे मजदूरों में गुर्दे से जुड़ी एक रहस्यमयी बीमारी देखी गई है। यह बीमारी आज भी एक रहस्य बनी हुई है, क्योंकि इसके सटीक कारणों का अब तक पता नहीं चला है।

सीकेडीयू या अज्ञात कारणों से होने वाली यह क्रोनिक किडनी डिजीज, गुर्दे से जुड़ी बीमारी है। जो मुख्य रूप से किसानों और खेतों में काम करने वाले मजदूरों को प्रभावित कर रही है। चूंकि यह बीमारी भारत, श्रीलंका और मध्य अमेरिका सहित उन देशों में बेहद आम है, जहां गर्मी का तनाव बेहद ज्यादा होता है, इसलिए इसे जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी से उपजी बीमारी माना जा रहा था। साथ ही पानी की कमी और कीटनाशकों को भी इसके होने के संभावित कारकों के रूप में देखा जा रहा था।

लेकिन हाल ही में कोलोराडो विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि खेतों में गन्ने के बचे हिस्सों और पराली को जलाने से सिलिका नामक जहरीला पदार्थ मुक्त होता है, जो किसानों में गुर्दे से जुड़ी इस रहस्यमयी बीमारी की एक वजह हो सकता है।

देखा जाए तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालों में गन्ना श्रमिक और किसान शामिल हैं, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि गन्ने की कटाई और जलाने के दौरान उत्पन्न होने वाली सिलिका गुर्दे की इस बीमारी की वजह हो सकती है।

जर्नल एनवायर्नमेंटल पॉल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि गन्ने के अवशेषों और पराली को जलाने से पैदा हुई राख में सिलिका के महीन कण मौजूद होते हैं, जो वातावरण में फैल जाते हैं और फिर सांस या दूषित पानी के माध्यम से फेफड़ों के जरिए किसानों या उसके संपर्क में आने वालों के गुर्दों में प्रवेश कर सकते हैं और किडनी से जुड़ी गंभीर बीमारी की वजह बन सकते हैं।

1,800 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच गया था सूक्ष्म कणों का स्तर

रिसर्च में सामने आया है कि गन्ने की कटाई के दौरान महीन कणों (पीएम10) की मात्रा उल्लेखनीय रूप 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक दर्ज की गई। वहीं इसको जलाने के दौरान कणों का स्तर बढ़कर 1,800 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच गया था।

शोध से यह भी पता चला है कि गन्ने के तने में करीब 80 फीसदी सिलिका होता है। जब इसके बेकार हिस्से को जलाया जाता है तो उससे सिलिका के महीन कण पैदा होते हैं, जिनका आकार करीब 200 नैनोमीटर होता है।

शोध के अनुसार इस सिलिका युक्त राख के ढाई माइक्रोग्राम प्रति मिलीलीटर के संपर्क में आने के छह से 48 घंटों के भीतर माइटोकॉन्ड्रियल गतिविधियों और कोशिकाओं के कार्यों पर प्रभाव दिखने लगा था। वहीं इसके संपर्क में आने के छह घंटों के भीतर ही कोशिकाओं की ऑक्सीजन खपत दर (ओसीआर) और अम्लता (पीएच) के स्तर में आए बदलावों से कोशिकाओं के मेटाबॉलिस्म और काम करने के तरीकों में बदलाव आ गए थे।  

इस बारे में  यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के फार्मास्युटिकल विभाग के प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ शोधकर्ता जेरेड ब्राउन का कहना है कि अब तक ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिसने इस बीमारी से पीड़ित मरीजों के गुर्दों और ऊतकों में हानिकारक पदार्थ का पता लगाया हो, जो इस रहस्यमय बीमारी की वजह बन सकता है।"

उनके मुताबिक रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं वो इस बारे में महत्वपूर्ण संकेत देते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुए गर्मी के तनाव के अलावा, गन्ने की राख से मुक्त होने वाले सिलिका जैसे विषाक्त पदार्थ भी इस बीमारी की वजह बन सकते हैं।

अपने इस अध्ययन में यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के शोधकर्ताओं ने अल साल्वाडोर में एक अस्पताल के डॉक्टरों के साथ मिलकर काम किया है। अध्ययन में शोधकर्ताओं को दूसरे किडनी रोगियों की तुलना में इस रहस्यमयी बीमारी के शिकार मरीजों के गुर्दों और ऊतकों में भारी मात्रा में सिलिका के कण मिले हैं।

वहीं गन्ने की राख में भी बड़ी मात्रा में सिलिका के महीन कण होते हैं। इसके आधार पर उन्होंने दावा किया है कि इस राख के संपर्क में आने से किसानों को यह बीमारी हो सकती है।

भारतीय किसानों में देखी गई है यह बीमारी

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह तथ्य धान की खेती करने वाले किसानों के लिए भी प्रासंगिक हो सकते हैं क्योंकि पराली और अन्य कृषि अवशेषों को जलाने से भी सिलिका युक्त राख उत्पन्न होती है।

भारत जैसे देशों में गन्ने और धान के बचे अवशेषों को जलाने की प्रथा बेहद आम है। जो देश के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर प्रदूषण की वजह भी बन रही है। आज भी पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में बड़े पैमाने पर पराली और अन्य फसल अवशेषों को जलाया जाता है, जिसके चलते आए दिनों दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण की खबरे सामने आती रहती हैं।

भारत में इस बीमारी से मिलता जुलता पहला मामला 1993 में जर्नल नेफ्रोलॉजी डायलिसिस ट्रांसप्लांटेशन में सामने आया था। इस रिपोर्ट में चेन्नई के एक अस्पताल में मरीजों में इस बीमारी के लक्षण मिले थे। उसी दौरान आंध्र प्रदेश के तटीय जिले श्रीकाकुलम के उड्डनम क्षेत्र में गुर्दे की विफलता के मामले बढ़ रहे थे, जिनके कारणों के बारे में पता नहीं चल पा रहा था। इसके बाद 2015 में किडनी से जुड़ी इस क्रोनिक बीमारी के 34,000 मामले सामने आए थे, जिनमें से 4500 लोगों की मौत हो गई थी।

हाल ही में दैनिक जागरण में प्रकाशित एक खबर से पता चला है कि महाराष्ट्र, विदर्भ, आंध्र प्रदेश के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना बेल्ट में भी गुर्दे से जुड़ी बीमारी घातक रूप से बढ़ रही है। इस रिपोर्ट अनुसार क्रिटनिन का स्तर सात-आठ मिलीग्राम प्रति डेसीलीटर के घातक स्तर तक पहुंचने के बाद बीमारी की पता चला है। इसकी वजह से कई मरीजों को डायलसिस से लेकर गुर्दा प्रत्यारोपण तक कराना पड़ रहा है।

वहीं सीयू स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता रिचर्ड जे जॉनसन ने इस बात पर जोर दिया है कि हालांकि ये निष्कर्ष प्रारंभिक हैं, लेकिन वे संकेत देते हैं कि गन्ने के अवशेषों को जलाना न केवल जलवायु परिवर्तन में योगदान दे रहा है, साथ ही किसानों को प्रभावित करने वाली इस बीमारी से भी जुड़ा है।

उनके मुताबिक यह बीमारी उन शुरूआती स्वास्थ्य समस्याओं में से एक है, जो सीधे तौर पर गर्म होती जलवायु से जुड़ी है। हालांकि अब हम जानते हैं कि हानिकारक पदार्थ भी इस समस्या का एक हिस्सा हैं। ऐसे में इससे बचने के लिए किसानों और श्रमिकों के साथ-साथ आसपास रहने वाले लोगों को भी सावधानी बरतने की जरूरत है।

उन्हें उम्मीद है कि यह शोध श्रमिकों और गन्ने के खेतों के पास रहने वाले लोगों में इस रहस्यमय गुर्दे की बीमारी के संभावित खतरे के रूप में गन्ना जलाने की जांच को प्रोत्साहित करेगा।

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