खौफजदा शरणार्थी चेहरों पर उम्मीद जगाता श्रीलंकाई “सिंघम”
जाफना में जन्मे के. रत्नराज सिंघम ने हजारों तमिल शरणार्थियों की आर्थिक मजबूती के प्रयास किए हैं। स्पीरूलिना की खेती के जरिए वह तमिल शरणार्थियों के बीच उम्मीदों की फसल उगा रहे हैं।
On: Sunday 15 April 2018
मजहब, नस्ल, जाति और भाषा के भेदों को लेकर हुई टकराहटों ने दक्षिण-पूर्व एशिया सहित विश्व के कई हिस्सों को गृह-युद्ध की आग में झोंक दिया। 1983 में श्रीलंका के जाफना प्रांत में शुरू हुए गृह युद्ध की आंच ने भारत के दक्षिणी राज्यों को शरणार्थी दिए, विशेषकर तमिलनाडु को। श्रीलंका के लगभग 61 हजार तमिल शरणार्थी आज भी भारत में हैं। श्रीलंका के जाफना से आने वाले लाखों शरणार्थियों में एक ऐसा भी था, जिसने अपने विस्थापन की सभी यातनाओं को सहन करने के बाद अपने पनाहगाह देश में न सिर्फ खुद को खड़ा किया बल्कि अपने जैसे और शरणार्थियों का सहारा भी बना। जाफना में जन्मे के. रत्नराज सिंघम ने हजारों तमिल शरणार्थियों की आर्थिक मजबूती के प्रयास किए हैं। स्पीरूलिना की खेती के जरिए वह तमिल शरणार्थियों के बीच उम्मीदों की फसल उगा रहे हैं। इस संबंध में सिंघम ने अनिल अश्विनी शर्मा से शरणार्थियों की आजीविका संवारने में आने वाली मुसीबतों को साझा किया
आप खुद एक तमिल शरणार्थी हैं और आपके पास भी संसाधनों के नाम पर शून्य था। आपके पास ऐसी ऊर्जा कहां से आई कि आप दूसरों को खड़ा करने की कोशिश में जुट गए?
यह सही है कि अपना देश खोने के बाद आपके पास कुछ नहीं बचता। और, जब आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता है तो आपके लिए पाने की हर कोशिश बड़ी हो जाती है। अपने घर-बार, नदी, जंगल, जमीन से बेदखल इंसान वह बीज बन जाता है जो किसी बंजर जमीन पर भी बोने के बाद कुछ उगाने की छटपटाहट दिखाता है। गृहयुद्ध की आग में हम सब झुलस गए थे। लेकिन हममें सांस बची हुई थी। एक सांस के बल पर ही आगे की आस थी। मेरे पास खुद को खड़ा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। और जब खुद खड़ा हो पाया तो दूसरों को भी सहारा देने की कोशिश की।
तमिल शरणार्थियों की समस्या शुरू कैसे हुई?
1983 अंग्रेजों ने चाय और कॉफी की खेती के लिए श्रीलंका के उत्तर और पूर्वी भाग में तमिलों को बसाया था। श्रीलंका में बौद्ध धर्म के अनुयायी सिंहला समुदाय मुख्य सत्ता में दखल रखते हैं और तमिल अल्पसंख्यक हैं। तमिल हिंदु धर्म के अनुयायी हैं तो यहां धर्म और भाषा दोनों का टकराव था और सिंहला समुदाय को तमिलों की जनसंख्या बढ़ना अपने वजूद पर संकट लग रहा था। वहां तमिलों को रोजी-रोटी की जगहों से वंचित किया जाने लगा। इसकी मुखालफत में तमिलों ने देश के उत्तर और पूर्वी हिस्से में स्वायत्तता की मांग करनी शुरू कर दी जिसका नतीजा था 1976 में लिबरेशन आॅफ टाइगर्स आॅफ तमिल इल (एलटीटीई) का जन्म। इसी के साथ सिंहला बनाम तमिलों का संकट बड़ी त्रासदी का रूप ले गया।
तमिल शरणार्थियों को सबल बनाने के लिए आप क्या कर रहे हैं?
1983 से शुरू हुए गृहयुद्ध के बाद श्रीलंकाई तमिलों ने अपनी जान बचाकर तमिलनाडु में शरण ली। ऐसे में एक लंबे समय तक ये लाखों लोग बुनियादी शिक्षा बुनियादी शिक्षा से महरूम हो गए। इन्हें आत्मनिर्भर बनाना मेरी प्राथमिकता थी। इनके हाथ को ऐसा हुनर दिया जाए ताकि वे अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम कर सकें। इसके लिए मैं उन्हें स्पीरुलिना की खेती करना सिखा रहा हूं। फिर यहां आए शरणार्थी के पास कोई जमीन भी तो नहीं है।
आपने शरणार्थियों के लिए स्पीरुलिना की खेती ही क्यों चुनी?
हमारे पास संसाधनों की कमी है। स्पीरुलिना की खेती के लिए बहुत अधिक जमीन या निवेश की जरूरत नहीं होती है। कम पानी में भी काम चल जाता है और मानसून पर निर्भरता नहीं रहती है। इसके लिए 25 से 35 डिग्री सेल्सियस का तापमान आदर्श होता है। छोटे आकार के प्लास्टिक व सीमेंट के टैंक में भी इसकी पैदावार की जा सकती है। यहां तक कि इसे छोटे से गमले में भी उगाया जा सकता है। इसके उत्पादन में एक सप्ताह का समय लगता है। मैं तो केवल तीन दिन में नौ किलो स्पीरुलिना उगा लेता हूं। स्पीरुलिना तैयार करने के बाद इसका पाउडर बनाकर इसे बाजार में बेचा जाता है। बाजार में स्पीरुलिना का एक किलो पाउडर एक हजार रुपए व उससे अधिक की कीमत में बिकता है।
क्या आज भी अपने मातृभूमि जाफना में वापसी की रास्ते तलाशते हैं?
यह तो हर रात की नींद के बाद का सपना है। वतन से बिछुड़ने के दिन से ही हम वापसी का पुल बनाने की कोशिश में हैं। हर वैसी राजनीतिक और आर्थिक कवायद को उम्मीद से देखते हैं जो जाफना से जुड़ी होती है। काफी सालों बाद पिछले कुछ समय में श्रीलंका और भारत के बीच संबंध बेहतर हुए हैं। कई सालों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने श्रीलंका और जाफना का दौरा किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस प्रयास के बाद मेरे जैसे हजारों लोगों की आशा एक बार फिर बढ़ गई कि भविष्य में हमारा अधिकार जरूर मिलेगा।
क्या भारत में श्रीलंकाई शरणार्थियों की पहचान का संकट गहराता जा रहा है?
जी हां, बिलकुल। जो लोग जाफना से उखड़ कर यहां आए आज उनके आगे की संतति अपनी पहचान के लिए परेशान हैं। उन्होंने उस जमीन को नहीं देखा है जो उनके मां-बाप और नाना-नानी की पहचान से जुड़ी है। मेरे बेटे जैसे हजारों युवा हैं जिन्होंने भारत में अपनी पढ़ाई-लिखाई की और आगे भी यहीं कुछ करना चाहते हैं। लेकिन इनके लिए सबसे बड़ी समस्या अपनी पहचान की है। मेरे जैसे लाखों शरणार्थी श्रीलंका में अपनी पहचान को वापस पाने के लिए लड़ रहे हैं। हमारे जैसे लोगों के सामने पहचान का संकट वाकई बड़ा है। रोजी-रोटी के बाद, पेट भरने के बाद, छत मिलने के बाद आपके सामने सांस्कृतिक संकट भी आता है कि आप कौन हैं? हम तमिल हैं और मातृभूमि जाफना। यहां भाषा तो मिलती है लेकिन हमारी मिट्टी नहीं। इन दिनों जिस तरह पहचान की राजनीति हावी है उसमें यह संकट और भी बड़ा दिखने लगता है।
यहां रह रहे शरणार्थियों में 40 फीसद की उम्र 18 साल से नीचे की है, ऐसे में इन युवाओं की आबादी के लिए क्या जाफना वापसी सुखद होगी?
श्रीलंका में मुझे अधिकार मिल गया तो हम वहां खुशी से जाकर रहेंगे। लेकिन मेरे बेटे जैसे युवाओं के लिए वहां रह पाना सहज नहीं होगा। क्योंकि उन्हें डर है कि वे वहां सम्मानजनक तौर से स्वीकार किए जाएंगे या नहीं? यहां यह गंभीर सवाल उठता है कि क्या मेरे बेटे जैसे कई अन्य युवाओं को अपना कहने वाला राज्य और देश उन्हें अपनाएगा? और क्या उन्हें अपनी पहचान देगा? वास्तव में यहां बड़े हुए श्रीलंकाई तमिलों के बच्चों की इच्छा है कि उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए और वे यहां की पहचान से आगे अपनी पहचान बनाएं। इन युवाओं ने श्रीलंका के बारे में सिर्फ किताबों में पढ़ा है। ये पूछते हैं कि वहां क्या कुछ हमारा अपना कह सकने वाला बचा भी है या नहीं?
दक्षिण-पूर्व एशिया सहित पूरी दुनिया में शरणार्थियों की समस्या एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। इसे आप कैसे देखते हैं?
देखिए, वास्तविकता तो यह है कि शरणार्थी के रूप में जीने का यह एक क्रूर तरीका है। गृह-युद्धों में झुलसने के बाद अल्पसंख्यकों की उस कमजोर पहचान को अपना वतन छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है जिन्हें बहुसंख्यकों की मजबूत पहचान स्वीकार नहीं करती। जातीय, नस्लीय, मजहबी विभेद और भी बढ़ रहे हैं, दिलों में नफरत की आग और बढ़ रही है। पहचान की राजनीति बढ़ रही है और समरसता का भाव कम हो रहा है। एक खास पहचान दूसरी खास पहचान स्वीकारने को तैयार नहीं हो रही। बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की जंग बढ़ रही है। पहचानों की इस टकराहट को जितनी जल्दी कम किया जा सके उतना अच्छा है।