डाउन टू अर्थ विश्लेषण: मॉनसून ने किया पस्त, क्या बदलना होगा फसल चक्र?

मॉनसून के मिजाज में बदलाव को देखते हुए क्या हमें अपना फसल चक्र बदलने की जरूरत है?

By Shagun, Himanshu Nitnaware

On: Wednesday 28 September 2022
 

इस साल मॉनसूनी बारिश में देरी या कमी के कारण जून से शुरू होने वाला खरीफ फसल चक्र बाधित हुआ। नुकसान के डर से किसान इस महीने बुआई से परहेज करते रहे? जुलाई-अगस्त में भी मानसून का मिजाज बदला नजर आया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमें अपना फसल चक्र बदलने की जरूरत है? किसानों और कृषि व्यवस्था के लिए फसल चक्र बदलने के क्या मायने हैं? 

त्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में रहने वाले किसान सेठपाल सिंह ने इस साल जून के दूसरे-तीसरे सप्ताह के दौरान अपने सामान्य समय पर धान की नर्सरी तैयार की। उन्हें भरोसा था कि धान रोपने के वक्त तक मॉनसून आ जाएगा। लेकिन, वह बारिश का इंतजार करते रह गए। आखिर में उन्हें फिर से धान बोना पड़ा, क्योंकि मिट्टी में नमी की कमी के चलते पहले तैयार की गई नर्सरी का अधिकतर हिस्सा खराब हो गया। इस पूरी प्रक्रिया में उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। पिछले 10 वर्षों में कम से कम 4 बार उन्हें इन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। मेरठ के सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय से पिछले तीन वर्षों से उन्हें जो परामर्श मिल रहा है, वह भी पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं रहा।


नंदी गांव में 12.5 हेक्टेयर खेती करने वाले सेठपाल सिंह कहते हैं, “परंपरागत तौर पर हम जून के दूसरे सप्ताह तक धान की नर्सरी तैयार करना शुरू कर देते हैं और करीब 20 दिन में नर्सरी के तैयार हो जाने के बाद रोपाई शुरू हो जाती है। लेकिन, जब बारिश नहीं होती, तो नर्सरी खराब हो जाती है। इस साल भी ऐसा ही हुआ। मुझे और दूसरे किसानों को दोबारा से नर्सरी तैयार करनी पड़ी। अगर हम नर्सरी के तैयार होने के बाद रोपाई में देरी करते हैं, तो इससे फसल की पैदावार में कमी आती है।” चार वर्षों में फसल के खराब होने से उन्हें हर साल 10 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर का भारी नुकसान उठाना पड़ा है।

धान की रोपाई के लिए दो सप्ताह तक लगातार खेतों में 10 सेमी गहराई तक पानी भरा होना चाहिए। देश के कुछ ही हिस्सों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। भारत के कुल बुआई क्षेत्र (139.42 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र) का 55 प्रतिशत हिस्सा अभी भी बारिश पर ही निर्भर है। राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरआरए) की ओर से तैयार किए गए ड्राफ्ट पॉलिसी पेपर के मुताबिक, सिंचित क्षेत्रों में चार से पांच प्रमुख फसलों की तुलना में वर्षा पर निर्भर क्षेत्र में साल भर में करीब 34 प्रमुख फसलों की पैदावार होती है।

उत्तर प्रदेश के सूखा प्रभावित बुंदेलखंड क्षेत्र में शामिल बांदा जिले के कुरौली ग्राम पंचायत के अधीन आने वाले वाले बक्छा गांव के किसान रामप्रकाश यादव अपने अनुभव से बताते हैं कि पिछले दो दशकों में मॉनसून की प्रवृत्ति बदली है। उनके अनुसार, “आमतौर पर 15 जून तक गांव में बारिश शुरू हो जाती थी लेकिन अब यह 15 जुलाई के बाद शुरू हो रही है।” इस बदली प्रवृत्ति ने उन्हें दलहन (मूंग और उड़द), तिलहन (तिल) और मोटे अनाज (ज्वार) जैसी फसलों से केवल धान तक सीमित कर दिया है। उनका कहना है कि धान किसान आमतौर पर 15 जून से धान की नर्सरी की तैयारी शुरू कर देते थे और जून के आखिरी अथवा जुलाई के पहले सप्ताह में उसकी रोपाई में जुट जाते थे लेकिन अब यही काम एक महीने की देरी से शुरू हो रहा है। मॉनसून की बारिश में देरी के कारण इस खरीफ मौसम में बक्छा गांव में केवल 10 प्रतिशत खेतों में ही धान की रोपाई हुई है जबकि अन्य खरीफ की फसलों की बुवाई शून्य है। उनका कहना है कि धान को छोड़कर अन्य खरीफ फसलें अगर समय पर नहीं बोई गईं तो उनकी उत्पादकता पर असर तो पड़ता ही है, साथ ही रबी की बुवाई भी प्रभावित होती है, इस कारण किसान खरीफ के मौसम में खतरा मोल लेने से डर रहे हैं।

बांदा के ही पूर्णत: वर्षा आधारित गांव बसहरी के किसानों ने जून में खेतों में बुआई लगभग बंद कर दी है। इस साल लगभग पांच प्रतिशत किसानों ने तिल की बुवाई की है। किसान घनश्याम कुमार पिछले वर्षों के अनुभव के आधार पर बताते हैं कि पिछले छह वर्षों में केवल एक बार ही (2019 में) जून में समय से बारिश हुई है। 2021 में किसानों के जून के आखिर में तिल की फसल लगाई थी लेकिन बारिश न होने के कारण सभी किसानों की फसलें सूख गई थीं। ग्रामीण इंद्रपाल बताते हैं कि इस सूखे प्रभावित गांव में तिल की फसल मुफीद है क्योंकि इसमें कम पानी की जरूरत होती है लेकिन जून-जुलाई में इतना पानी भी नहीं मिल रहा है। उन्होंने पिछले साल 9 बीघा के अपने खेत में तिल बोया था। बारिश के अभाव में खेत में एक पौधा जिंदा नहीं बचा। वह बताते हैं कि पिछले छह वर्षों में केवल एक बार ही लागत निकल पाई है। मॉनसून की अनिश्चितता को देखते हुए इंद्रपाल समेत गांव के अधिकांश किसानों ने इस साल खेत खाली छोड़ दिए हैं। किसान रज्जू कुमार इसका कारण बताते हुए कहते हैं कि अगर तिल की बुवाई जुलाई के आखिर या सितंबर की शुरुआत में करते हैं तो रबी की फसलें प्रभावित होती हैं और खेतों से नमी पूरी तरह खत्म हो जाती है। वह बताते हैं कि खरीफ की फसल का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए किसान खरीफ की कीमत पर रबी की फसल बचाने की कोशिश करते हैं।

खरीफ के सीजन में अधिकतर फसलों के लिए दक्षिण-पश्चिम मॉनसून का पहला महीना जून काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जून में होने वाली पहली बारिश बुआई के लिए मिट्टी को जरूरी नमी मुहैया कराती है। इसके बाद बुआई के दौरान व उसके बाद के चरणों में भी पानी की जरूरत पड़ती है। इस तरह, बारिश पर निर्भर फसलों का उत्पादन बहुत हद तक इस पर निर्भर करता है कि फसल की बुआई कब की गई है। किसानों को यह जानकारी अक्सर “क्रॉप कैलेंडर” पर आधारित सलाह के तौर पर दी जाती है। यह सलाह मुख्यत: राज्य कृषि विश्वविद्यालय और आईएमडी की जिला एग्रोमेट यूनिट द्वारा दी जाती है। इस तरह, बारानी फसल (वर्षा आधारित फसल) उत्पादन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि फसल कब बोई जाए। यह अक्सर किसानों को “फसल कैलेंडर” पर आधारित सलाह के रूप में बताया जाता है।

परंपरागत तौर पर किसान किसी क्षेत्र में फसल की बुआई और उसकी कटाई के समय की जानकारी के लिए क्रॉप कैलेंडर का पालन करते रहे हैं। इससे उन्हें बीज के रेट, बुआई के लिए जरूरी सामान और इस काम के लिए जरूरी दूसरे तौर-तरीकों के बारे में भी जानकारी मिलती है। लेकिन, इसमें सबसे महत्वपूर्ण चीज मौसम गायब था।

ऐसे में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने पहली बार 1996 में प्रमुख फसलों के लिए एक जिलावार क्रॉप वेदर कैलेंडर (सीडब्ल्यूसी) तैयार किया। इसमें बुआई और कटाई के समय की जानकारी देने के साथ ही मौसम को भी शामिल किया गया। इसके साथ ही फसल के महत्वपूर्ण विकास चरणों के दौरान मौसम के औसत मापदंडों की जानकारी भी इसमें शामिल की गई। यह मॉनसून के दौरान हर सप्ताह होने वाली औसत बारिश और तापमान की जानकारी भी देता है। लेकिन, इसमें मॉनसून को सामान्य बताया गया है। हैरानी की बात तो यह है कि 1996 के बाद से इसे अपडेट ही नहीं किया गया है और अभी भी इसमें 26 साल पहले के उन मानकों का पालन किया जा रहा है, जो तब की जलवायु के मुताबिक सामान्य माने जाते थे।

30 वर्षों का विश्लेषण

यह एक अविवादित तथ्य है कि सीडब्ल्यूसी बनने के बाद से बीते 26 साल में देशभर में मॉनसून आने और इसके वितरण में बदलाव आ चुका है। आईएमडी की ओर से की गई 30 साल में विभिन्न राज्यों में वर्षा में विषमता और बदलावों की समीक्षा का विश्लेषण करने पर डाउन टू अर्थ ने पाया कि कम से कम 19 राज्यों में दक्षिण पश्चिम मॉनसून के 4 महीनों में बारिश घटती जा रही है। इस डेटा में 1989 से 2018 के बीच 29 राज्यों के 676 जिलों का खाका खींचा गया है। इसमें जून के दौरान कम से कम 62 प्रतिशत जिलों में बारिश घटने का ट्रेंड दिखाई देता है। अगस्त के साथ जून में बारिश में सबसे अधिक कमी आई है। इतना ही नहीं, सितंबर के बाद सबसे ज्यादा सूखे दिनों के मामले में भी जून दूसरे नंबर पर है। हालांकि, खेती के लिहाज से अगस्त या सितंबर की तुलना में बुआई के लिए जून सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण महीना है।

जून के सूखे दिनों के विश्लेषण से पता चलता है कि 210 जिलों में यह रुझान बढ़ रहा है। इससे पता चलता है कि क्रॉप वेदर कैलेंडर पर फिर से विचार करने की बहुत ज्यादा जरूरत है। राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण ने जुलाई 2022 में प्रकाशित अपनी हालिया मसौदा नीति में भी यही बात कही है।

इस मसौदा नीति के अनुसार, “भारत के दीर्घकालिक डेटा से पता चलता है कि वर्षा आधारित क्षेत्रों को हर दशक में से 3 से 4 साल सूखे का सामना करना पड़ता है। इनमें से 2 से 3 सूखे वर्ष मध्यम और 2 से 3 सूखे वर्ष बेहद गंभीर हालात वाले होते हैं। बारिश और तापमान में लगातार बदलाव से निपटने के सीमित विकल्पों के कारण वर्षा आधारित फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान होने की आशंका है। बुआई के समय में बदलाव आ रहा है और फसल के बढ़ने की अवधि घट रही है। इसके चलते बुआई और कटाई की तारीखों में प्रभावी समायोजन की जरूरत पड़ सकती है। बारिश की अंतर-मौसमी परिवर्तनशीलता चिंता का प्रमुख विषय बन चुकी है।”

बारिश के इस घटते रुझान को किसान भी देख रहे हैं। डाउन टू अर्थ ने जिन किसानों से बात की, उनमें से कई ने कहा कि मॉनसून में बढ़ती अनियमितता के कारण अब उनका परंपरागत क्रॉप कैलेंडर काम का नहीं बचा है। एक तरफ जहां जून और जुलाई के महत्वपूर्ण महीनों में भी बारिश नहीं हुई, वहीं दूसरे महीनों में यह सामान्य समय से पहले ही आ गई। सेठपाल सिंह बताते हैं कि 2021 के मार्च और अप्रैल महीनों में भारी बारिश हुई थी, जिससे खेतों में खड़ी फसल खराब हो गई थी (छोटी अवधि की जायद फसलें, जिनकी बुआई मार्च में और कटाई मई में होती है)। इससे एक दुष्चक्र शुरू हो गया। गर्मी की फसलें (जायद), खरीफ की बुआई के समय तक रह गईं, जिससे खरीफ की फसलों की बुआई में देरी हुई। इसका असर कटाई पर भी पड़ा और इसके चलते रबी की फसल के लिए खेत समय पर खाली नहीं हो सका।

सूखे गुजरे जून और जुलाई के कमजोर मॉनसून की वजह से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए नंदी गांव के किसानों ने अब जानबूझकर अपनी गर्मी की फसलों को जुलाई और अगस्त में शिफ्ट कर दिया है। नंदी गांव के ही एक और किसान विनोद कुमार कहते हैं, “धान के अलावा हमारी दूसरी प्रमुख फसलें दलहन में मूंग व उड़द और तिलहन में सरसों व तिल हैं, जिनकी बुआई और कटाई मार्च से जून के बीच होती है। लेकिन, पिछले चार साल से इनका सीजन दो महीने आगे खिसककर जुलाई-अगस्त हो गया है। और, हमें फसलों की पैदावार पर इसका सकारात्मक असर दिखाई पड़ रहा है।”

आईएमडी की ओर से हर साल जून में मॉनसून की शुरुआत की घोषणा होती है। इसके बाद सरकारी सलाह दी जाती है, जिसमें खेती के लिए आदर्श परिस्थितियों का सुझाव दिया जाता है। लेकिन, अब किसानों के स्तर पर खेती के पैटर्न में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। महाराष्ट्र के नासिक जिले में रहने वाले किसान व महाराष्ट्र राज्य प्याज उत्पादक संघ के अध्यक्ष भारत दिघोले कहते हैं कि समय के साथ काफी किसानों ने जून में बुआई छोड़ दी है। वह अपने जिले के बारे में बताते हैं, “यहां उगाई जाने वाली खरीफ की फसलों में से कपास, सोयाबीन, बाजरा, मक्का प्रमुख हैं। बारिश की अनिश्चितता और ज्यादा जोखिम के कारण हमने पिछले 5 साल से जून में बुआई नहीं की है। किसान समझते हैं कि फसलों के लिए समय सही नहीं है और वह बुआई का समय आगे बढ़ाकर जुलाई कर देते हैं। जून में अब बुआई नहीं दिखती और तकनीकी तौर पर महज 5 फीसदी बुआई ही इस दौरान हो रही है। अधिकतर बुआई जुलाई में होने लगी है।”

29 जुलाई 2022 तक खरीफ की बुआई 2021 में इसी अवधि की तुलना में 18 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में पिछड़ चुकी थी। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, खरीफ की प्रमुख फसल धान में 2021 की तुलना में 3.55 मिलियन हेक्टेयर (13 प्रतिशत) की कमी आई है। धान 160 दिनों की फसल है। आमतौर पर इसकी बुआई का काम जुलाई के अंत तक पूरा कर लिया जाता है, ताकि किसानों के पास खरीफ की फसल की कटाई और रबी की बुआई के बीच पर्याप्त समय हो।

इस दौरान की गई धान की सामान्य और वर्तमान बुआई के बीच का अंतर 41.6 प्रतिशत से अधिक है। इस सीजन में सामान्य बुआई 39.7 मिलियन हेक्टेयर है। (सामान्य बुआई की गणना 2017-18 से 2021-22 के बीच बुआई क्षेत्र के औसत के तौर पर की जाती है)। यह अंतर प्रमुख धान उत्पादक राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आई बारिश की कमी से मेल खाता है।

जून की बारिश कम

भले ही भारत में इस समय चल रहे दक्षिण-पश्चिम मॉनसून में 22 अगस्त 2022 तक 8 प्रतिशत अधिक बारिश दर्ज हुई है, लेकिन जून में 8 प्रतिशत कम बारिश हुई थी। 18 राज्यों को भारी बारिश की कमी का सामना करना पड़ा था। 2022 में बुआई के कामकाज से जुड़ा संकट स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है, लेकिन इसके पदचिह्न बीते 10 साल में भी देखे जा सकते हैं। डाउन टू अर्थ ने बीते 10 वर्षों में जुलाई के दूसरे सप्ताह तक धान की पैदावार वाले क्षेत्रों का विश्लेषण किया और लगभग हर साल बारिश में उतार-चढ़ाव पाया। इन 10 में से 6 वर्षों में, इसी अवधि के दौरान पिछले वर्ष के मुकाबले बारिश के आंकड़ों में कमी दर्ज की गई।

किसानों के साथ हुई बातचीत में इस मुद्दे को और बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। उदाहरण के तौर पर, मध्य प्रदेश के रीवा जिले के किसान स्वरूप प्रसाद कहते हैं कि उन्हें बीते 10 साल में से कम से कम 3 साल याद हैं, जब बारिश में काफी देरी हुई थी। वह कहते हैं, “उन सभी वर्षों में अपने नुकसान को कम करने के लिए मैंने अपने धान के रकबे को आधा कर दिया था।”

फसल का मौसम मॉनसून की अस्थिर प्रकृति और बुआई के महीनों में घटते बारिश के रूझान को ध्यान में नहीं रखता है। और, अगर हम सामान्य वर्षा मानकों के मुताबिक काम करें, तो भी आईएमडी ने इस साल अप्रैल में दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के दौरान इस सामान्य मानक को 12 मिलीमीटर घटा दिया है। नए आंकड़े 1971-2020 के डेटा पर आधारित हैं और बदले गए पुराने आंकड़े 1961-2010 के डेटा पर आधारित था। इसका मतलब है कि औसत बारिश की मात्रा में समग्र रूप से कमी आई है, लेकिन इसके बावजूद बारिश सामान्य बनी हुई है। देशभर में अपनाई जाने वाली पारंपरिक बुआई की तारीखों और तौर-तरीकों पर फिर से विचार करने के लिए यह कारण पर्याप्त होना चाहिए।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर)- सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राईलैंड एग्रीकल्चर (सीआरआईडीए) के प्रधान वैज्ञानिक शांतनु बल कहते हैं कि वर्षा आधारित फसलों की बुआई अब सामान्य बुआई की तारीखों के अनुसार नहीं की जा सकती। बल कहते हैं, “क्रॉप कैलेंडर बारिश की शुरुआत, उसकी मात्रा और वितरण के अनुसार निर्धारित किए गए थे। उदाहरण के तौर पर, केरल के तट पर मॉनसून 1 जून तक पहुंच जाता है और उसी के अनुसार फसल की बुआई और सारी चीजें तय हो जाती हैं। जब मॉनसून 12 या 13 जून तक ओडिशा पहुंचता है, तो वहां बुआई उसके अनुसार तय की जाती है। राज्य के कृषि विश्वविद्यालय अपने यहां की प्रमुख फसलों के मुताबिक, अपना कैलेंडर विकसित करते हैं। लेकिन, जलवायु में लगातार हो रहे उतार-चढ़ाव के कारण मौजूदा क्रॉप वेदर कैलेंडरों से फसलों के उत्पादन के बारे में कोई फैसला ले पाने में मदद नहीं मिल सकेगी। वह सामान्य मौसम की परिस्थितियों पर आधारित हैं और वर्षा आधारित कृषि में खेती के तौर-तरीकों के लिए उनसे सटीक सुझाव नहीं मिल सकता है।”

आईसीएआर-सीआरआईडीए के दूसरे वैज्ञानिकों के साथ उन्होंने जुलाई 2020 में 25 जगहों पर भारत के विभिन्न स्थानों की 10 फसलों के लिए अपनी तरह का पहला डीसीडब्ल्यूसी (डायनेमिक क्रॉप वेदर कैलेंडर) तैयार किया है। बल कहते हैं, “मौजूदा क्रॉप कैलेंडर स्टैटिक है, जिनमें आप बुआई की तारीख नहीं बदल सकते हैं। जबकि, डायनेमिक कैलेंडर में इनपुट बदलने पर बुआई और कटाई की तारीखें भी उसके अनुसार बदल जाती हैं। स्टैटिक कैलेंडर आपको बुआई के अनुकूल समय बता देते हैं, फिर भले ही बरसात हो या न हो। कृषि वैज्ञानिक नबांसु चट्टोपाध्याय मानते हैं कि बारिश में पूरी तरह से बदलाव नहीं हुआ है, बल्कि आईएमडी की ओर से बारिश के लिए की जाने वाली भविष्यवाणी और कृषि जरूरतों के संदर्भ में उनका तर्जुमा अलग-अलग हैं। वह कहते हैं, “जमीन की गर्माहट मिट्टी से सारी नमी दूर कर देती है और भारी या फिर अधिक मात्रा में हुई बारिश इस खोई हुई नमी को बनाए रखने में मदद नहीं करती है।

अगर वर्षा कम होती है तो मिट्टी का सूखापन बीज को अंकुरित नहीं होने देता और न ही खड़ी फसल को बढ़ने देता है। ऐसे हालात तब पैदा होते हैं, जब मॉनसून के दौरान लंबे अंतराल पर बारिश होती है।” वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि फसल उगाने के सीजन की शुरुआत के निर्धारण में “सॉइल वाटर बैलेंस अप्रोच” का इस्तेमाल करना काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे बारिश की मात्रा को ध्यान में रखते हुए इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि मिट्टी में कितनी नमी बनेगी, पौधों के उपयोग लायक मिट्टी में कितनी नमी होगी और वाष्पीकरण के जरिये मिट्टी की नमी में कितनी कमी आएगी। बुआई के बाद 2 सप्ताह से अधिक समय तक सूखा रहने से फसल खराब हो सकती है या फिर पैदावार कम हो सकती है, क्योंकि इससे मिट्टी की ऊपरी परतें सूख जाती हैं और अंकुरण रुक जाता है।

जून के बारे में बताते हुए बल एक और घटना पर प्रकाश डालते हैं, जिसे “फॉल्स स्टार्ट” कहा जाता है। मॉनसून की शुरुआत होते ही पहले महीने में यह घटना कई बार होती है। इसका मतलब यह है कि शुरुआत में कुछ बारिश के बाद अगले एक सप्ताह या उससे अधिक वक्त तक सूखा रहता है। बल कहते हैं, “निश्चित रूप से जून परेशान कर रहा है। मॉनसून की शुरुआत में ज्यादा अंतर नहीं है, लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि जब एक बार आप फसल की बुआई कर देते हैं तो बारिश में एक लंबा अंतराल आ जाता है और फिर बरसात कितने दिनों के अंतराल में होगी, यह तय नहीं है। कई-कई दिन के अंतराल में बारिश की समस्या जून में ज्यादा है। सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर इलाकों में कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है, क्योंकि बुआई का वक्त 10 से 15 जुलाई तक ही होता है।”

आईसीएआर-सीआरआईडीए के वैज्ञानिकों ने सूखे पर किए गए अपने हालिया शोध में “फॉल्स स्टार्ट” के रूझान का विस्तार से वर्णन किया है। एग्रीकल्चरल एंड फॉरेस्ट मेट्रोलॉजी जर्नल में 14 मार्च 2022 को प्रकाशित पेपर “क्राइटेरिया बेस्ड डिसीजन फॉर डिटरमाइनिंग एग्रोक्लाइमेट ऑनसेट ऑफ द क्रॉप” में कहा गया है, “फॉल्स स्टार्ट की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी वजह से अंकुरण नहीं हो पाता है और किसानों को दोबारा बुआई करनी पड़ती है, जिससे खेती की लागत बढ़ जाती है।” पेपर के मुताबिक, मिट्टी की नमी के जरिये फॉल्स स्टार्ट की भविष्यवाणी करना सबसे अच्छा तरीका था।

वैज्ञानिकों ने सूखे की अवधि और उसका प्रभाव देखने की भी कोशिश की और फरवरी 2022 में प्रकाशित एक दूसरे शोध में एक नए इंडेक्स के बारे में बताया, जिसे ड्राई स्पेल इंडेक्स (डीएसआई) का नाम दिया गया। शोध में पाया गया कि सूखे से फसल की पैदावार में होने वाली कमी को मापने में यह डीएसआई मानकीकृत वर्षा सूचकांक (एसपीआई) की तुलना में काफी बेहतर है। एसपीआई उस सीजन में होने वाली कुल बारिश के हिसाब से गणना करता है।

डीएसआई को खरीफ के सीजन के दौरान सूखे के प्रभाव को मापने के लिए विकसित किया गया है। खरीफ की इन फसलों में भारत के 6 राज्यों- राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की वर्षा आधारित प्रमुख फसलें कपास, मूंगफली, मक्का, बाजरा, अरहर और ज्वार शामिल हैं।

विश्लेषण से पता चलता है कि फसलों की पैदावार पर एसपीआई की ओर से दिखाई गई कुल बारिश से पड़ने वाले प्रभाव की तुलना में सूखे का प्रभाव अधिक था। 65 फीसदी से अधिक उत्पादक क्षेत्रों की सभी फसलों की पैदावार को डीएसआई ने महत्वपूर्ण तरीके से प्रभावित किया। ज्वार के 24 प्रतिशत, मूंगफली के 23 प्रतिशत और बाजरा के 13 प्रतिशत उत्पादक क्षेत्रों की उपज में 75 से 99 प्रतिशत तक का नुकसान हुआ। इसी तरह, कपास के 44 प्रतिशत, मूंगफली के 24 प्रतिशत, मक्का के 17 प्रतिशत, बाजरा व ज्वार के 16-16 प्रतिशत और अरहर के 12 प्रतिशत उत्पादक क्षेत्रों की उपज में 50 से 74 प्रतिशत तक का नुकसान हुआ।

शोधपत्र के मुताबिक, “किसी विशेष फसल या उसकी किस्म तय करने, किसी खास स्थान पर अलग-अलग अवधि वाली विभिन्न फसलें पैदा करने, खेती के अनुकूल रणनीतियां तय करने, पूरक सिंचाई और खेती से जुड़े कामकाज को तय करने में सूखे के बारे में जानकारी काफी महत्वपूर्ण हो सकती है।”

हालांकि, किसानों को सूखे और अचानक भारी बारिश के बारे में सही पूर्वानुमान या जानकारी नहीं मिल पाती है और इससे उनकी आजीविका प्रभावित हो रही है। डाउन टू अर्थ से फोन पर बात करते हुए किसान सुशील कुमार की दुविधा साफ समझ आती है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में रहने वाले सुशील की 1.2 हेक्टेयर खेती पूरी तरह से बारिश पर निर्भर थी। सूखे के दिनों में बढ़ोतरी के कारण उन्होंने खेत में बोरिंग करवाकर भूजल से सिंचाई शुरू कर दी, लेकिन इससे उनकी परेशानी और बढ़ गई है। एक बार सिंचाई में उन्हें 20 घंटे लगते हैं और इसपर करीब 1,000 रुपए का खर्च आता है। लेकिन, अक्सर उनके सिंचाई कर देने के तुरंत बाद बारिश हो जाती है। वह कहते हैं, “पूरा समय और पैसा बर्बाद हो जाता है। लगभग 10 साल पहले बरसात का एक निर्धारित पैटर्न हुआ करता था। यहां 20 जून तक मॉनसून आ जाता था। लेकिन, बीते 10 साल में कम से कम 3 से 4 बार ऐसा हुआ है, जब काफी देर से बारिश हुई। फिर मैंने 7 साल पहले भूजल का सहारा लेना शुरू किया, लेकिन कई बार ऐसा हुआ कि सिंचाई के ठीक बाद बरसात हो गई। मुझे बरसात के बारे में कोई पूर्व सूचना या सलाह नहीं मिली थी।”

काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) की रिस्क एंड एडॉप्टेशन टीम के प्रोग्राम लीडर अबिनाश मोहंती ने भी एक अध्ययन में ऐसे ही रूझान की तरफ ध्यान दिलाया है। वह यह अध्ययन करने वाली टीम का हिस्सा थे। अध्ययन के अनुसार, “सीईईडब्ल्यू जिला स्तर पर मौसम की इन विषम घटनाओं का अध्ययन कर रहा है। हमने पिछले 50 वर्षों का गहन व जोखिम मूल्यांकन किया। उसमें 75 प्रतिशत जिलों में अदला-बदली की प्रवृत्ति पाई गई, जिसका मतलब है कि हमेशा से बाढ़ प्रभावित रहे क्षेत्र अब सूखा प्रभावित क्षेत्र बन रहे हैं और जिन इलाकों में लोग सूखे का सामना करते रहे हैं, वहां अब बाढ़ आने लगी है।”

मोहंती का कहना है कि पिछले 50 साल में मॉनसून का रुख बदल गया है। वह कहते हैं, “हम देख रहे हैं कि अब पूरे क्षेत्र में मॉनसून की शुरुआत थोड़ी देरी से हो रही है। या फिर अगर मॉनसून समय पर आ भी जाता है, तो उसका पैटर्न काफी अनियमित होता है। सूखे के दिनों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन कभी-कभी आपको अनियमित बारिश और दूसरी चीजों का सामना करना पड़ सकता है।”

यही वह मौका है, जहां खतरे के जोखिम पर बारीकी से मूल्यांकन की जरूरत पड़ती है। वह कहते हैं, “हमारे सभी आर्थिक क्षेत्रों की योजना सूक्ष्म स्तर पर खतरे को झेलने की क्षमता और जोखिम को समझने के दृष्टिकोण वाली होनी चाहिए, इसके साथ ही इसे ठीक करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ इसी साल हुआ है और आगे नहीं होगा। जो हुआ है, उसके आधार पर ही हम फसल के पैटर्न, क्रॉप कैलेंडर, फसलों के प्रकार और ऐसी ही अन्य चीजों में बदलाव लाते हैं।”

फसल के पैटर्न में हो रहे बदलाव पर उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के बारे में स्थानीय स्तर पर भी काम होना चाहिए। जोखिम मूल्यांकन और आकस्मिक योजना को एक साथ लाने की जरूरत बताते हुए वह कहते हैं, “हम काटछांट कर पूरे भारत के लिए एक ही जैसा क्रॉप कैलेंडर नहीं तैयार कर सकते हैं, क्योंकि देशभर के जिलों में मॉनसून का पैटर्न एक समान नहीं है। प्रत्येक जिले की अपनी जरूरतें हैं और उनके मुताबिक ही काम करना होगा।”

आकस्मिक योजना

आदर्श रूप से तो खेती के लिए वर्षा की कमी के आधार पर जिलेवार आकस्मिक योजनाओं को क्रियान्वित किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर इस साल कम बारिश का सामना कर रहे उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में खेती के लिए आकस्मिक योजना लाई गई है। इसके तहत किसानों को जल्दी तैयार होने वाली बाजरा की किस्म जैसे कि संकर आईसीटीपी- 8203 व राज-171 और हाइब्रिड पूसा-23 व 322 की खेती करने की सलाह दी गई है। बाजरा के अलावा किसानों को मक्का की खेती करने और मूंग की सम्राट और मेहा किस्मों को अपनाने के लिए कहा गया है। इसके साथ ही बाजरा की फसल के लिए भी सलाह दी गई है और इसकी संकर सीएसवी 13, सीएसवी 15 और विजेता हाइब्रिड सीएसएच 16 व सीएसएच 14 की खेती का सुझाव दिया गया है। इसी तरह के संकट से जूझ रहे बिहार के औरंगाबाद के लिए भी एडवाइजरी जारी की गई है। वहां धान, गेहूं, अरहर, मसूर और चना जैसी पारंपरिक फसलों की सामान्य किस्मों की जगह इनकी जल्दी तैयार हो जाने वाली किस्मों की खेती का सुझाव दिया गया है। हालांकि, कम बारिश का सामना कर रहे 6 राज्यों के साथ कृषि सचिव की हाल ही में हुई एक बैठक से पता चला है कि राज्य इन योजनाओं को लागू करने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि उनके पास वैकल्पिक फसलों के बीज ही उपलब्ध नहीं हैं।

अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक सरकारी अधिकारी ने कहा, “राज्यों ने बताया कि आकस्मिक योजनाओं में जो फसलें बताई गई हैं, उनके पास उनके बीज ही नहीं हैं। उन्होंने कहा कि वे इतनी बड़ी मात्रा में बीजों का भंडार नहीं रखते हैं।”

आईसीएआर-सीआरआईडीए के निदेशक वीके सिंह कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से अतिविषम मौसम की वजह बन रहा है, क्योंकि कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक सूखे की स्थिति बन रही है, जबकि अन्य क्षेत्र बाढ़ झेल रहे हैं। लेकिन ये घटनाएं जून के महीने तक ही सीमित नहीं है। कभी-कभी जुलाई या अगस्त में भी काफी कम या अत्यधिक बारिश हो सकती है और किसानों की चिंता बढ़ सकती है, खासकर उन किसानों की, जो पूरी तरह से वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर हैं। उनके अनुसार आकस्मिक योजना बनाना और बदलती जलवायु के अनुरूप खुद को ढाल लेना एक संभावित समाधान हो सकता है। वह कहते हैं, “हमने भारत भर में 650 जिलों की पहचान की है जो जलवायु परिवर्तन की चपेट में हैं। 350 जिलों से अधिक के लिए एक अपडेटेड प्लान पहले से ही लागू है। किसानों को खुद को बदलाव के अनुकूल बनाने के लिए फसलों की सूखा प्रतिरोधी किस्मों की खेती करने की आवश्यकता है। वे बागवानी करके और अनाज उगाकर भी विविधता ला सकते हैं।”

जब जलवायु के अनुकूल तंत्र की बात होती है, तो अक्सर सूखा प्रतिरोधी और अल्पकालिक किस्मों का उल्लेख आता है। हालांकि, संकट के समय में केवल कुछ ही किसानों के पास अल्पकालिक किस्मों पर स्विच करने के लिए आवश्यक जागरुकता और संसाधन हैं। किसानों का यह भी मानना है कि अल्पकालीन किस्में दीर्घकालीन किस्मों की तुलना में कम उपज देती हैं। लेकिन कुछ राज्यों ने अपने फसल चक्र का तालमेल मॉनसून की अनिश्चित प्रकृति के साथ बैठाने की जरूरत को पहचान लिया है। उनमें से एक असम है, जिसने आईसीएआर-सीआरआइडीए से पूरे राज्य के फसल कैलेंडर का पुनरीक्षण करने का अनुरोध किया है। इसके बाद बल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया, जो राज्य में बारिश के पैटर्न और तापमान में बदलाव के प्रकार पर नजर रख रही है और कैलेंडर को सबसे अच्छे तरीके से संशोधित करने पर काम कर रही है।

बिहार में भी राज्य सरकार अपनी जलवायु के अनुकूल कृषि योजना में जलवायु के अनुकूल उन्नत किस्म के बारे में बात करती है, जो फसल प्रणाली और क्रॉप कैलेंडर के लिए उपयुक्त है। बिहार सरकार ने जलवायु अनुकूलन कृषि कार्यक्रम के पायलट प्रोजेक्ट को सितंबर 2019 में 8 जिलों में शुरू करने के बाद 2020 के रबी मौसम में पूरे 38 जिलों में लागू कर दिया है। इस कार्यक्रम की मुख्य विशेषता विकसित किए गए कृषि पंचांग के अनुसार, फसलों के सही समय पर लगाने पर आधारित फसल प्रणाली शुरू करना है। बिहार सरकार के 2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि सरकार की इस पहल के बाद उत्पादकता और लाभप्रदता में भारी वृद्धि हुई। इस कार्यक्रम के तहत सरकार ने तीनों चक्रों (खरीफ, रबी और जायद) के लिए जलवायु के अनुसार फसलें निर्धारित कर दी हैं। वैज्ञानिक कृषि जलवायु क्षेत्रों के पुनर्वर्गीकरण के बारे में भी बात कर रहे हैं। भारत में कृषि जलवायु क्षेत्रों का वर्गीकरण 1979 में किया गया था, जिसे विभिन्न मापदंडों के आधार पर स्थान-विशिष्ट और आवश्यकता-आधारित अनुसंधान के साथ-साथ समग्र कृषि विकास के लिए रणनीति बनाने के लिए किया गया था।



कृषि का नया कैलेंडर

आईएमडी के कृषि मौसम विज्ञान विभाग के पूर्व उप महानिदेशक और वर्तमान में कृषि मौसम विज्ञान के लिए अंतरराष्ट्रीय सोसायटी के अध्यक्ष चट्टोपाध्याय का कहना है कि बीते हजारों वर्षों में कृषि स्थिर और सुसंगत ही रही है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इसे काफी विक्षोभों का सामना करना पड़ा है। वह कहते हैं, “मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि कृषि को एक नई दिशा दी जानी चाहिए। कृषि जलवायु क्षेत्रों को पुनर्वर्गीकृत करने की आवश्यकता है।”

चट्टोपाध्याय और आईएमडी, आईएमडी पुणे और भारतीय ऊष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के तीन अन्य वैज्ञानिकों ने अगस्त 2019 में करंट साइंस जर्नल में प्रकाशित “इम्पैक्ट ऑफ ऑब्जर्व्ड क्लाइमेट चेंज ऑन द क्लासिफिकेशन ऑफ एग्रोक्लाइमेटिक जोंन्स इन इंडिया” पेपर में इसका दस्तावेजीकरण किया था।

चट्टोपाध्याय कहते हैं, “हालांकि, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर तो अध्ययन किए गए हैं, लेकिन कृषि जलवायु क्षेत्र के स्तर पर ज्यादा अध्ययन नहीं हुआ है, जबकि कई विशेष फसलें वहां की कृषि जलवायु क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार उगाई जाती हैं।” यह पेपर उत्तर पूर्वी राज्यों, गुजरात, देश के पहाड़ी क्षेत्रों और मध्य और प्रायद्वीपीय भारत के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में तापमान, वर्षा, भारी वर्षा और बरसात के दिनों जैसे मौसम के मापदंडों में महत्वपूर्ण वृद्धि या कमी की प्रवृत्ति की समीक्षा करता है। इसमें कहा गया है, “यह निश्चित रूप से 90 के पूर्वाद्ध से उत्तरार्द्ध तक के दशक में जलवायु परिवर्तन के बारे में बताता है।” आगे इसमें बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन कृषि जलवायु क्षेत्रों में भी दिखाई दे सकता है और आखिर में जलवायु मापदंडों के आधार पर उनके वर्गीकरण के मानदंडों को प्रभावित कर सकता है। इसके हिसाब से कृषि जलवायु क्षेत्रों में जलवायु मापदंडों का, विशेष रूप से तापमान और वर्षा में किसी भी बदलाव का, मौजूदा कृषि जलवायु वर्गीकरण के साथ-साथ फसल उत्पादन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।

आईएमडी ने भी पहली बार क्रॉप वेदर कैलेंडर को संशोधित करने की जरूरत को स्वीकार किया है। आईसीएआर-सीआरआईडीए की ओर से 25 केंद्रों के लिए तैयार किए गए क्रॉप कैलेंडर के बाद आईएमडी ने भी संगठन से सभी जिलों के लिए डायनेमिक क्रॉप वेदर कैलेंडर तैयार करने के लिए कहा है। अब तक 75 जिलों में काम पूरा हो चुका है।

आईएमडी के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्रा इस बात से सहमति जताते हैं कि आईएमडी की ओर से पहले तैयार किया गया क्रॉप वेदर कैलेंडर विभिन्न राज्यों में वर्षा की शुरुआत और फसल के बीच गतिशील संबंधों का ध्यान नहीं रखा गया था। महापात्रा कहते हैं कि विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि कुछ क्षेत्रों में बदलाव बढ़ रहा है। इससे कहीं ज्यादा बाढ़ आ रही है तो कहीं सूखे की समस्या बढ़ गई है। वर्षा के वितरण में परिवर्तन हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बढ़ रही हैं।

फिलहाल डायनेमिक क्रॉप वेदर कैलेंडर कुछ राज्यों में एक प्रोजेक्ट के तौर पर लागू किया गया है, लेकिन सभी जिलों में सभी फसलों के लिए सक्रियता के साथ इसका विस्तार करने और अधिक प्रभावी सलाह के तौर पर किसानों तक इसका लाभ पहुंचाने की सख्त जरूरत है। शोध अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि जब किसानों को बेहतर सलाह मिलती है, तो जलवायु परिवर्तन के अनुकूल अपनाए जाने वाले उपायों में से बुआई की तारीखें बदलना उनके लिए सबसे अधिक फायदेमंद है।

भारत में जलवायु परिवर्तन, कृषि और खाद्य सुरक्षा (सीसीएएफएस) पर सीजीआईएआर के अनुसंधान कार्यक्रम के साथ यूएसएआईडी (यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डिवेलपमेंट) ने अनुकूलित कृषि हस्तक्षेपों को मापने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के 75 गांवों में 4 साल तक एक इंटर्वेंशन स्टडी की। सर्वे में शामिल किए गए 11,250 किसानों में से 43 प्रतिशत ने कहा कि एडवाइजरी सर्विसेज में से बुआई की तारीखों में बदलाव उनके लिए सबसे प्रभावी साबित हुई। प्रोजेक्ट के 4 साल में गांवों के 75 समूहों के किसान जलवायु के अनुकूल कृषि तकनीकों तक पहुंचने और खेती के बेहतर तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर पाने में सक्षम हो गए। हालांकि बदली जलवायु परिस्थितियों के मद्देनजर से उपाय अहम जरूर हैं लेकिन इनकी पहुंच सीमित है। इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।

(इनपुट्स: विवेक मिश्रा, अनिल अश्विनी और भागीरथ)

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