खास रिपोर्ट: खाद सब्सिडी से बचने के लिए आया नैनो यूरिया, किसान हुए परेशान

उर्वरकों पर निर्भरता कम करने और किसानों की आय बढ़ाने के दावों के साथ जिस नैनो यूरिया को सरकार बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित कर रही है, किसानों के अनुभव उससे मेल नहीं खाते

By Vivek Mishra

On: Wednesday 19 July 2023
 
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बली गांव के किसान रतन सिंह इफको द्वारा विकसित नैनो यूरिया की बोतल दिखाते हुए (फोटो: विवेक मिश्रा / सीएसई)

रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से लगातार बढ़ती उर्वरक की कीमतें भारत के आयात बिल का बोझ बढ़ाती जा रही हैं। वहीं, खेतों में उर्वरकों के बेजा इस्तेमाल ने न सिर्फ उपज की लागत बढ़ाई है बल्कि पर्यावरणीय समस्याएं भी पैदा कर दी हैं। इन समस्याओं से निजात के लिए सरकार के जरिए अब नैनो तकनीकी वाले उर्वरकों को बड़े समाधान के रूप में देखा जा रहा है। भारत नैनो उर्वरक बनाने वाला दुनिया का पहला देश बन चुका है और इसके जरिए उर्वरक क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी बनना चाहता है।

भारत में यूरिया और डाई-अमोनिया फॉस्फेट (डीएपी) दो उर्वरकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (इफको) के जरिए 2021 से लेकर अब तक इन दोनों उर्वरकों के नैनो संस्करण जारी किए जा चुके हैं। नैनो तकनीकी के इन उर्वरकों को पेटेंट भी कराया गया है। इफको का दावा है कि पारंपरिक यूरिया के मुकाबले नैनो यूरिया और नैनो डीएपी न सिर्फ पर्यावरणीय नुकसान कम कर सकती है बल्कि इसके काफी फायदे भी हैं। सरकार का कहना है कि इससे न सिर्फ खेतों में मिट्टी की सेहत ठीक होगी बल्कि किसानों की आय भी सुधरेगी। हालांकि, किसान इससे सहमत नहीं हैं।

नैनो यूरिया और नैनो डीएपी तरल रूप में किसानों को दिए जा रहे हैं। इफको का दावा है कि नैनो तरल यूरिया की 500 मिलीलीटर की एक बोतल पारंपरिक यूरिया के 45 किलो के एक कट्ठे के बराबर है। नैनो डीएपी की 500 मिलीलीटर की एक बोतल 50 किलो के डीएपी बैग के बराबर है। नैनो यूरिया 2021 से बेचा जा रहा है जबकि नैनो डीएपी को अप्रैल, 2023 में लॉन्च किया गया है। नैनो डीएपी लॉन्च करते हुए केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने बताया कि मार्च, 2023 तक नैनो यूरिया की 6.3 करोड़ बोतल बनाई जा चुकी है, जिसके कारण 2021-22 में 70 हजार टन यूरिया आयात में कमी आई है। नैनो डीएपी के जरिए 90 लाख टन पारंपरिक डीएपी को कम करने का लक्ष्य रखा जा रहा है।

शशि थरूर की अध्यक्षता वाली रसायन और उर्वरक की संसदीय समिति (2022-23) ने मार्च 2023 की रिपोर्ट में नैनो उर्वरकों के कई फायदे गिनाए। रिपोर्ट में कहा गया कि देश में अत्यधिक मात्रा में अंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल किए जा रहे पारंपरिक यूरिया को नैनो यूरिया नियंत्रित कर सकता है। देश में ज्यादातर फसलों में करीब 82 फीसदी नाइट्रोजन युक्त उर्वरक के तौर पर पारंपरिक यूरिया का इस्तेमाल किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया कि नैनो फर्टिलाइजर न सिर्फ पारंपरिक सब्सिडी वाले यूरिया की तुलना में कम है, बल्कि यह किसानों की लागत को भी कम करता है। नैनो यूरिया के इस्तेमाल से किसान बेहतर उपज और उच्च आय हासिल कर सकता है।

रिपोर्ट के मुताबिक, इफको के जरिए कुल 94 फसलों पर 11 हजार खेतों में ट्रायल किया गया। नैनो यूरिया के इस्तेमाल से कृषि उपज में 8 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हुई, जिसका आशय हुआ कि प्रति हेक्टेयर 2,000 से 5,000 रुपए का फायदा हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है, “प्रधानमंत्री के जरिए संकल्पित किसानों की आय को दोगुना करने में यह एक औजार की तरह काम करेगा।” लेकिन जब डाउन टू अर्थ ने नैनो यूरिया का इस्तेमाल कर रहे किसानों से बात की तो उनके अनुभव और जवाबों ने इस तकनीक पर कई नए सवाल खड़े कर दिए।

नहीं बढ़ी उपज

मध्य प्रदेश के सीहोर जिले में रहने वाले 38 वर्षीय किसान प्रवीण परमार अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, “वर्ष नवंबर 2022 में कुल आठ हेक्टेयर खेतों में गेहूं की फसल बुआई की थी। बुआई के करीब 20 दिन बाद प्रयोग के तौर पर 4 हेक्टेयर खेत में 500 एमएल वाली 10 नैनो यूरिया की बोतल का छिड़काव किया। खेतों में इस स्प्रे के लिए कुल 1,000 रुपए की अतिरिक्त मजदूरी भी दी। जबकि 4 हेक्टेयर खेत में पहले की तरह पारंपरिक यूरिया का छिड़काव किया। मैंने पाया कि जिन 4 हेक्टेयर खेतों में पारंपरिक यूरिया पड़ी थी, उन फसलों के रंग में न सिर्फ बदलाव आया बल्कि पत्ते भी चौड़े हो गए जबकि नैनो यूरिया वाले खेतों में किसी तरह का बदलाव नहीं दिखा। बाद में नैनो तरल यूरिया वाले खेतों में मजबूरन पारंपरिक यूरिया डालना पड़ा।” परमार बताते हैं कि अगर वे समय रहते खड़ी फसल पर पारंपरिक खाद न डालते तो उन्हें उपज में बड़ा नुकसान होता।


दुनिया में पहली बार भारत में ही नैनो यूरिया का प्रयोग किया गया। इसे श्रीलंका समेत दुनिया के अन्य देशों में भी निर्यात किया जा रहा है। भारत में 2017 से नैनो यूरिया का सफर शुरू हुआइसी तरह सोनीपत के कुराड़ गांव में रहने वाले 64 वर्षीय किसान सतपाल डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि उन्होंने नवंबर, 2022 में गेहूं लगाया था जिसकी कटाई अप्रैल 2023 में की। उन्होंने बुआई के करीब 20 से 25 दिन बाद नैनो यूरिया का स्प्रे भी कराया लेकिन फसलों में कोई बदलाव न दिखने पर उन्होंने पारंपरिक खाद का छिड़काव कर दिया। सोनीपत जिले में भटगांव के रहने वाले 19 वर्षीय किसान पवन कहते हैं, “बीते साल जब यूरिया संकट हुआ तो 500 मिलीलीटर की पांच बोतल नैनो यूरिया दुकान से लेकर आया था। मेरे पास 25 बीघे (2.5 हेक्टेयर) खेत हैं जिसमें गेहूं की फसल 4 नवंबर, 2022 को लगाई थी।

2.5 हेक्टेयर में प्रति बीघा 5 कुंतल (1 कुंतल में 100 किलो) के हिसाब से कुल 2.5 हेक्टेयर में करीब 125 कुंतल गेहूं उपज की उम्मीद थी। इस बार अप्रैल की असमय बारिश ने भी फसल को 30 फीसदी नुकसान पहुंचाया। इस कारण प्रति बीघे 5 के बजाए 3.5 कुंतल गेहूं ही मिला।” पवन अपने निर्णायक कथन में कहते हैं कि नैनो यूरिया से फसल में कोई फर्क नहीं दिखाई दिया। नैनो यूरिया के ट्रायल में सहयोग करने वाले उत्तर प्रदेश के कृषि विज्ञान केंद्र से जुड़े एक वैज्ञानिक ने नाम न बताने की शर्त पर डाउन टू अर्थ से कहा कि वह स्वयं नैनो यूरिया का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन इसका कोई परिणाम उनको हासिल नहीं हुआ है।

डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड एजुकेशन (डेयर) के पूर्व डायरेक्टर जनरल त्रिलोचन मोहपात्रा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि नैनो यूरिया का पहला ट्रायल उनके कार्यकाल में ही हुआ था। उस ट्रायल के रिजल्ट से पता चला कि इससे उपज में कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन खड़ी फसल में यूरिया इस्तेमाल में 50 फीसदी की कमी आई। वह आगे कहते हैं कि नैनो यूरिया के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। इसका असर जरूर होता है। बस निश्चित रूप से यह नहीं बताया जा सकता है कि यह फसल में कहां स्टिमुलेट करता है और कितना करता है।

हरियाणा में सोनीपत के कृषि विज्ञान केंद्र से सेवानिवृत्त प्रमुख वैज्ञानिक जेके नंदाल डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि किसान इसे किस स्टेज पर प्रयोग करता है, यह महत्वपूर्ण है। इसकी एक सीमा है, यह तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब पत्ते आ जाएं। यह एक सीमित विकल्प के तौर पर मौजूद रहेगा। इसके उपज बढ़ाने के दावे पर वह भी कुछ स्पष्ट नहीं कहते। नंदाल बताते हैं कि नैनो तरल यूरिया को लाने में थोड़ी जल्दी दिखाई गई है।

लागत में इजाफा

सरकार के दावे के उलट किसान कह रहे हैं कि नैनो यूरिया के इस्तेमाल से खेतों में लागत घटने के बजाए, बढ़ गई है। सोनीपत में भटगांव के 60 वर्षीय आजाद फौजी कहते हैं कि नैनो यूरिया मिश्रित पानी की एक 25 लीटर की टंकी का छिड़काव कराने के लिए प्रति बीघा में कम से कम 40 रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं। जबकि पारंपरिक यूरिया कुछ ही घंटों में किसान आसानी से खुद छिड़क देता है। नैनो यूरिया की 2 से 4 एमएल बूंद एक लीटर पानी में मिलाने की हिदायत दी जाती है। किसान 4 एमएल नैनो यूरिया को एक लीटर में मिला रहे हैं। इस आधार पर हरियाणा में 5 बीघा जमीन यानी एक एकड़ में एक बोतल नैनो यूरिया की खपत होती है, साथ ही इसे छिड़कने के लिए प्रति बीघा एक टंकी यानी 40 रुपए देने पड़ते हैं।

भटगांव के ही 19 वर्षीय किसान पवन बताते हैं कि स्प्रे के बोझ के चलते पारंपरिक यूरिया और नैनो यूरिया की कीमत में बड़ा अंतर आ जाता है। वह बताते हैं कि पारंपरिक यूरिया के 45 किलो वाले एक कट्टे की कीमत करीब 250 रुपए है और नैनो तरल यूरिया की भी कीमत करीब 240 रुपए है। कीमत में फर्क तब आता है जब नैनो यूरिया को स्प्रे करने के लिए प्रति टंकी 40 रुपए देने पड़ते हैं।

अगर नैनो यूरिया की एक बोतल में 5 टंकी स्प्रे का मजदूरी खर्च अगर जोड़ दें तो नैनो तरल यूरिया की एक बोतल करीब 440 रुपए (नैनो यूरिया की बोतल 240 + 200 रुपए स्प्रे खर्च ) की पड़ती है। यह सब्सिडी वाले पारंपरिक यूरिया के एक बैग से दोगुनी महंगी पड़ जाती है। हालांकि नैनो यूरिया को प्रोत्साहित करने के लिए नवंबर, 2022 में रबी सीजन से पहले इफको ने नैनो यूरिया बोतल की कीमत 15 रुपए घटा दी। फिर भी यह पारंपरिक यूरिया की लागत की तुलना में काफी महंगी है।

नैनो यूरिया को लेकर इसी तरह का कड़वा अनुभव उत्तर प्रदेश में बागपत के बली गांव के 60 वर्षीय किसान सत्यवीर का भी रहा। वह कहते हैं कि सहकारी समितियों से जो भी सब्सिडी वाली यूरिया दी जाती है, उसके साथ अनिवार्य तौर पर न्यूनतम एक बोतल इफको की नैनो यूरिया की बोतल दी जाती है। यदि जबरदस्ती उन्हें यह बोतल न दी जाए तो वह इसकी जगह पारंपरिक यूरिया ही इस्तेमाल करें। अनिवार्य रूप से नैनो यूरिया बोतल देने के सवाल पर इफको ने कहा कि हमने सहकारी समितियों से कोई करार नहीं किया है। हम इसकी बिक्री जबरदस्ती नहीं कर रहे हैं। हम नैनो यूरिया के ज्यादा इस्तेमाल के लिए अपने स्टाफ और सोसायटी को कमीशन देते हैं।

तीन सीजन के आंकड़े नहीं

किसी भी नए खाद को मंजूरी देने के लिए भारतीय कृषि अनसुंधान परिषद (आईसीएआर) के पास कम से कम तीन सीजन का आंकड़ा होना चाहिए। नैनो यूरिया ट्रायल के पब्लिक डाटा के मुताबिक, रिसर्च और फार्मर फील्ड ट्रायल के लिए 4 सीजन में 13 फसलों का 43 स्थानों (ऑन स्टेशन) और 94 फसलों का 21 राज्यों के खेतों में ट्रायल किया गया है। हालांकि, किसी एक भी फसल का तीन सीजन का आंकड़ा नहीं है। इफको के जरिए डाउन टू अर्थ को दी गई जानकारी के मुताबिक, एक फसल का दो सीजन का ही आंकड़ा अब तक मौजूद है।

दिल्ली स्थित गुरू गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर व इंटरनेशनल नाइट्रोजन इनिशिएटिव के पूर्व अध्यक्ष एन रघुराम कहते हैं, “एक नई तकनीकी के तौर पर नैनो तरल यूरिया का आना स्वागत योग्य कदम है। हालांकि, इसे अनुमति देने के लिए यदि अगर तीन साल और छह सीजन का क्रॉप ट्रायल डाटा होता तो काफी बेहतर होता। जब सरकार ने नैनो यूरिया को वर्ष 2021 में अनुमति दी तब तक बहुत कम फसलों पर इसके ट्रायल का डाटा उपलब्ध था, यहां तक कि किसी भी फसल पर नैनो यूरिया के इस्तेमाल के पूरे तीन सीजन का आंकड़ा भी सरकार के पास नहीं था।

ऐसे में इसके भविष्यगत परिणाम अभी क्या होंगे, कहा नहीं जा सकता।” वह आगे कहते हैं, “500 एमएल की बोतल 45 किलो यूरिया के कट्टे के बराबर काम कर सकती है। मेरा मानना है कि नैनो तरल यूरिया से यदि उपज बढ़े न तो कम से कम घटे भी नहीं। इसके अलावा इसका लाभदायक कीट, पर्यावरण, जैव सुरक्षा व मानवों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ना चाहिए।” रघुराम कहते हैं मिसाल के तौर पर किसी जीएम क्रॉप को पहले लैब से गुजरना होता है, उसके बाद उसे फील्ड ट्रायल के लिए लाया जाता है। रेग्युलेटरी बॉडी इसका परीक्षण करती है, जिसमें वह बिंदुवार लैब रिजल्ट्स को पास करती है। नैनो यूरिया का लैब रिजल्ट क्या रहा है, इसके बारे में हम नहीं जानते हैं।

संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, नैनो यूरिया का डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नोलॉजी के गाइडलाइन के आधार पर बायो-सेफ्टी और टॉक्सिसिटी टेस्ट किया गया है। यह गाइडलाइन ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कॉरपोरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने तैयार की है जो वैश्विक स्तर पर मान्य है। रिपोर्ट में बताया गया है कि नैनो यूरिया पूरी तरह से मानवों, पशु और पक्षियों व राइजोस्पर ऑर्गेनिजम (पौधे की जड़ का हिस्सा व सूक्ष्म जीव) व पर्यावरण के लिए सुरक्षित है। रघुराम कहते हैं क्रिटिकल ट्रॉयल में फेस वन से फेस 3 तक जो भी उत्पाद फेस 3 को पास नहीं करता, उसे हम बेहतर उत्पाद नहीं मानते। अगर तात्कालिक संकट नहीं था तो नैनो यूरिया के ट्रायल को पूरा करने के बाद किसानों के बीच लाया जाना चाहिए था।

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