क्या भारत में हींग उगाने का प्रयोग सफल रहेगा?

भारत में पहली बार हींग की खेती का पायलट प्रोजेक्ट शुरू हुआ है लेकिन मौसम की अनिश्चितता ने हिमाचल प्रदेश के किसानों के मन में उपज को लेकर संदेह भर दिया है

By Raju Sajwan

On: Thursday 14 April 2022
 
हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति, मंडी, कुल्लू, किन्नौर और चंबा जिलों में लगभग 3.5 हेक्टेयर क्षेत्र में हींग की खेती शुरू की जा चुकी है (फोटो: राजू सजवान / सीएसई)

“अक्टूबर 2020 में कुछ सरकारी अधिकारी आए और हमसे कहा कि आप अपने खेतों में हींग उगाएंगे तो एक किलो हींग 20 से 30 हजार रुपए में बिक जाएगी। पहले तो हमें विश्वास नही हुआ, लेकिन जब अधिकारियों ने बताया कि अभी तक हींग की पैदावार भारत में नहीं होती और पहली बार उनके खेतों में यह पौधा लगाया जाएगा, तब हम काफी उत्साहित हुए। उनकी बातों से प्रभावित होकर मैंने अपने खेतों में 60 पौधे लगाए थे, जिसमें से अभी 30 बचे हैं। जनवरी 2021 में भी 3-4 पौधे लगाए। इन पौधों में मार्च 2021 में पत्ते आने शुरू हुए थे, लेकिन कुछ समय बाद पत्ते झड़ गए। अभी समझ नहीं आ रहा है कि ये पौधे आगे भी जीवित रहेंगे या नहीं।” यह कहना है मोती लाल का। वह हिमाचल प्रदेश के जनजातीय इलाके लाहौल के मढ़गांव के रहने वाले हैं। मोती लाल उन गिने चुने किसानों में शामिल हैं, जिन्हें हींग के पौधे दिए गए।

भारत में हींग के उत्पादन की जिम्मेदारी काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च-इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी (सीएसआईआर-आईएचबीटी) ने ली। आईएचबीटी ने 2019 में भारत में हींग के उत्पादन का ट्रायल शुरू किया था और अपने पालमपुर स्थित संस्थान की नर्सरी में एक साल के ट्रायल के बाद लाहौल स्पीति जिले में रिबलिंग स्थित सेंटर फॉर हाई एल्टीट्यूड बायोलॉजी के साथ मिलकर हींग पर काम आगे बढ़ाया। इसके लिए इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च-नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सज के माध्यम से हींग के बीजों का ईरान से आयात किया और लाहौल के कुछ गांवों के किसानों को वितरित किए गए।

मढ़गांव भी उन गांवों में से एक है। मोती लाल की तरह संतोष ने अक्टूबर 2020 में 30 पौधे लगाए थे, लेकिन केवल तीन पौधे जीवित रह पाए। इसके बाद जून 2021 में 50 पौधे लगाए, इनमें से 18 पौधे ही जीवित बचे। संतोष कहती हैं कि जो पौधे जीवित भी हैं, उनके पत्ते झड़ जाते हैं। अधिकारियों ने आश्वासन दिया है कि पत्ते फिर से आ जाएंगे। संतोष को उम्मीद है कि अगर उनके इलाके में हींग होती है और अच्छे दामों पर बिक जाती है तो उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा।

आईआईएचटी के एग्रोटेक्नोलॉजी डिवीजन के वरिष्ठ वैज्ञानिक अशोक कुमार कहते हैं कि दरअसल अप्रैल 2021 में हुई असमय बर्फबारी की वजह से कुछ इलाकों में हींग के पौधों को नुकसान पहुंचा है। इसलिए अब हम किसानों से कह रहे हैं कि वे हींग के पौधे ढलान वाले एरिया में लगाएं, ताकि वहां बर्फ या बारिश का पानी तेजी से निकल जाए। अशोक कुमार कहते हैं कि हींग के बीज जिन इलाकों में दिए गए हैं, उन इलाकों का शुष्क होना बेहद जरूरी है। इस बात का हम खयाल भी रखते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से यह हमारे लिए एक चुनौती होगा। अब तक हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति, मंडी, कुल्लू, किन्नौर और चंबा में लगभग 3.5 हेक्टेयर क्षेत्र में हींग की खेती शुरू की जा चुकी है। उनमें से लगभग 60 प्रतिशत जीवित हैं।

हिमाचल प्रदेश में बीज उत्पादन केंद्र स्थापित किया गया। साथ ही हींग की रोपण सामग्री चमोली (उत्तराखंड), रणबीरपुर, लेह (लद्दाख), किस्तवार, डोडा और राजौरी (जम्मू-कश्मीर) को भी आपूर्ति की गई है। दरअसल हींग के लिए शुष्क और ठंडे वातावरण को उपयुक्त माना जाता है। हींग का पौधा न्यूनतम -5 से -10 डिग्री सेल्सियस और उच्चतम तापमान 35 से 40 डिग्री सेल्सियस तक सहन कर सकता है। इन पौधों की पूरी धूप की आवश्यकता होती है और पहाड़ी इलाकों में सूरज की किरणें बिना रुके सीधे जमीन पर पहुंचती है। खेत में जल भराव की स्थिति पैदा नहीं होनी चाहिए। हींग की खेती के लिए औसतन वर्षा 100 से 350 मिमी ही सही रहती है। पहाड़ों के दक्षिण दिशा की ओर ढलानदार भूमि पर किरणें सीधी पड़ती है। इसे खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है क्योंकि ढलानदार खेत पानी की निकासी के लिए उपयुक्त होते हैं। अक्टूबर-नवंबर महीने में बर्फ पड़ने से पहले खेतों में बुआई की जाती है। लेकिन बदलते मौसम की वजह से लाहौल के किसान काफी चिंतित हैं।

लाहौल आलू उत्पादक संघ के अध्यक्ष सुदर्शन बाप्सा कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से उनके इलाके के मौसम में काफी बदलाव आ रहा है। बर्फबारी के समय में बदलाव आया है। अब फरवरी-मार्च में बर्फ गिर रही है। यह बर्फ स्थायी भी नहीं होती है और जल्द ही पिघलकर बह जाती है। उनके इलाके में तापमान भी बढ़ रहा है। साथ ही भारी बारिश की घटनाएं बढ़ रही हैं। वह कहते हैं कि ऐसी स्थिति में हींग जैसा संवेदनशील पौधा कितना बच पाएगा, यह तो वक्त ही बताएगा।

सीएसआईआर-आईएचबीटी के निदेशक संजय कुमार बताते हैं कि भारत में हींग का इस्तेमाल औषधि के साथ मसालों के रूप में किया जाता है। हींग की लगभग 170 प्रजातियां विश्व भर में पाई जाती है। यूं तो भारत में हींग का उपयोग लंबे समय से किया जा रहा है, लेकिन देश में हींग का उत्पादन नहीं होता। हिमालय में पाई जाने वाली जंगली प्रजातियों में हींग की चार प्रजातियां फेरुला जैशकेना, फेरुला नार्थेक्स, फेरुला ओविना और फेरुला थॉमसोनि हैं, लेकिन फेरुला एसा-फोएटिडा नहीं हैं। फेरुला एसा-फोएटिडा की ही जड़ों से कच्ची हींग निकाली जाती है, जिसका उपयोग भारत में किया जाता है। भारत हर साल लगभग 1,540 टन कच्ची हींग का आयात अफगानिस्तान, ईरान और उज्बेकिस्तान से करता है और हींग के आयात पर प्रति वर्ष लगभग 942 करोड़ रुपए खर्च किया जाता है।

वह कहते हैं, “बीज की निष्क्रियता के कारण फेरुला एसा-फोएटिडा के बीज का अंकुरण एक प्रमुख बाधा थी। संस्थान की प्रयोगशाला में अलग-अलग परीक्षण किए गए और अंत में हींग की रोपण सामग्री को बढ़ाने के लिए 60-70 प्रतिशत बीज अंकुरण प्राप्त किया गया।

पांच साल में एक हेक्टेयर से 10 लाख की कमाई संभव

हींग का वानस्पतिक नाम फेरुला एसा-फोएटिडा है और यह एपिएसी परिवार का पौधा है। यह पौधा मूलत: ईरान व अफगानिस्तान के पहाड़ी इलाकों में जंगली रूप में पाया जाता है। हींग की जड़ों से निकलने वाले वानस्पतिक दूध को सुखाकर हींग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। हींग के पौधे मध्य एवं पूर्वी एशिया के भूमध्यसागरीय क्षेत्र में पाए जाते हैं। भारत में हींग का इस्तेमाल मसाले के रूप में किया जाता है। स्वाद के साथ-साथ इसके औषधीय गुण भी हैं।

हींग एक कोमल तने वाला पौधा है, जो 1.5 मीटर तक ऊंचा होता है और जड़ें मोटी, बड़ी और मुलायम होती है और इसमें दूधिया पदार्थ होता है, जिसे ओलियो गम राल, रस या शुद्ध हींग कहा जाता है। एक हेक्टेयर भूमि में हींग की खेती के लिए एक किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। हींग की जड़ें लंबी और गहरी होने के कारण इसकी खेती के लिए अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। हींग की पौध को मिट्टी में स्थानांतरित करने के बाद 2-3 दिन के अंतराल में एक माह तक पानी की जरूरत पड़ती है और उसके बाद इस अवधि को बढ़ाया जा सकता है। पौधे स्थापित होने के बाद जरूरत पड़ने पर ही सिंचाई की जरूरत पड़ती है। हींग में ज्यादा पानी देने से या पानी इकट्ठा होने की वजह से हींग के पौधे नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार निकालने के लिए समय-सयम पर निराई व गुड़ाई की जाती है। हींग के पौधे की जड़ से निकलने वाले राल/दूध से हींग बनाई जाती है। यह राल सूखने के बाद ठोस पदार्थ बन जाता है। हींग के तीन रूप होते हैं, जैसे आंसू, मास और पेस्ट। आंसू राल का सबसे शुद्ध रूप है, यह गोल या चपटा होता है और इसका रंग भूरा या हल्का पीला होता है। मास हींग का आकार समान होता है और इसका व्यावसायिक इस्तेमाल अधिक होता है। जबकि पेस्ट एक तरल रूप है। शुद्ध हींग की गंध बहुत तीखी होने के कारण इसे आमतौर पर पसंद नहीं किया जाता, इसलिए इसे स्टार्च और गोंद के साथ मिलाया जाता है और इस मिश्रित हींग को बेचा जाता है। यह पाउडर के रूप में उपलब्ध होती है। एक पौधे से करीब 20 से 25 ग्राम हींग निकलती है। इसकी कीमत गुणवत्ता पर निर्भर होती है। एक किलोग्राम शुद्ध हींग 25 हजार रुपए प्रति किलो तक बिक जाती है। और एक हेक्टेयर क्षेत्र में हर पांच साल में लगभग 10 लाख रुपए की कमाई हो सकती है।

हींग के पौधे में पांचवे साल में मई माह के दौरान फूले के गुच्छे निकलने शुरू होते हैं। हींग के पौधों में जून के माह में बीज बनना शुरू होता है ओर अगस्त में बीज पूरी तरह से कटाई के लिए तैयार हो जाता है। जिस हींग के पौधे से बीज तैयार किया जाना है, उस पौधे की जड़ से हींग का रस नहीं निकालना चाहिए।

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