विदेशी आक्रमण, भाग तीन : एफएडब्ल्यू का नई फसलों पर भी हमला शुरू

“विदेशी आक्रमण” श्रृंखला की तीसरी कड़ी में आज जानिए, फॉल आर्मीवर्म नामक विदेशी कीड़े के हमले से पीड़ित दक्षिण के राज्यों व महाराष्ट्र का हाल।

By Anil Ashwani Sharma, Akshit Sangomla, Ishan Kukreti

On: Wednesday 08 May 2019
 
तेलंगाना में मक्के की फसल पर लगे फॉल आर्मीवर्म की पड़ताल करते कृषि वैज्ञानिक। फाइल फोटो : जिंका नागाराजू

फॉल आर्मीवर्म यानी एफएडब्ल्यू भारत में पहली बार पिछले साल (2018) जून में कर्नाटक में देखा गया था और तब से अब तक यह 11 राज्यों की फसलों पर हमला बोल चुका है। यह संक्रमण पहले कर्नाटक से होते हुए दक्षिण के सभी राज्यों में अपने पैर फैला चुका है। उसके बाद पश्चिमी महाराष्ट्र-गुजरात व अब पूर्वोत्तर राज्य भी इसके चपेट में हैं। तेजी से फैलने के अलावा एफएडब्ल्यू नई फसलों पर भी हमला बोल रहा है। हालांकि यह मुख्यतया मक्के की फसल में पाया जा रहा है (अनुमान है कि इसने लगभग 1,70,000 हेक्टेयर मक्के की फसलों को नुकसान पहुंचा चुका है) लेकिन अन्य राज्यों से आ रही खबरों के अनुसार इसने धान, गन्ने और मक्के की फसलों को भी प्रभावित किया है। चावल और गेहूं के बाद मक्का भारत में तीसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल है। भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन में मक्के की फसल का हिस्सा नौ प्रतिशत है।

एफएडब्ल्यू के बारे में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अधिकारी अधिकृत रूप से कुछ भी बोलने से कतरा रहे हैं लेकिन कई अधिकारियों ने दबे स्वर यह स्वीकारा है कि यह एफएडब्ल्यू भारत पहुंच चुका है। इस संबंध में मंत्रालय ने कुछ दिशा-निर्देश भी प्रभावित राज्यों को जारी किए हैं। एफएडब्ल्यू को सर्वप्रथम बार एम़ कल्लेश्वर स्वामी और शरणबसप्पा नामक कीट वैज्ञानिकों की पकड़ में शिमोगा (कर्नाटक) के कृषि एवं बागवानी विज्ञान विश्वविद्यालय में आया। यह अनुसंधान के लिए उगाई जा रही मक्के की फसल में पाया गया था। पिछले साल मानसून से ठीक पहले राज्य के चिकबल्लापुर जिले के मक्का किसानों ने नैशनल ब्यूरो ऑफ ऐग्रीकल्चरल इंसेक्ट रिसोर्सेज (एनबीएआईआर) ब्यूरो के वैज्ञानिक ए़ एन. शैलेश  को एक अनजान कीट के संक्रमण की सूचना दी थी। शैलेश को लगा कि यह संक्रमण ट्रू आर्मीवर्म का है लेकिन इसकी भयावहता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने सहकर्मी एस.के. जलाली के साथ मिलकर जुलाई, 2018 में प्रभावित खेतों का दौरा किया और नमूने इकट्ठे किए। महीने के अंत में इस संक्रमण की पुष्टि हुई। देश में अपनी तरह का पहला संक्रमण होने के कारण यह एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। फॉल आर्मी वर्म या स्पोडोप्टेरा फ्रूजिपेर्डा वास्तव में ट्रू आर्मीवर्म से ज्यादा खतरनाक माना जाता है।

आहार में विविधता

दो सेमी लंबा एफएडब्ल्यू 2016 में अमेरिका से अफ्रीका से आया। यह वहां पिछले 100 सालों से मौजूद है। तब से लेकर अब तक यह अफ्रीका एवं एशिया के 50 से अधिक देशों में फैल चुका है। यह प्रमुख रूप से मक्के को ही अपना निशाना बना रहा है। 2018 में इसने यमन और भारत के माध्यम से एशिया पर हमला बोला और अब बंग्ला देश, म्यांमार, नेपाल और चीन में फैल चुका है। तेजी से प्रजनन करने वाला एफएडब्ल्यू पौधों की 300प्रजातियों को प्रभावित कर सकता है, जिनमें से अधिकांश प्रमुख खाद्य फसलें ही हैं। यह अपने आहार में विविधता लाया है और कठोर परिस्थितियों से बचने के लिए प्रवास पर जाने या छिपने में भी सक्षम है। और मौका देखकर हमला करता है।

आचार्य एनजी रंगा एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी (एनजीआरएयू) से संबद्ध आंध्र प्रदेश के इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रंटियर टेक्नोलॉजी (तिरुपति) में कार्यरत फसल शोधकर्ता चिंतित हैं क्योंकि संक्रमण में दिनदूनी रातचौगुनी वृद्धि हो रही है। आंध्र प्रदेश में इसकी पहचान पहली बार अगस्त, 2018 में हुई थी, जब इसने पूर्वी व पश्चिमी गोदावरी जिले श्रीकाकुलम व विजयनगरम के मक्का उत्पादक क्षेत्रों को प्रभावित किया था। एनजीआरएयू के प्रमुख वैज्ञानिक एमजॉन सुधीर कहते हैं, “मक्का गोदावरी जिलों की एक प्रमुख फसल है। अतः इसके गंभीर आर्थिक परिणाम हो सकते हैं। मक्का मवेशियों व मुर्गियों के चारे का एक प्रमुख घटक है और इसके उत्पादन में कमी आने से दुग्ध व मांस उत्पादन में भी कमी आ सकती है।

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति के पास स्थित मलयपल्ली के मक्का किसान भूपति रेड्डी हमेशा से मक्का को किसानों के अनुकूल फसल मानते आए हैं। निवेश कम और बाजार में फसल की मांग हमेशा बनी रहती है। मक्का बेच देने के बाद चारे के लिए (45 -50 टन प्रति हेक्टेयर) भी आसपास की गोशालाएं 2000 रुपए प्रति टन तक देती हैं। वह बताते हैं, “मैं इस मौसम में इन कीटों को नियंत्रित करने के लिए पहले ही 20,000 रुपए खर्च कर चुका हूं लेकिन इसके बावजूद अब तक इससे निजात नहीं मिल पाई है।” कृषि अधिकारियों ने फसल के रोटेशन का सुझाव दिया लेकिन यह संक्रमण बाकी फसलों को भी अपनी चपेट में ले चुका है।

तमिलनाडु में दो जिलों में गन्ने की फसलों में एफएडब्ल्यू के संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है। कोयम्बटूर स्थित आईसीएआर गन्ना प्रजनन संस्थान के निदेशक बख्शी राम ने दिसंबर, 2018 में राज्य के कृषि निदेशालय को लिखे एक पत्र में कहा था, “हमारे कीट वैज्ञानिकों ने इरोड व करूर जिलों का दौरा किया और एफएडब्ल्यू की पुष्टि की। उन्होंने फसलों को पहुंचे नुकसान के स्तर का भी आकलन किया।” डाउन टू अर्थ  से बात करते हुए राम कहते हैं, “हमारी टीम ने दो जिलों के 4 खेतों में एफएडब्ल्यू की उपस्थिति पाई।

एफएडब्ल्यू महाराष्ट्र में पहली बार 29 अगस्त, 2018 को सोलापुर जिले के तंदुलवाड़ी गांव के किसान गणेश बाबर ने एक मक्के के खेत में देखा। छठवें अनाज निगम के साथ काम कर चुके कीट विज्ञानी अंकुश चोरमुले कहते हैं, “आज 6 महीने बाद एफएडब्ल्यू का संक्रमण विदर्भ, मराठवाड़ा और विशेष रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र में फैल गया है।” वह बताते हैं,“छठवें अनाज निगम द्वारा किए गए सर्वेक्षण में महाराष्ट्र के करीब 15 जिलों में एफएडब्ल्यू की उपस्थिति दर्ज की गई।”

तेलंगाना में आज जो हालात हैं, ऐसे पहले कभी नहीं थे। हालांकि इस इलाके में पारंपरिक रूप से मक्के की खेती नहीं होती लेकिन सूखे से प्रभावित किसानों ने इसे अपनाया है और अब तेलंगाना में करीब 5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मक्के की फसल लगाई जाती है। यह सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी ) व्यवस्था के अंतर्गत भी आती है। एफएडब्ल्यू ने राज्य के हर जिले में मक्के की फसल को प्रभावित किया है। निजामाबाद जिले में स्थिति और बदतर है। यहां के किसान लाल ज्वार और हल्दी (जो  एफएडब्ल्यू की चपेट में आए मक्के की जगह लगाई गई है) के लिए एमएसपी की मांग कर रहे हैं। 16 फरवरी,2019 को सरकार द्वारा लाल ज्वार और हल्दी की खरीद की मांग करते हुए आर्मूर और निजामबाद डिवीजन के हजारों किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 44 पर चक्का जाम कर दिया। इसमें चक्का जाम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मंटेना गांव के अलेति नवीन रेड्डी अब आमरण अनशन की योजना भी बना रहे हैं।

जारी 

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