पराली समस्या पर सरकारी प्रयास अव्यावहारिक, क्या है पर्यावरण हितैषी स्थायी समाधान?

किसान मजबूरी में पराली जलाते हैं, इसलिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने से इसका समाधान नहीं निकलेगा

By Virender Singh Lather

On: Wednesday 18 October 2023
 

भारत सहित पूरी दुनिया के लगभग 80 प्रतिशत किसान धान की पराली जलाते हैं, जिससे गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है। जो हर साल घनी आबादी और ज्यादा औद्योगिक घनत्व वाले भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मेंं अक्टूबर-नवंबर महीने मेंं हवा की गति कम होने और हिमालय से ठंडी हवा आने से बहुत ज्यादा गंभीर हो जाता है। इस वायु प्रदूषण समस्या के समाधान के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें हजारों करोड़़ रुपए खर्चने के बाद भी विफल रही हैं। 
 
किसान क्यों जलाता है पराली?
 
देश मेंं सबसे ज्यादा उपजाऊ और सिंचित उत्तर पश्चिम भारतीय मैदानी क्षेत्र में हरित क्रांति के दौर में (1967- 1975) राष्ट्रीय नीतिकारों द्वारा प्रायोजित धान-गेहूं फसल चक्र ने पिछले पांच दशकों से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और लगभग एक लाख करोड़ रुपए वार्षिक निर्यात को तो सुनिश्चित गया, लेकिन गंभीर भूजल बर्बादी, पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्या को बढाया।
 
सरकार द्वारा फसल विविधिकरण के सभी प्रयासों के बावजुद धान-गेहूं फसल चक्र पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में लगभग 70 लाख हेक्टेयर भूमि पर अपनाया जा रहा है, क्योंकि इन क्षेत्रो में मौसम अनुकुलता और आर्थिक तौर पर गन्ने की खेती के अलावा धान - गेहूं फसल चक्र ही किसानो के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंंद है। (स्रोत: कृषि लागत एवं मूल्य आयोग-गन्ने की मूल्य नीति- चीनी मौसम -2023-24 रिपोर्ट, पेज -76). 
 
उत्तर पश्चिम भारत के प्रदेशो में धान-गेहूं फसल चक्र में लगभग 40 किवंटल फसल अवशेष प्रति एकड पैदा होते है. जिसमें से आधे फसल अवशेष 20 किवंटल प्रति एकड यानि गेहूं के भूसे का प्रबंधन किसानों के लिए कोई खास समस्या नहीं है, क्योंकि पशु चारे के रुप में गेहूं का भूसा फायदेमंद होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी में काफी समय (50-60 दिन) मिलने के कारण, किसान गेहूं भूसे का प्रबंधन आसानी से कर लेते है। 
 
लेकिन बाकि बचे आधे फसल अवशेष यानि धान पराली का प्रबंधन किसानों के लिए वर्षों से गंभीर समस्या बनी हुई है, क्योंकि धान की पराली आमतौर पशु चारे के लिए उपयोगी नहीं होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी में मात्र 20 दिन से कम समय मिलने के कारण, धान की कटाई के बाद पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेंत अन्य राज्यों मेंं बड़ी मात्रा मेंं किसान पराली जलाते हैं।
 
इससे अक्टूबर-नवम्बर महीने में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित जम्मू से कोलकता तक के बहुत बड़े क्षेत्र में वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या पैदा होती है, जिस के कारण, पर्यावरण को नुकसान तो पहुंचता ही है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित होती है।  
 
धान पराली का बायो-डीकम्पोजर आदि अव्यावहारिक उपाय नहींं है समाधान
 
पराली जलाने की घटनाओं को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश सरकारें/वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग, किसानो पर जूर्माना लगाने, बायों-डीकंपोजर से पराली गलाने, जैसे अव्यावहारिक प्रयास कर रही हैं. ज़िनके अभी तक कोई सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिले है।
 
पूसा डीकंपोजर के प्रायोजक पूसा संस्थान का मानना है कि डीकंपोजर घोल के छिड़काव से 25 दिन बाद पराली कुछ नरम तो होती है, लेकिन इसे पूर्णयता गलने के लिए सात सप्ताह (50 दिन) का समय चाहिए और बायो- डीकंपोजर कभी भी मशीनीकरण द्वारा पराली प्रबंधन का विकल्प नहीं बन सकता है।
 
वहीं पंजाब कृषि विश्वविद्याालय द्वारा किये गये अनुसंधान बताते है कि बायो-डीकंपोजर छिडकाव से कोई खास लाभ नहीं होता, जबकि धान कटाई के बाद गहरी जुताई द्वारा पराली को भूमि में दबाने और खेत में समुचित नमी बनाए रखने से, बिना बायो-डीकंपोजर छिड़काव भी पराली 7 सप्ताह में ही गल जाती है। (अंतराष्ट्रीय जर्नल ऑफ रिसाईक्लिंग ऑफ ऑर्गेनिक वेस्ट , 13 नवम्बर 2022 संस्करण)।
 
पराली को भूमि में दबाना है पर्यावरण हितैषी स्थाई समाधान
 
धान पराली व फसल अवशेष प्रबंधन पर सभी अनुसंधान और तकनीकी रिपोर्ट इस बात पर एकमत है कि मशीनीकरण द्वारा फसल अवशेषों को खेत से बाहर निकाल कर उद्योगों आदि मेंं उपयोग करना इसका सर्वोतम समाधान है। जैसा कि अमेरिका आदि देशों मेंं वर्षों से हो रहा है।
 
लेकिन भारत मेंं भूमि की छोटी जोत होने से किसानों के लिए भारी मशीन ख़रीदना सम्भव नहींं है। ऐसी हालत मेंं धान कटाई के बाद पराली को भूमि मेंं मिलना ही व्यावहारिक समाधान बनता है। लेकिन यह तभी सम्भव हो सकेगा, जब पराली को भूमि के अन्दर दबाने और गलने के लिए 45-50 दिन समय मिलेगा।
 
इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों और राष्ट्रीय नीतिकारों को उत्तर पश्चिम भारत के लिए, धान की खेती के लिए किसान और पर्यावरण हितेषी नयी तकनीक और बुआई कलेंडर आदि विकसित करने होंगे। पराली प्रदूषण और भूजल बर्बादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली किस्में एक सस्ता और कारगर उपाय है।
 
धान फसल की कटाई और रबी फसलों जैसे गेहूं , सरसों, आलू आदि की बुआई की तैयारी में कम समय मिलने के कारण ही किसान मजबूरन धान पराली जलाते है, जिसके लिए राष्ट्रीय नीतिकारों को पराली प्रदूषण और भूजल बर्बादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों (जैसे पी.आर.-126 , पी. बी.-1509 आदि) को प्रोत्साहन एक कारगर उपाय साबित होगा और लम्बी अवधि की किस्मों पूसा-44 आदि पर कानुनी प्रतिबंध जरुरी है।
 
इसमें धान फसल की बुआई 20 मई से शुरू हो कर, फसल की कटाई 30 सितम्बर तक पूरी हो जाती है। उलेखनीय है कि रोपाई पद्धति के मुकाबले सीधी बिजाई में धान की सभी किस्में 10 दिन जल्दी पक कर तैयार हो जाती है, जिस कारण गेहूं फसल बुआई से पहले किसान को लगभग 45-50 दिन का समय धान पराली व फसल अवशेष प्रबंधन के लिए मिलता है।
 
इसका सदुपयोग करके, किसान गेहूं - धान फसल चक्र में हरी खाद के लिए ढ़ेंचा, मूंग आदि फसल भी उगा सकते है, जिससे पराली जलाने से पैदा होने वाले पर्यावरण प्रदूषण में कमी आएगी, भूमि की ऊर्वरा शक्ती बनाए रखने में मदद मिलेंगी और रसायनिक उर्वरको पर निर्भरता भी कम होगी।  
 
सरकार इन प्रदेशों में अगर धान की सरकारी खरीद की समय सारणी 15 सितम्बर से 10 अक्टूबर तक का समय निश्चित करे, तो किसान स्वयं धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मो को ही अपनाएंगे, इससे लगभग एक तिहाई भूजल, ऊर्जा ( बिजली- डीजल- मजदूरी) और खेती लागत में बचत के साथ पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा। इन प्रदेशों में लगभग 90 प्रतिशत धान की कटाई व गहाई कंबाईन हारवेस्टर मशीनों द्वारा किराये पर होती है। सरकार कानून बनाकर, पराली को भूमि में दबाने की जिम्मेंवारी भी कंबाइन हारवेस्टर मालिक की निश्चित करे। 
 
इस वर्ष खरीफ 2023 सीजन में, हरियाणा सरकार द्वारा धान की सीधी बिजाई को प्रोत्साहन योजना के सकाराात्क नतीजे के कारण, प्रदेश के किसानों ने तीन लाख एकड़ से ज्यादा भूमि पर धान की सीधी बिजाई विधि को अपनाया। जिसके परिणाम स्वरूप 30 सितम्बर 2023 तक प्रदेश की मंडीयो में आठ लाख टन धान बिकने के लिए आया। जो पर्यावरण हितेषी धान की सीधी बिजाई विधि में किसानो के विश्वास को दर्शाता है।
 
(लेखक वीरेन्द्र सिह लाठर, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं।) 
 

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