खाद्य प्रणालियों को फिर से तैयार करना होगा

जलवायु परिवर्तन का संकट मानव निर्मित है। हम जलवायु-जोखिम वाले विश्व में कृषि के वर्तमान मॉडल के साथ आगे नहीं बढ़ सकते

By Sunita Narain

On: Thursday 07 December 2023
 
इलेस्ट्रेशन: योगेंद्र आनंद/सीएसई

जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए कृषि के वर्तमान मॉडल पर की जाने वाली चर्चाओं का दौर बढ़ रहा है। यह सच है कि कृषि आज कई प्रकार से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान करती है। जैसे चावल की खेती व पशुधन से मीथेन उत्सर्जन और खेतों पर सिंथेटिक उर्वरकों और खाद के उपयोग से नाइट्रस ऑक्साइड के माध्यम से उत्सर्जन।

यहां तक कि ताड़ के तेल का उत्पादन करने के लिए वर्षावनों सहित जंगलों की बड़े पैमाने पर कटाई से जलवायु-जोखिम वाली दुनिया का संकट और बढ़ गया है। इसके अलावा खाद्य प्रसंस्करण और बिक्री के लिए बहु-महाद्वीपीय परिवहन व्यवस्था आदि।

यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह क्षेत्र चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। तो फिर, नई योजना क्या होनी चाहिए?

अभी तक अधिकांश डेयरी किसान व्यक्तिगत रूप से ही काम करते हैं, अपने पशुओं के लिए खुले रूप में ही फीडिंग का उपयोग करते हैं। उनके फार्म एग्रोसिल्वोपास्टोरल सिस्टम (भूमि-उपयोग की वह तकनीक है जो पेड़ों और फसलों को पशुधन पालन में शामिल करती है) पर आधारित हैं।

लेकिन अब ये तेजी से बदल रहा है। किसान तेजी से महंगे संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। जैसे उर्वरक से लेकर बीज और कीटनाशक तक। इससे उन पर कर्ज का बोझ बढ़ जाता है, जिससे वे फसल के नुकसान और चरम मौसम के प्रभावों के प्रति और भी अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।

तो, हमारी जलवायु-जोखिम वाली दुनिया में आजीविका-पोषण-प्रकृति सुरक्षा के लिए कृषि मॉडल के तत्व इस प्रकार हैं। सबसे पहले, यह एक कम संसाधन आधारित मॉडल होना चाहिए जो किसान को कई जोखिमों से बचाए। इससे किसानों के हाथों में अधिक पैसा भी आएगा, खासकर जब हम जानते हैं कि अधिकांश देशों में भोजन की उच्च लागत वहन करने योग्य नहीं है।

यहां तक कि जिसे स्मार्ट कृषि के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है, वह उच्च लागत वाले संसाधनों पर निर्भर करती है, जो खेती की लागत को बढ़ाती है। तर्क यह दिया गया है कि इस रणनीति से अधिक पैदावार होगी, जिससे किसान को अधिक आय मिलेगी। लेकिन यह तभी काम करता है जब लागत मुनाफे को खत्म न कर दे।

छोटे किसानों के मामले में यह संभव नहीं है। हालांकि, पैदावार बढ़ाने के लिए मिट्टी के स्वास्थ्य पर काम करने और किसानों को सिंचाई उपलब्ध कराने की जरुरत होगी, जब उन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता हो। जलवायु परिवर्तन नए कीट भी लाएगा।

इससे कृषि का लचीला होना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन इसका मतलब कीटनाशकों का उपयोग बढ़ाना नहीं है। इसका मतलब कृषि की प्रथाओं में बदलाव के साथ-साथ गैर-रासायनिक विकल्पों का उपयोग भी हो सकता है और होना भी चाहिए।

लब्बोलुआब यह है कि जलवायु लचीलेपन के लिए सामना करने, उबरने और अंततः किसानों के हाथों में अधिक रिटर्न देने की अधिक आवश्यकता होती है। इसका मतलब उन बाजारों में निवेश करना भी है जो किसानों को अधिकतम लाभ कमाने के अवसर प्रदान करें।

दूसरा, कृषि को जोखिम न्यूनीकरण के सिद्धांत पर बनाना होगा। इसका मतलब होगा कि बहु-फसल प्रणाली को बढ़ावा देना। इससे जैव विविधता को भी बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि किसान खेत में एक से अधिक फसल उगाएंगे।

पशुधन अर्थव्यवस्था को सुनिश्चित बनाना होगा क्योंकि यह जोखिम के प्रबंधन की अनुमति देगा ताकि विभिन्न स्रोतों से आय हो सके। तीसरा, ऐसी फसलों का चयन करना जो पौष्टिक होने के साथ-साथ स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल भी हों।

दूसरे शब्दों में जहां पानी की कमी है, वहां किसानों को बाजरा जैसी जल संरक्षण वाली फसलें उगानी चाहिए।

लेकिन यह विकल्प किसान के हाथ में नहीं है। सरकारों को इन फसलों की खेती को बढ़ावा देने के लिए खरीद से लेकर कीमत तक की नीतियों को सही बनाना होगा।

उदाहरण के लिए, अधिक जैव विविधता और जलवायु-उपयुक्त बाजरा किसानों द्वारा उगाया जाएगा, जहां सरकारों ने उन्हें मध्याह्न भोजन जैसी योजनाओं में शामिल किया है (यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में से एक है, क्योंकि इसका उद्देश्य हर स्कूल में गर्म पका हुआ भोजन उपलब्ध कराना है)। जलवायु-लचीलेपन की दिशा में फसल पैटर्न में बदलाव के लिए इस सहायक संरचना की आवश्यकता होगी।

चौथा और सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है कि किसान जो अन्न उगाते हैं उसका विकल्प उपभोक्ताओं के हाथों में है। यदि हम अपना आहार बदलते हैं, तो यह किसान को अलग तरह से बढ़ने के संकेत प्रदान करता है।

हम जानते हैं कि भोजन औषधि है, फिर भी हम गलत खाना खाते रहते हैं। हमारी थाली में मौजूद भोजन में पोषण के तत्व खत्म हो गए हैं। हमें अच्छे भोजन का ज्ञान खोने का खतरा बढ़ गया है, जो हमारी दादी-नानी अलग-अलग मौसमों में पकाती थीं।

यही कारण है कि हमें इस बदली हुई कृषि का हिस्सा बनना चाहिए। जलवायु परिवर्तन संकट मानव निर्मित है। यह इंसान ही हैं जिन्होंने ऐसे उत्सर्जन में योगदान दिया है जो हमारे वर्तमान और हमारे बच्चों के भविष्य के अस्तित्व को खतरे में डालता है। यह हम ही हैं जिन्हें अपने जीवन पर फिर से काम करना चाहिए। सच तो यह है कि हम जलवायु-जोखिम वाले विश्व में कृषि के इस मॉडल के साथ आगे नहीं बढ़ सकते।

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