शहद से संवरा किसान

आज भरतपुर देश के सबसे अधिक शहद उत्पादक जिलों में शामिल है। पूरे राजस्थान में उत्पादित शहद का करीब एक तिहाई भरतपुर से ही आता है। 

By Bhagirath Srivas

On: Thursday 15 February 2018
 
भरतपुर के नगला कल्याण गांव में कालोनी की देखभाल करते मधुमक्खी पालक

कभी मधुमक्खियां देखकर बिदकने वाले भरतपुर के किसानों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यही मधुमक्खियां उनके लिए समृद्धि के रास्ते खोलेंगी। आज भरतपुर देश के सबसे अधिक शहद उत्पादक जिलों में शामिल है। पूरे राजस्थान में उत्पादित शहद का करीब एक तिहाई भरतपुर से ही आता है।

शहद से संपन्नता की सीढ़ियां चढ़ने वाले नगला कल्याण गांव के 44 साल के किसान हरदयाल सिंह बताते हैं, “सारे खर्चे निकालकर सालाना 10 लाख रुपए बच जाते हैं। मेरे बेटे ने एनआईटी में पढ़ाई की है और उसकी 12 लाख के सालाना पैकेज पर नौकरी लग गई है। घर में चार पहिए की गाड़ी और एक मोटरसाइकल है। मैंने हिंदी में एमए और बीएड की पढ़ाई की है।” हरदयाल सिंह ने 17 साल पहले मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन से जुड़ने का फैसला किया था। प्राथमिक शिक्षक की नौकरी से त्यागपत्र देकर हरदयाल सिंह ने मधुमक्खियों के आठ बॉक्स (इसे कॉलोनी कहा जाता है) से इस कारोबार में कदम रखा था। ये बॉक्स वह हिमाचल प्रदेश से लाए थे। लाभ बढ़ने के साथ-साथ उनके ये बॉक्स बढ़ते चले गए और आज इनकी संख्या 550 तक पहुंच गई है। वह हर साल 121 क्विंटल शहद का उत्पादन कर रहे हैं, करीब 40 मधुमक्खी पालकों को रोजगार भी मुहैया करा रहे हैं। उनका अगला लक्ष्य मिनी प्रोसेसिंग प्लांट लगवाना है।

हरदयाल सिंह की देखादेखी गांव के अन्य किसानों ने भी मधुमक्खी पालन को अपना लिया है। जगदीश प्रसाद भी इनमें से एक हैं। उन्होंने शहद के व्यवसाय को अतिरिक्त आय के लिए शुरू किया था लेकिन अब यह उनकी आमदनी का मुख्य जरिया बन गया है। वह बताते हैं कि कृषि शहद के कारोबार के आगे फेल हो चुकी है। शहद बेचकर वह 5 लाख रुपए का शुद्ध लाभ कमा रहे हैं। खेती से इतना मुनाफा कमाना संभव नहीं है।

नगरिया कासौट गांव के रहने वाले 46 वर्षीय मुकेश चंद की कहानी भी जुदा नहीं है। शहद उत्पादन से उनका वार्षिक टर्नओवर 77 लाख रुपए है। सारे खर्च निकालकर हर साल उनके 25-30 लाख रुपए बच जाते हैं। 770 क्विंटल शहद के अलावा वह हर साल 10-15 क्विंटल मोम का भी उत्पादन कर रहे हैं। मुकेश चंद बताते हैं कि उन्होंने साल 2003 में 7 बॉक्स के साथ इस व्यवसाय में कदम रखा था। आज उनके पास 3,500 बॉक्स हैं। उनका एक बेटा जयपुर में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहा है जबकि दो अन्य बेटे नामी प्राइवेट स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।   

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार, साल 2016-17 में देशभर में 94,500 मीट्रिक टन का शहद का उत्पादन हुआ। पिछले चार सालों में शहद उत्पादन करीब 30 प्रतिशत बढ़ा है। अगर राजस्थान की बात करें तो यहां 2016-17 में 6,000 मीट्रिक टन शहद का उत्पादन हुआ है। 2013-14 में यह उत्पादन 1,800 मीट्रिक टन था। 2014-15 (2,200 मीट्रिक टन) के मुकाबले 2015-16 (4,600 मीट्रिक टन) में  राजस्थान ने शहद उत्पादन दोगुने से अधिक कर लिया है। राज्य के अकेले भरतपुर जिले में 1,800 मीट्रिक टन शहद निकाला जा रहा है। राजस्थान में शहद उत्पादन की दर सबसे अधिक है।

 यूपी से कॉलोनी लेकर भरतपुर पहुंचे युवक शहद निकालते हुए

कृषि और प्रसंस्करण खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण के अनुसार, साल 2016-17 में 45,538 मीट्रिक टन शहद भारत से विदेशों में निर्यात किया गया। इसका कुल मूल्य 563 करोड़ रुपए था। देश भर में करीब 2.5 लाख किसान शहद के व्यवसाय से जुड़े हैं। अकेले भरतपुर में इस व्यवसाय में 3,000 लोग शामिल हैं। मंत्रालय के अनुसार, शहद उत्पादन के क्षेत्र में राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब, हिमाचल प्रदेश भी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। मंत्रालय के अनुसार, 17,000 मीट्रिक टन शहद का उत्पादन कर उत्तर प्रदेश पहले जबकि राजस्थान देश में पांचवे स्थान पर है। 

शहद उत्पादन को देखते हुए भरतपुर में तीन प्रसंस्करण संयंत्र भी चालू हो गए हैं। बृज हेल्थ केयर एवं बृज हनी प्राइवेट लिमिटेड नाम से प्रोसेसिंग प्लांट यहां 2006 में स्थापित किया गया था। इस प्लांट को शुरू करने वाले रामकुमार गुप्ता ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उनका प्लांट भारत का सबसे बड़ा हनी प्रोसेसिंग प्लांट है। यहां हर साल 12,000 मीट्रिक टन शहद प्रोसेस होता है। गुप्ता बताते हैं कि उनका शहद अमेरिका, कनाडा, लीबिया, सऊदी अरब आदि देशों में भेजा जाता है।

कैसे हुई शहद क्रांति

भरतपुर स्थित सरसों अनुसंधान निदेशालय के निदेशक पीके राय बताते हैं कि जिले में शहद उत्पादन में जो क्रांति आई है, उसने जिले को “हनी बाउल” यानी शहद का कटोरा बना दिया है। उन्होंने बताया, “भरतपुर में पानी खारा होने के कारण सरसों की सबसे अधिक खेती होती है। यहां करीब 5 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है। इसमें से करीब 2.5 लाख हेक्टेयर जमीन पर सरसों की खेती होती है। यह खेती पहले मजबूरी थी जो अब मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन में वरदान बन गई है।”  उन्होंने बताया कि शहद उत्पादन की संभावनाओं को देखते हुए किसानों को प्रशिक्षण देते हैं। किसानों का आय में इजाफा करने में मधुमक्खी पालन अहम योगदान दे सकता है। इस काम में लागत ज्यादा नहीं। बॉक्स खरीदने पर भी सरकार 40 प्रतिशत अनुदान देती है।

भरतपुर में मधुमक्खी पालन की कहानी सबसे पहले 1992-93 में शुरू हुई थी। 1988 से जिले में काम कर रही संस्था लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन की पहल से किसानों को अतिरिक्त आय उपलब्ध कराने के लिए इस व्यवसाय को शुरू किया गया था। शुरु में जानकारी की कमी के कारण उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली। लुपिन ने 1997 में इस सिलसिले में वैज्ञानिक तरीके से कार्यक्रम चलाया और लोगों को प्रशिक्षण दिया। लुपिन के अतिरिक्त मुख्य परियोजना समन्वयक भीम सिंह उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि किसानों को इसके लिए तैयार करना आसान नहीं था।

बृज हेल्थ केयर प्रसंस्करण संयंत्र  में  शहद की पैकिंग करते  कर्मचारी (फोटो: विकास चौधरी)

किसानों को डर था कि मधुमक्खी पालन से उनकी फसल कमजोर हो जाएगी और वे बच्चों को भी काट लेंगी। काफी समझाने के बाद कुछ किसान राजी हुए। उन्हें बॉक्स खरीदवाए गए और लोन भी दिलवाया गया। किसानों को लोन की राशि 3-4 साल में लौटानी थी लेकिन फायदा हुआ तो उन्होंने दो साल में ही लोन चुकता कर दिया। एक घटना का जिक्र करते हुए भीम सिंह बताते हैं कि सेवर ब्लॉक के किसान लक्ष्मण सिंह 2001-02 में मधुमक्खी पालन को अपनाया तो उनके बेटे की शादी टूट गई। दरअसल किसी ने लड़की वालों को बता दिया था कि लक्ष्मण सिंह मधुमक्खी पालते हैं और अगर वह अपनी लड़की की उनके घर शादी करेंगे तो उसे मधुमक्खी काट खाएंगी।

किसानों को यह डर भी था कि मधुमक्खियां फसलों का रस चूस लेंगी जिससे वह कमजोर हो जाएगी। इन किसानों को लुपिन और निदेशालय के वैज्ञानिकों ने समझाया कि मधुमक्खियों से फसल कमजोर नहीं होगी बल्कि 10-15 प्रतिशत उत्पादन बढ़ जाएगा क्योंकि मधुमक्खियों के परापरागण से फसल अच्छी होती है। भीम सिंह का कहना है कि हमने लोगों को समझाया कि अगर फसल को नुकसान होता है तो वह उसकी भरपाई करेंगे और अगर मधुमक्खी किसी को काटती हैं तो उसे 50 रुपए देंगे। धीरे-धीरे ये बातें किसानों के समझ में आ गईं और वे इस व्यवसाय से जुड़ने लगे। फिलहाल भरतपुर में करीब 3,000 लोग इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। इस व्यवसाय ने बॉक्स बनाने वालों और प्रसंस्करण से जुड़े लोगों को भी रोजगार दे दिया है।

राय बताते हैं कि सरसों के फूलों से पर्याप्त मात्रा में मकरंद मिल जाता है। भरतपुर में इसी दौरान ज्यादातर शहद बनता है। फसल के दौरान दूसरे राज्यों के मधुमक्खी पालक भी बॉक्स खेतों के पास रख देते हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आए ऐसे ही मधुमक्खी पालक प्रमोद कुमार ने बताया कि वह 200 बॉक्स लेकर यहां आए हैं। उन्हें उम्मीद है कि वह यहां पर्याप्त मात्रा में शहद एकत्रित कर लेंगे।

न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग

भरतपुर में शहद उत्पादन से जुड़े किसान इस व्यवसाय से खुश तो हैं लेकिन कुछ समस्याएं भी उन्हें परेशान करती है। सबसे बड़ी समस्या शहद के दाम की है। इस वक्त बाजार में शहद 75-80 रुपए के दाम पर उन्हें बेचनी पड़ रही है। किसानों का कहना है कि यह दाम अभी कम हैं। कंपनियां उनसे सस्ते दाम पर शहद लेकर ऊंचे दामों पर बेचती हैं। पीके राय भी इसे बड़ी समस्या मानते हैं। उनका कहना है कि अब वक्त आ रहा है कि सरकार शहद का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करे ताकि किसानों को एक निश्चित दाम सुनिश्चित हो सके। भीम सिंह का भी कहना है कि सरकार कम से कम 100 रुपए प्रति किलो शहद का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर दे तो मधुमक्खी पालन से जुड़े किसानों को राहत मिलेगी। भरतपुर में शहद 100 से 150 रुपए तक बिक चुका है लेकिन इस वक्त दाम काफी गिर गए हैं।

स्रोत: कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय

एक अन्य समस्या स्थानांतरण (माइग्रेशन) है। दरअसल भरतपुर में सरसों की खेती के दौरान ही शहद का व्यवसाय फलता-फूलता है। इसके बाद किसानों को मधुमक्खी के बॉक्स दूसरे राज्यों में ले जाने पड़ते हैं। रहीमपुर गांव के किसान ओमवीर सिंह ने बताया कि बॉक्स लेकर हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड और जम्मू-कश्मीर तक जाना पड़ता है। रास्ते में पुलिस परेशान करती है। हरदयाल का कहना है कि इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को अगर सरकारी प्रमाणपत्र मिल जाए तो इस परेशानी से निजात मिल सकती है। वह बताते हैं कि सरकार ने इस व्यवसाय को अभी लघु उद्योग कृषि व्यवसाय में शामिल नहीं किया है और साथ ही बाजार उपलब्ध कराने पर भी गौर नहीं किया है। व्यवसाय से जुड़े लोग दाम के लिए पूरी तरह कंपनियों और उनकी मनमानियों पर आश्रित हैं।

भीम सिंह बताते हैं, “शहद से जुड़े किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए जरूरी है कि सरकार बाजार उपलब्ध कराए और न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर शहद की खरीदारी करे। आंगनवाडी और मध्याह्नन भोजन में शहद शामिल किया जाना चाहिए। इससे जहां बच्चों को शुद्ध शहद मिलेगा और उनके स्वास्थ्य बेहतर होगा, वहीं किसान भी समृद्ध होगा। इसके अलावा ट्रेनों और हवाई जहाजों में दिए जाने वाले भोजन में भी इसे अनिवार्य करना चाहिए।”

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रिसर्च इन अप्लाइड नैचुरल एंड सोशल साइंसेस में 2014 में प्रकाशित तरुनिका जैन अग्रवाल के शोधपत्र के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति शहद की खपत केवल आठ ग्राम है जबकि जर्मनी में यह 1,800 ग्राम है। लुपिन के निदेशक सीताराम गुप्ता कहते हैं कि सरकार अगर इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को संगठित कर उन्हें बाजार मुहैया करा दे तो किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य हासिल करने में यह क्षेत्र अहम योगदान दे सकता है।

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