स्वच्छ गंगा: सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की चुनौतियां, मॉनसून में पड़ जाते हैं ठप

गंगा नदी घाटी में बने शहरों में सीवर ट्रीटमेंट प्लांट न होना तो एक समस्या है ही, साथ ही बाढ़ की स्थिति में हालात और बिगड़ जाते हैं 

By Shantanu Kumar Padhi, Rahul Mankotia, Raju Sajwan

On: Friday 11 October 2019
 
Photo: Vikas Choudhary

“यूपी: त्रिवेणीसंगम के पास निचले इलाकों में गंगा, यमुना नदी का जल स्तर बढ़ने के कारण बाढ़ आ गई

उत्तर प्रदेश में, गंगा का बहाव खतरे के निशान के करीब है, आसपास के घरों में पानी घुसा

बिहार में फिर से आई बाढ़, भारी बारिश से नदियों ने तोड़ा किनारा”

ये कुछ सुर्खियां हैं जो गंगा के बेसिन (घाटी) में हर मानसून के दौरान समाचार पत्रों में सामान्य रूप से पढ़ी जाती हैं।

जब भी प्रकृति और बाढ़ की बात आती है, तो हाल के इतिहास ने हमें सिखाया है कि पानी कितनी जल्दी अपने किनारों को बहा सकता है। कभी सोचा है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में पानी की उपयोगिताओं का क्या होता है।

हाल ही में आई बाढ़ की घटनाओं के दौरान एक प्रमुख चिंता आकस्मिक बाढ़ की रही। ऐसी बाढ़ की वजह से पीने के पानी और वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट (अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र) पर सीधा असर पड़ता है, इसलिए इसे एक बड़ी समस्या मानते हुए सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह भी सच है कि इस तरह की बाढ़ गंगा बेसिन के लिए आम खतरा बन गई है।

बाढ़ का असर समुदाय पर पड़ सकता है। उफनती नदियों के बांध टूटने से आने वाली बाढ़ से स्थानीय लोग और उनका कारोबार बुरी तरह प्रभावित होता है। बिजली संकट, संपत्ति का नुकसान के साथ वेस्ट वाटर और पीने के पानी की सुविधाओं पर इस बाढ़ का बुरा प्रभाव पड़ता है। भारी बाढ़ कई तरह से ट्रीटमेंट प्लांट्स को नुकसान पहुंचाती है।

एक ट्रीटमेंट प्लांट को उस समय ज्यादा खतरा होता है, जब वे किसी निचले इलाके में होता है और आसपास कोई जलाशय (वाटर बॉडी) होती है। गुरूत्वाकर्षण के कारण बाढ़ का पानी यहां भारी वेग से आता है। वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट में लगे पंप स्टेशन भी ढंग से काम नहीं कर पाते, इससे बाढ़ और बढ़ जाती है।

हालांकि, ट्रीटमेंट प्लंट के लिए जगह का चयन करते हुए जीआईएस मैपिंग की जाती है, लेकिन बाढ़ संभावित इलाके या निचले इलाकों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसी जगहों को इसलिए भी सही माना जाता है, क्योंकि निचले इलाके में होने के कारण गुरुत्वाकर्षण की वजह से पानी का फ्लो भी इन ट्रीटमेंट प्लांट की तरफ रहता है। इससे ट्रीटमेंट प्लांट बनाना सस्ता भी पड़ता है। कई शहरों में ये निचले इलाके वाले क्षेत्र अतिक्रमण से मुक्त होते हैं या यहां कोई विवाद नहीं होता, इसलिए भी स्थानीय निकायों के लिए यहां ट्रीटमेंट प्लांट आसान रहता है।

एक ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के लिए काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। हालांकि, एक ट्रीटमेंट प्लांट बनाते वक्त यह ध्यान रखा जाता है कि बाढ़ के हालात में क्या किया जाएगा, बावजूद इसके मॉनसून के दौरान ये ट्रीटमेंट प्लांट बंद रहते हैं और नगर निकायों को यह छूट दे दी जाती है कि वे शहर से निकलना वाला मल कीचड़ नदी में प्रवाहित कर सकें। यह मान लिया जाता है कि नदी का तेज बहाव यह मल कीचड़ भी बहा ले जाएगा। इसलिए मॉनसून के दौरान गंगा में बड़ी तादात में मल कीचड़ सीधे प्रवाहित किया जाता है।

सेंटर फॉर साइं स एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) की टीम ने शहर में स्वच्छता की स्थिति का अध्ययन करने के लिए इस साल अगस्त और सितंबर के महीने में प्रयागराज का दौरा किया। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि शहर में सीवरेज नेटवर्क को एक मिशन मोड पर रखा गया है, टीम का मुख्य फोकस शहर के बाहरी क्षेत्रों का अध्ययन करना था।

अध्ययन के दौरान सीएसई की टीम ने पाया कि सलोरी में लगा 14 एमएलडी क्षमता का सीवर ट्रीटमेंट (एसटीपी) और नैनी में लगे एसटीपी को छोड़कर अन्य सभी एसटीपी बंद थे। जबकि उससे पहले के हफ्तों में प्रयागराज में कोई बड़ी बारिश नहीं हुई थी। एसटीपी के बंद होने का कारण गंगा के जल स्तर में वृद्धि होना बताया गया, क्योंकि इससे बैक फ्लो होने का खतरा होता है। इससे यह साफ है कि सीवर डिस्चार्ज के लिए करीबी निचला इलाका तो बेहतर है, इसके फायदे भी हैं, लेकिन नुकसान भी हैं।

जब हमारी टीम ने एफएसटीपी की साइट पहचान के लिए चुनार का दौरा किया था, तो हमने पाया था कि एसटीपी के लिए प्रस्तावित साइट बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्र में थी।

समस्या इसलिए भी जटिल हो जाती है कि गंगा बेसिन में बने एसटीपी में सीवरेज नेटवर्क से आने वाले सीवर को ही ट्रीट नहीं किया जाता है, बल्कि खुले नाले में आने वाले कीचड़ को भी ट्रीट किया जाता है, यह उन इलाकों से आता है, जहां सीवरेज नेटवर्क नहीं है। इन नालों को रोकने या डायवर्ट करने की व्यवस्था होना चाही। ऐसे में यह बेहतर रहता है कि एसटीपी फाइनल डिस्पोजल प्वाइंट के पास बनाया जाए।

खुली नालियों में बारिश का पानी होने के कारण जब कीचड़ एसटीपी तक पहुंचता है तो वे ओवरफ्लो हो जाते हैं, क्योंकि उनकी क्षमता उतनी नहीं होती। भारी बारिश के दौरान समस्या और बढ़ जाती है। ऐसे में, स्थानीय निकाय द्वारा यह पानी सीधे  में डाल दिया जाता है।

गंगा में एसटीपी बनाने की दिशा में काम कर रहे इंजीनियरों ने इस समस्या का समाधान खोजने में कड़ी मेहनत की है। ऐसा ही एक उदाहरण इलाहाबाद के राजापुर में 60 एमएलडी एसटीपी का है। यहां बाढ़ को रोकने के लिए एसटीपी के चारों ओर लगभग 10 मीटर ऊंचे तटबंधों का निर्माण किया गया है। जब सीएसई टीम ने इस साल सितंबर में एसटीपी का दौरा किया तो बाढ़ के कारण यह भी बंद था।

गंगा बेसिन में एसटीपी की स्थिति वास्तव में एक चिंता का विषय है, क्योंकि कई एसटीपी का काम सही नहीं है। नेशनल मिशन फॉर क्लीन के तहत गंगा वन सिटी - वन ऑपरेटर मॉडल की शुरुआत की है, जिसमें एक एकल निजी एजेंसी को मौजूदा सीवरेज के ढांचे में सुधार करने और नया सीवरेज इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार का काम सौंपा जा रहा है। प्रयागराज में इस संकट को हल करने की जिम्मेवारी अदानी वाटर्स को दी गई है, जबकि वा-टेक वबाग को आगरा और गाजियाबाद को ठेका दिया गया है। यह काम हाइब्रिड एनुयिटी मॉडल के तहत दिया गया है, जिसमें निजी एजेंसी को कुल राशि का एक हिस्सा देना होता है और उसके बदले अनुबंध की अवधि तक पैसा वसूलती है। हालांकि इसमें जटिल सीवरेज प्रणाली की निगरानी और बेहतर काम करने पर प्रोत्साहन की व्यवस्था की गई है, लेकिन देखना यह है कि बाढ़ की समस्या  से इंजीनियर कैसे निपटते हैं।

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