कुछ कमियों के बावजूद, कॉप 28 ने बढ़ाए कदम

उत्तर और दक्षिण के बीच गहरे विभाजन के बावजूद, इस असुविधाजनक सत्य को पहचाना गया और स्वीकार किया गया कि हमें सहयोग करना होगा और हमें एक साथ आना होगा।

By Sunita Narain

On: Friday 22 December 2023
 
Photo: UNclimatechange / Flickr

जलवायु सम्मेलनों का मुख्य एजेंडा अक्सर वे फैसले होते हैं जो सरकारें जनहित में लेती हैं। लेकिन हाल के समय में हमने देखा है कि जलवायु वार्ता स्वयं अपने अस्तित्व पर आए खतरे से जूझ रही है। पिछले कई दशकों से, विकसित और विकासशील दुनिया के बीच होनेवाली  बातचीत तनाव, टाल-मटोल और गहरे मतभेदों से भरी रही है। उत्सर्जन से निपटने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए हमें कुछ ऐसा करने की आवश्यकता है जिसका प्रभाव वृहद और तात्कालिक हो।

इस वर्ष (2023) दुबई में कॉप 28 ऐसे समय में हुआ जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति तेजी से और पीड़ादायक रूप से जागरूक हो रही है। अब हम दुनिया की सबसे गरीब जनता पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में तो जानते ही हैं साथ ही यह भी स्पष्ट हो चुका है कि अब तक उठाए गए कदम दक्षिण (गरीब) के देशों की अपेक्षाओं और आवश्यक कार्रवाई एवं परिवर्तन के पैमाने के अनुरूप नहीं है। इस पैमाने को हासिल करना तभी संभव है जब समानता और जलवायु न्याय के साथ-साथ प्रदूषण के बिना विकास को फिर से शुरू करने के लिए हमारे पास वित्त भी हो।

मुझे लगता है कि हमने पहली बार तात्कालिकता और संकट का अहसास किया। उत्तर और दक्षिण के बीच गहरे विभाजन के बावजूद, इस असुविधाजनक सत्य को पहचाना गया और स्वीकार किया गया कि हमें सहयोग करना होगा और हमें एक साथ आना होगा।

मुझे लगता है कि कॉप 28 मुद्दों को बदलने के मामले में, विश्वास निर्माण के मामले में और उत्तर व दक्षिण के बीच अविश्वास को सुधारने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया है। दक्षिण के देशों के लिए उपलब्ध कराए जाने वाले कम और रियायती वित्त के मुद्दे पर, आवश्यक कार्रवाइयों पर और विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन को चर्चा का विषय बनाने के सवाल पर वैश्विक नजरिया बदला है। हमें इस बात को समझने की आवश्यकता है कि हम बिना किसी ऐक्शन प्लान के जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के मुद्दे पर बातचीत नहीं कर सकते। 

यह कॉप उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजन को पाटने में भी एक कदम आगे रहा है। ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) की भाषा का मामला लें, जो मेरे लिए पेरिस समझौते की सबसे अप्रिय चीज भी थी जिसमें कहा गया था कि जलवायु न्याय कुछ लोगों के लिए महत्वपूर्ण था, “कुछ के लिए” अब हटा दिया गया है। यह एक बहुत छोटा बदलाव है, लेकिन यह मायने रखता है क्योंकि “कुछ के लिए” का मतलब है कि जलवायु न्याय का सार्वभौमिक मूल्य नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हम सभी महत्वपूर्ण मानते हैं, जो सच नहीं है। पेरिस से दुबई तक दो शब्दों का हटाया जाना सच में महत्वपूर्ण है और इसे स्वीकार करने की आवश्यकता है।

 हमने इस सच्चाई का सामना कर लिया है कि यह प्रक्रिया खर्चीली होने वाली है और हमने जीएसटी टेक्स्ट में अनुकूलन और शमन में वित्तीय अंतर के आंकड़े दे दिए हैं। हम यह भी समझते हैं कि विकासशील देशों पर अतिरिक्त राजकोषीय बोझ डालकर और उनके लिए अधिक ऋण बोझ पैदा करके यह पैसा इकठ्ठा नहीं करना चाहिए। वित्त को अनुदान-आधारित एवं रियायती बनाए जाने की आवश्यकता है।

अब हमें इसे क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। यह सबसे महत्वपूर्ण कदम होगा। सबसे पहले, हमें जलवायु वित्त की मात्रा और गुणवत्ता के बारे में बात करने की जरूरत है। दूसरा मुद्दा जीवाश्म ईंधन का है। पश्चिम कह सकता है कि यह पर्याप्त नहीं है। शायद वे सही हैं, लेकिन जो महत्वपूर्ण है, वह यह है कि पहली बार हमारे अंतिम जीएसटी टेक्स्ट में जीवाश्म ईंधन का उल्लेख है।

मेरे दृष्टिकोण से यह कैसे “पर्याप्त” नहीं है? यह पर्याप्त इसलिए नहीं है क्योंकि हमने यह निर्दिष्ट नहीं किया है कि दुनिया में जीवाश्म ईंधन के लिए शेष बजट के उपयोग में इक्विटी कैसे सुनिश्चित होगी। हमें न केवल जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना होगा, बल्कि इसके विकल्प भी ढूंढने होंगे। हमारे विचार में, उपलब्ध संकेतों के आधार पर इन्हें चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की आवश्यकता है। उपलब्ध संकेत हमें बताते हैं कि 1.5 डिग्री सेल्सियस बजट के भीतर जीवाश्म ईंधन का एक कोटा उपलब्ध है।

अब सवाल यह है कि इसका इस्तेमाल करने का अधिकार किसे है। टेक्स्ट में यह स्पष्ट किया जाना चाहिए था कि जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का दायित्व सबसे पहले उत्तर के देशों पर है, जिन्होंने अपने कार्बन बजट यानि कोटा के अपने हिस्से का अत्यधिक उपयोग किया है। गैस का उपयोग एक-एक संक्रमणकालीन (ट्रांजिशनल) ईंधन के रूप में हो सकता है। इसके उपयोग की अनुमति उन देशों में दी जा सकती है जिन्होंने अपने कोटे का अधिक उपयोग किया है।

 इसके बाद कोयले का सवाल आता है। सीएसई ने हमेशा स्वच्छ कोयले के लिए संघर्ष किया है। यही नहीं, हम दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में कोयले के उच्च स्थानीय प्रदूषण प्रभाव के कारण उस पर प्रतिबंध लगाने के आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। हम कोयले के प्रयोग के पक्षधर नहीं हैं लेकिन हम निश्चित रूप से यह मानते हैं कि तेल और गैस के मुकाबले कोयले पर फोकस अत्यधिक रूप से असंतुलित है। यह मूल रूप से उन देशों पर संक्रमण का बोझ डालता है जो आज अपनी ऊर्जा आपूर्ति के लिए कोयले का उपयोग कर रहे हैं और उनके पास अपने लोगों के लिए सबसे गंदी ऊर्जा का भुगतान करने के लिए भी पैसे नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त नहीं करना चाहिए, लेकिन कोयले के इस चरणबद्ध समापन को वित्तपोषण के सवाल के साथ जोड़ना होगा, इस सवाल के साथ कि ऊर्जा का उपयोग कौन करता है और कहां करता है।

हमने कुछ महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाए हैं, शायद इस समय केवल कथनी में, करनी में नहीं, लेकिन भाषा और कथ्य यह निर्धारित करते हैं कि हम कैसे कार्य करेंगे और हम कैसे और क्यों कार्य करेंगे। चुनौती वास्तव में अब शुरू हो रही है। हमारी आशा यही होनी चाहिए कि दुनिया इस चुनौती का सामना करेगी जो स्पष्ट रूप से एक अस्तित्व संबंधी चुनौती है और हम उत्तर ढूंढेंगे और उस पैमाने और गति से कार्य करेंगे जो आवश्यक है।   

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