पूर्वी अफ्रीका में सूखा : ला-नीना के प्रभाव को बदतर बना रहा जलवायु परिवर्तन
लगातार पांचवीं बार बारिश में कमी के चलते जलवायु परिवर्तन पूर्वी अफ्रीका को अकाल जैसे हालात में धकेल रहा है।
On: Tuesday 14 June 2022
पूर्वी अफ्रीका चार दशकों में सबसे जटिल सूखे का सामना कर रहा है। इस क्षेत्र में बारिश, पिछले चार मौसमों में सबसे कम हुई है और आने वाले अक्टूबर-दिसंबर में यहां असाधारण हालात पैदा होने का पूर्वानुमान है। बारिश का पिछला मौसम यानी मार्च से मई, बीते 70 सालों में इथियोपिया, केन्या और सोमालिया में सबसे ज्यादा सूखे का समय रहा। जून के पहले सप्ताह में, आईजीएडी (इंटरगवर्नमेंटल अथॉरिटी ऑन डेवलपमेंट) जलवायु भविष्यवाणी और अनुप्रयोग केंद्र, खाद्य और कृषि संगठन, अकाल-पूर्व चेतावनी प्रणाली नेटवर्क (एफईडब्ल्यू नेट) और विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) जैसी एजेंसियों ने एक संयुक्त बयान में आने वाले समय में हाल के इतिहास में न देखे गए अकाल की चेतावनी दी। विश्व खाद्य कार्यक्रम के मुताबिक, इन हालातों के चलते पूर्वी अफ्रीका में पहले ही 70 लाख मवेशी अपनी जान गंवा चुके हैं जबकि लगभग दो करोड़ लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं।
असाधारण मौसम के इस हालात की वजह ला-नीना है, जो मध्य और पूर्वी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह के तापमान को प्राकृतिक रूप से बड़े पैमाने पर ठंडा कर रहा है। यह पूर्वी अफ्रीका में सूखे का मौसम और उच्च तापमान ला रहा है। गौरतलब है कि ला-नीना एक मौसम पैटर्न है जो प्रशांत महासागर में होता है। हालांकि जैसा कि विश्व मौसम-विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने 10 जून को अपने बुलेटिन में कहा कि जलवायु की इस घटना का यह दौर असामान्य रूप से लंबा हो गया है। यह 2020 में शुरू हुआ था और इसके 2022 तक बने रहने के आसार हैं, बड़ी संभावना यह भी है कि यह दौर 2023 तक खिंच जाए। अगर ऐसा होता है तो आधी सदी में इस तरह का यह तीसरा दौर होगा। डब्ल्यूएमओ ने अपने बयान में कहा कि प्राकृतिक रूप से होने वाली जलवायु परिघटना के असामान्य नतीजे मिल रहे हैं - ‘जैसे कि ला-नीना का प्रभाव ठंडा होने के बावजूद, ग्लोबल वार्मिंग के चलते कई देशों में तापमान बढ़ता जा रहा है।’
जुलाई 2011 और अगस्त 2011 में एक मजबूत ला-नीना के चलते पूर्वी अफ्रीका में साठ सालों का सबसे भयंकर सूख पड़ा था और संयुक्त राष्ट्र ने तीस सालों के अंतराल के बाद इस क्षेत्र में अकाल घोषित किया था। आज के हालात उसी स्तर की आरे बढ़ते नजर आ रहे हैं। सोमालिया की 50 फीसदी आबादी खाद्य- असुरक्षा का सामना कर रही है, जिसका भयावह नतीजा भुखमरी के चलते हजारों लोगों की मौत के रूप में निकल सकता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव के उप विशेष प्रतिनिधि (रेजिडेंट एंड ह्यूमैनिटेरियन कोऑर्डिनेटर) एडम अब्देलमौला ने कहा, ‘सोमालिया में लगातार पांचवीं बार बारिश के मौसम के सूखे रहने का खतरा है। अकाल के चलते 2010-2011 में 2,60,000 सोमालयाई नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। हम 2022 में ऐसा दोबारा नहीं होने दे सकते।’ पूर्वी अफ्रीका के एक अन्य देश, इथियोपिया में फसल चौपट होने और सूखे मौसम की वजह से दस लाख से ज्यादा मवेशी पहले ही अपनी जान गंवा चुके हैं। एक आकलन के मुताबिक, देश के दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में 72 लाख लोगों को तत्काल भोजन उपलब्ध काए जाने की जरूरत है। वहीं, केन्या में दो साल से भी कम समय में ऐसे लोगों की तादाद चार गुना से जयादा बढ़ चुकी है, जिन्हें आर्थिक मदद चाहिए।
दुनिया भर के पृथ्वी-वैज्ञानिकों का एक समूह अकाल जैसी स्थितियों के बारे में सटीक भविष्यवाणी कर रहा है ताकि अकाल-पूर्व चेतावनी प्रणाली नेटवर्क (एफईडब्ल्यूएस नेट) के माध्यम से सरकारों और सहायता एजेंसियों को राहत प्रदान करने में मदद मिल सके। यूनाईटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) की यह एजेंसी 1985 में पूर्वी और पश्चिम अफ्रीका में आए अकाल का सामना करने के लिए स्थापित की गई थी, तब केवल इथियोपिया में ही अकाल की वजह से दस लाख से अधिक लोग मारे गए थे।
यूनिवसिर्टी ऑफ कैलीफोर्निया, सांता बारबरा में क्लाइमेट हैजर्ड्स सेंटर यानी सीएचसी एक ऐसा संस्थान है जो एफईडब्ल्यूएस नेट को जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभावों और अकाल की स्थिति पर सटीक आंकड़े उपलब्ध कराता है। सीएचसी, का फोकस पूर्वी अफ्रीका पर रहता है, जो दुनिया का सबसे अधिक सूखा-आशंकित क्षेत्र है।
सीएचसी के निदेशक और हाल ही में पूर्वी अफ्रीका में विकट स्थिति पर कई एजेंसियों के संयुक्त बयान में पूर्वानुमान लगाने वाले क्रिस फंक इस क्षेत्र में लगातार सूखे और जलवायु परिवर्तन से उसके संबंधों का आकलन कर रहे हैं। वह कहते हैं, ‘ पिछले 24 में से 12 साल ला-नीना के रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि इसके कारण होने वाले परिसंचरण-व्यवधानों को जलवायु परिवर्तन द्वारा बढ़ाया जा रहा है।’ फंक ने दूसरे वैज्ञानिकों के साथ मिलकर सोमालिया में 2010 के अकाल की भविष्यवाणी की थी। हालांकि उनकी शिकायत यह है कि भले ही कोई भविष्यवाणी छोटी ही क्यों न हो, अगर हम उस पर कोई कार्रवाई नहीं करते तो उसका क्या फायदा। फंक ने रिचर्ड महापात्रा से पूर्वी अफ्रीका में सामने आ रहे संकट, प्रारंभिक चेतावनी की भूमिका और मानव त्रासदी को टालने के लिए इसका उपयोग करने के महत्व पर बात की। इस बातचीत के मुख्य अंश:
पूर्वी अफ्रीका में बारिश के चार मौसम बेकार गए, हालात ऐसे बन रहे हैं, जैसे पहले कभी नहीं थे, 40 साल बाद हम पुरानी घटना के गवाह बनते दिख रहे हैं। जलवायु-परिघटना के तौर पर आप इसे कैसे देखते हैं ?
ईस्टर्न पूर्वी-अफ्रीका की जलवायु को समझने की शुरुआत प्रशांत महासागर में ऊष्मा-ऊर्जा की गति के साथ इसके घनिष्ठ संबंध को समझने से शुरू होता है। सामान्य परिस्थितियों में प्रशांत महासागर की हवाएं ऊष्मा-ऊर्जा को इंडोनेशिया की ओर खींचती हैं। इंडोनेशिया के चारों ओर का हिस्सा, जिसे ‘ द वार्म पूल’ कहते हैं, बारिश के दौरान दुनिया का सबसे गर्म मौसम वाला क्षेत्र हो जाता है। इस क्षेत्र का काफी ज्यादा गर्म पानी एक निम्न दबाव प्रणाली बनाता है जो आसपास के वातावरण से नमी खींचती है, यही वजह है कि पूर्वी अफ्रीका औसतन सूखा रहता है। इस पैटर्न में साल-दर-साल बदलाव होते हैं, क्योंकि, प्रशांत महासागर की हवाएं समुद्र के तापमान के जवाब में मजबूत या कमजोर हो जाती हैं।
दूसरी बात यह समझने की है कि जलवायु-परिवर्तन से क्या फर्क पड़ा है और पड़ रहा है, इससे समुद्रों में तेजी से ऊष्मा बढ़ रही है। फिलहाल जो सूखे पड़ रहे हैं, वे ला-नीना जैसी प्राकृतिक जलवायु परिघटना और जलवायु-परिवर्तन के बीच आपसी टकराहट के चलते बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक रूप से होने वाले ला- नीना पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में ठंडे समुद्री सतह के तापमान से जुड़े होते हैं।
इंसानों द्वारा समुदों में गरमी बढ़ाने के चलते पूर्वी पूर्वी-अफ्रीका में ला-नीना का असर बढ़ता जा रहा है। जब ला-नीना की परिघटना होती है, तो प्रशांत महासागर के ऊपर पश्चिम से पूर्व की हवाएं तेज हो जाती हैं, जिससे प्रशांत महासागर से ‘अतिरिक्त’ गर्मी पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में चली जाती है। यह गरम पानी इंडोनेशिया के चारों ओर बारिश को बढ़ाता है। इस बारिश सेे पश्चिम में पूर्वी अफ्रीका के ऊपर शुष्क गर्म डूबती हवा टकराती है - जो कुल बारिश को कम कर देती है और हवा के तापमान को बढ़ाती है।
फिलहाल कई मौसमों वाला सूखा, प्राकृतिक रूप से कई सालों से होने वाली परिघटना यानी ला-नीना की देन है, जिसे जलवायु-परिवर्तन ने बढ़ा दिया है। इसे पूर्वी अफ्रीका में असाधारण रूप से गर्म पश्चिम प्रशांत समुद्र की सतह के तापमान और असाधारण रूप से गर्म हवा के तापमान के रूप में देखा जा रहा है।
हम ला-नीना का असामान्य लंबा दौर देख रहे हैं। क्या आप विस्तार से बताएंगे कि जलवायु की यह परिघटना अफ्रीका के लिए कैसे इतनी ज्यादा स्पष्ट और चेतावनीपूर्ण बन रही है ?
इस सवाल के दो आयाम हैं- पहला ला-नीना की आवृत्ति और दूसरा उसकी तीव्रता। इसके पहले आयाम को लें तो यह देखना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि ला-नीना की घटनाएं 1998 के बाद से काफी सामान्य हो चुकी है। पिछले 25 सालों मेें ला-नीना की 12 घटनाएं हो चुकी हैं और इस बात के 54 फीसदी आसार हैं कि हम आने वाले अक्टूबर में ऐसी एक और परिघटना के साक्षी बनेेंगे। जलवायु समुदाय में इस पर काफी बहस हो चुकी है। कई प्रेक्षणों और अपने शोध से मैंने यह सुझाव दिया है कि हमारी जलवायु काफी कुछ ला-नीना के जैसी हो चुकी है। इसका एक और आयाम है, जिस पर मुझे बहुत भरोसा है, वह यह है कि जब ला-नीना की घटना होती है, तो अब इसकी तीव्रता पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में मानव-प्रेरित वार्मिंग की वजह से बहुत बढ़ जाती है।
आपने कहा है कि 1997 के बाद, ला नीना में कम वर्षा का प्रभाव बढ़ गया है। क्या इसके बारे में और विस्तार से बताएंगे?
1997-1998 के विशाल ‘अल नीनो’ (पूर्वी प्रशांत में असाधारण रूप से गर्म पानी से जुड़ी परिघटना) के बाद, पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र की सतह के तापमान में उछाल आया। वहां औसतन बहुत ज्यादा गरमी रहती है और ला-नीना के दौरान व उसके बाद यह और गरम हो जाते हैं। जैसा कि मैंने पहले बताया कि यह गरम पानी ला-नीना की क्षमता को बढ़ा देता है, जिससे पूर्वी अफ्रीका में बारिश कम हो जाती है।
इसका असर खासतौर से मार्च से मई के बीच की बारिश पर देखा गया है। यह अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर और मार्च-अप्रैल-मई में एक के बाद एक, सूखे का एक बहुत ही खतरनाक, लेकिन बहुत अनुमानित, पैटर्न स्थापित करता है। इस तरह के पैटर्न ने ही 2010-11 और उसके बाद 2016-17 में विनाशकारी क्रमिक सूखा और खाद्य संकट पैदा किया था। विडंबना है कि मौजूदा दो सालों में ला-नीना ने असाधारण रूप से चार सूखे पैदा किए, जिसके चलते इस बीते मौसम यानी मार्च- अप्रैल- मई कोे सबसे खराब के रूप में दर्ज किए जाने की आशंका है।
पिछले बीस सालों से आप सीएचसी के जरिए सूखे की भविष्यवाणी कर रहे हैं और चेतावनी जारी कर रहे हैं। आपने अफी्रका में क्या ट्रेंड देखा ?
मैंने दो बडे़ ट्रेंड देखे - पहला बहुत ज्यादा सूखा और गीली बारिश के मौसम। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है क ये समुद्र की सतह के तापमान में अधिक चरम परिवर्तनों से प्रेरित है, और अधिक चरम हवा का तापमान, जो फसलों और चरागाह भूमि को उजाड़ सकता है, जबकि मानव और पशुधन के स्वास्थ्य पर इसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। इसके अलावा, जैसा कि अब हम अफ्रीका के कुछ हिस्से में देख रहे हैं, हम जोखिम के इन दो स्रोतों को जोड़ सकते हैं, जैसे कि जब पूर्वी अफ्रीका जैसे शुष्क क्षेत्रों में सूखा पड़ता है। हालांकि मैं अत्यधिक ‘नरम गरमी’ के इंसानों के साथ जुड़े असर को लेकर भी चिंतित हूं। हम अधिक तीव्र शुष्क और गर्म मौसम को लेकर परेशान हैं, जो किसानों को शहरों में ले जा रहे हैं जहां वे और ज्यादा भीषण गर्मी के संपर्क में आ सकते हैं। वैसे सामान्य तौर पर ये ट्रेंड, मौसम की चरम घटनाओं, घटनाओं से उत्पन्न होते हैं जिनकी हम निगरानी और भविष्यवाणी कर सकते हैं। हम जलवायु परिवर्तन के सामने बेबस नहीं हैं।
आपकी भविष्यवाणी ओर चेतावनी, इंसानों को संकट से बचाने में अहम भूमिका निभाती है। आप यह कैसे कर पाते हैं ?
क्लाईमेट हजार्डस् सेंटर के पास दो तरह के मुख्य संसाधन हैं - वैश्विक बारिश का आकलन और उसके अनुरूप भविष्यवाणी। सूचना की पहली श्रेणी का बहुत व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है जिसे क्लाइमेट हजार्डस् इन्फ्रारेड वर्षा स्टेशनों (सीएचआईआरपीएस) के रूप में जाना जाता है। इस साल के पहले तीन महीनों में 4800 अलग-अलग आईपी एड्रेस के साथ 13 लाख सीएचआईआरपीएस फाइलें डाउनलोड की गई, जिसमें कुल 31 टीबी डाटा इस्तेमाल हुआ। हमारे पास सीएचआईआरपीएस के अनुकूल एक से सोलह दिन के मौसम के पूर्वानुमान भी हैं। जो दैनिक रूप से अपडेट किए जाते हैं, और लंबे समय तक ‘उप-मौसमी’ मौसम पूर्वानुमानों का भी नेतृत्व करते हैं। मौसम पर निगरानी और जलवायु के खतरों का प्रबंधन करने के लिए कई एजेंसियां इन तकनीकों का इस्तेमाल करती हैं। बारिश और मौसम के पूर्वानुमान को एक साथ जोड़ा भी जा सकता है, जिससे चरम सूखे की घटनाओं का बेहतर तरीके से आकलन किया जा सके। इसका एक ज्वलंत उदाहरण 27 मई को एफईडब्ल्यूएस नेट का सोमालिया को लेकर अलर्ट है, जिसने बताया है कि इस साल मार्च, अप्रैल और मई में इस देश में बारिश के बेहद कम आसार है। निगरानी और भविष्यवाणी में सुधार की बजाय हमें इस बात से ज्यादा डर लगता है कि खाद्य-सुरक्षा की हमारी आज की स्थिति के मद्देनजर आगे हालात खराब हो जाने पर उपलब्ध मानवीय उपाय पर्याप्त नहीं होंगे।