साहित्य में पर्यावरण: जलवायु संकट के सच का गल्प
साहित्य में गल्प लेखन भी जमीनी विषयों को रेखांकित करता रहा है। नई परिस्थितियों में विज्ञान और जलवायु परिवर्तन इसकी धुरी बन रहा है
On: Thursday 28 October 2021
- रत्नेश्वर कुमार सिंह -
उफ़...! इन दीवारों में जहाँ न जाने कितने बँटवारे के आँसू छिपे हैं, वहीं कई पुश्तों की ख़ुशी और उनके ठहाके भी. मनुष्य द्वारा खिंची गई रेखनाओं के तूफ़ान हँसी और आँसू में तारतम्य बैठाते-बैठाते किसी तरह बीत गए, पर प्रकृति का कहर और उसके द्वारा बनती-बिगड़ती रेखाओं से कौन संघर्ष करे!/ अनेक वैचारिक और भावनात्मक गह्वर से गुजरते हुए जगदीश बाबू मोनोजीत के कमरे में आए थे. ऊँह...! कितनी सारी उम्मीदें और सपने उस कमरे में बिखरे पड़े थे. उसकी आलमारी, उसका बिस्तर और वह काठ का घोड़ा...!”/ जगदीश बाबू ने उस काठ के घोड़े को छूकर मोनोजीत के बचपन की अनुभूति की थी. हँसता-खिलखिलाता हुआ मोनोजीत. कठघोड़े पर झूलती घुड़सवारी...! उसकी आवाज़ जैसे कानों में स्पष्ट सुनाई देने लगी थीं- बापी...! बापी...! मैं इस घोड़े को उड़ाकर आसमान की ओर ले जाऊँगा./ जगदीश बाबू हँसते...!/ मामोनी हँसती और पूछती- क्या मुझे नहीं बैठाएगा घोड़े पर...?/ हाँ मामोनी...! तुम्हें भी बैठाऊँगा. ...और घोड़े पर बैठकर आसमान में उड़ान भरूँगा. टकटक, टकटक...! उर्र...!” (‘रेखना मेरी जान’ उपन्यास से लिया गया अंश)
यह प्रसंग ग्लोबल वार्मिंग के कारण डूबते एक देश का है, जहाँ लोग सबकुछ छोड़कर सुरक्षित स्थान की ओर भाग रहे हैं। समुद्र में लगभग बीस साल पहले एक राष्ट्रीय पत्रिका का अंक भविष्य में होने वाले ग्लोबल वार्मिंग के भयावह प्रभाव पर आया था। उसके कवर पेज पर गेट वे ऑफ इंडिया को समुद्र के पानी में तैरता दिखाया गया था। उस तस्वीर ने मुझे बेहद विचलित किया। उस समय तक पर्यावरण और उसके संरक्षण पर विश्व का ध्यान बहुत अधिक नहीं गया था, पर उसकी वैश्विक चिंता शुरू हो चुकी थी। अनेक ठंडे मुल्कों में गर्मी बढ़ने लगी थी। गर्मी बढ़ने के कारण जंगलों में आग लगने लगी। गर्म मुल्कों में पीने के पानी की कमी होने लगी। उसके बाद मौसम का मिजाज भी बदलना शुरू हो गया। समुद्र भी गर्म होने लगा।
कोलकाता स्थित भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन के अनुसार हिमालय के लगभग 21 प्रतिशत ग्लेशियर में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। खास तौर पर यह गंगोत्री ग्लेशियर, जो लगभग 30.02 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर है। पिछले कई दशकों की तुलना में इसके सिकुड़ने की गति चौगुनी हो गई है।
अहमदाबाद के अंतरिक्ष एप्लीकेशन केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 2,767 ग्लेशियरों में से 2,184 ग्लेशियरों में पिघलने की गति तेज है। इनके पिघलने की तेज गति की सबसे बड़ी वजह ब्लैक कार्बन व बढ़ती धूल है। जंगलों में लगने वाली आग व ग्रीनहाउस गैस के असर की भी इसमें भूमिका है। यही कारण ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं।
इन समस्याओं पर वैज्ञानिक दृष्टि से अनेक वैश्विक किताबें भी आने लगीं। पर गल्प साहित्य के लेखकों का ध्यान इसपर नहीं गया। मेरे चिंतन में यह विषय शामिल हो चुका था। इसलिए जहाँ भी किसी तरह की सामग्री मिलती मैं उसे इकठ्ठा करता जाता। घूमते हुए भी मैं लगातार इस विषय से सम्बंधित सामग्री ढूंढता रहता।
इसमें मुझे अन्टार्कटिका के पिघलन के बारे में ज्ञात हुआ। अन्टार्कटिका का जो हिस्सा हमेशा बर्फ़ से ढका रहता था, वह हिस्सा बर्फ़ विहीन होने लगा। अनेक देशों ने वहाँ अपना बेसकैम्प बना रखा है। भारत भी साझीदारी के साथ वहाँ अध्ययन कर रहा है। वैज्ञानिकों ने वहाँ बहते पानी की नालियों को देखा, जिसकी चौड़ाई लगातार बढ़ रही है। उन नालियों के सहारे बर्फ पिघल कर छोटे-छोटे कुँए में गिर रही हैं। यह इस बात के संकेत हैं कि बर्फ़ के पिघलन की गति तेज़ हुई है।
अब सवाल यह है कि हमें गर्म होती धरती की चिंता क्यों करनी चाहिए! पृथ्वी पर नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं को चिन्हित किया गया है, जिनमें हमें हस्तक्षेप से बचने की सलाह दी गई है...पर हमने तीन विशिष्ट सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण पहले ही शुरू कर दिया है। वे हैं – जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, भूमंडलीय नाइट्रोजन-चक्र. शोध बताता है कि इन संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा के टिपिंग पॉइंट के आगे पहुँच गई तो अचानक ऐसे बड़े और खतरनाक पर्यावरण में बदलाव हो सकते हैं, जिन्हें सीमा के बाद न रोका जा सकेगा और न ही वापसी संभव होगी।
ग्रीनहाउस के प्रभाव से कई पक्षी प्रजातियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। तापमान परिवर्तन के कारण गर्म तटीय इलाकों में प्लैंकटन घास को बहुत क्षति पहुँची है। इससे हजारों समुद्री प्रजातियों का आहार चलता है। हम जरा अपने आसपास नज़र दौड़ाएँ, तो यह पाएँगे कि पहले जो पक्षी हमारे आसपास हर समय दिखती थीं, वह गायब होने लगी हैं। गौरैया तक हमारे बीच कम दिखने लगी हैं। यह किसी एक शहर की बात नहीं. गाँव और शहर दोनों जगह से अनेक पशु-पक्षी गायब हो गए हैं। जो हमारे पर्यावरण को अनेक तरीके से संतुलित बनाए रखने में हमारी सहायता करते थे।
फसलों पर भी ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगा है. मौसम चक्र में अभी बहुत मामूली अंतर दिख रहा है, पर धीरे-धीरे यह अंतर साफ़ दिखने लगेगा। पहले बादल फटने की घटना शायद ही कभी सुनने को मिलती थी, पर अब बार-बार सुनने को मिलती है। मौसमी चक्र में आए परिवर्तन से फसलों को बड़ा नुकसान हुआ है। यदि इसमें और वृद्धि हुई तो खाद्यान का भी संकट शुरू हो जाएगा. मौसमी बदलाव के कारण फसलों को विकसित होने के लिए प्रयाप्त समय नहीं मिल पाएगा या फ़िर जो फ़सलें हमारे जीने का आधार हैं, उसकी उपज ही खत्म हो जाये।
पानी की समस्या तो हमारे बीच भयावह रूप लेने को आतुर है। आज पानी की कमी वाले देशों में जहाँ हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान पाँचवें स्थान पर पहुँच गया वहीं भारत भी 40वें स्थान पर है। पड़ोसी देश में पानी की किल्लत एक अलग समस्या को जन्म दे सकती है। 2025 रेड अलर्ट वाला साल होने वाला है, जब पानी की कमी वाले देशों में पाकिस्तान चौथे स्थान पर पहुँच जाएगा और भारत 30वें स्थान के आसपास होगा। अब जरा सोंचिये, भारत की जनसंख्या को ध्यान में रखकर यदि हम देखें तो भारत बस कुछ वर्षों में ही पीने की पानी की गंभीर समस्या से जूझने वाला है। हम यदि घर में घड़ा रखते हैं, तो हरेक दिन उसकी सफाई कर उसमें पानी भरते हैं, पर धरती के गर्भ में करोड़ों ट्यूबबेल डालकर हमने सिर्फ उसका दोहन ही नहीं किया बल्कि उसमें पानी के स्तर को बनाए रखने के सारे श्रोत भी बंद करने की कोशिश की।
पानी को हमने पानी की तरह बहाया है। 1770, 1873 और 1943 को हम कभी नहीं भूल सकते। ये तीनों साल भारत में भारी सूखा पड़ा था और इस वजह से हरेक बार लाखों लोगों की मौत हुई थी। इन विपत्तियों से हमने कितना सीखा है यह तो हमारे सामने है, साथ ही अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हमने नहीं सोंचा है। विकास के नाम पर जिस तरह से तालाब पाटे गए, वृक्ष काटे गए, नदियों पर बाँध बांधे गए, समुद्र के मेनग्रोव्स काटकर उसे भरा गया, पहाड़ काटे गए- वह हमें गर्त की ओर ले जाने के लिए तैयार है। गंगा जैसी विशाल नदी में भी फरक्का बाँध के कारण सिल्ट जमा होने लगा। इस कारण गंगा की संग्रहण क्षमता बेहद कम हो गई। इन सबसे से अलग प्रकृति में अनेक ऐसे बदलाव हो रहे हैं, जो हमें अभी सीधे दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। अब जरा गल्प साहित्य पर बात की जाय।
सामान्य तौर पर कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है, पर साहित्य समाज का ऐसा दर्पण है, जो अतीत से चलकर वर्तमान का आकलन करते हुए भविष्य की छवि भी पेश करता है। एक सामान्य दर्पण और साहित्य-दर्पण में यह सबसे बड़ा अन्तर होता है। भारतीय साहित्य और ख़ास तौर पर हिन्दी साहित्य को पढ़ते हुए मैंने यह महसूस किया पिछले 40 वर्षों में इसके लेखन का एक ख़ास किस्म का तथाकथित यथार्थवादी ट्रेंड बना। उसमें स्त्री विमर्श, गाँव, गरीब, दलित, पिछड़ा वर्ग, कुलीन पिछड़ा वर्ग, आदिवासी, आन्दोलन, प्रेम, ऐतिहासिक पात्र, पौराणिक पात्र के अलावा धर्म आदि विषय पर अलग-अलग ज़मीन और अलग-अलग समय के साथ लिखा जाने लगा। ये विषय बहुत ही शानदार और प्रभावी थे, पर समस्या यह शुरू हुई कि इसके इतर हमने देखना-सोंचना लगभग छोड़ दिया। दुनिया रोज तेज़ी से बदल रही थी, पर हम इन विषयों में कुछ प्रभावी और ताकतवर बदलाव नहीं कर पाए और न ही नए आकाश की कल्पना की। इसका खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि एक तरफ़ हिन्दी के पाठक सिकुड़ते चले गए और दूसरी तरफ़ नए वैश्विक विषयों के साथ भी हम खड़े नहीं हो पाए। आज का समय और परिवेश दोनों बदला है। हमारे सामने यह चुनौती है कि 18 से 28 साल के युवाओं की दृष्टि बहुत वैज्ञानिक हो गई है।
वे हमसे बहुत आगे निकल गए हैं। उन्हें थामने के लिए हमारे पास वैज्ञानिक शैली वाले शब्द और भाषा का आभाव है। ऐसे में आगे की पीढ़ी हमें क्यों पढ़ना चाहेगी!
हमने प्रकृति का दोहन जिस तरह से किया, उसके लिए स्वयं को न ही जिम्मेदार बताया और न ही चेताया। साहित्य और उसमें भी कथा-कहानी ही वह माध्यम है, जिसके रास्ते हम लोगों को बहुत प्यार से चेतावनी भी देते हैं और समझाते भी हैं। उनके जीवन के प्रसंगों के माध्यम से उन्हें उत्प्रेरित करते हैं।
अक्सर यह भी कहा जाता है कि साहित्य का काम समाज सुधार नहीं है। वह कोई क्रांति नहीं करता। उसका काम राह दिखाना नहीं, वस्तुस्थिति को सामने रख देना भर है। मैं इस बात से सहमत नहीं।
दुनिया के सभी कालजयी धार्मिक ग्रन्थ किस्सों के माध्यम से दुनिया को सदियों से राह दिखा रहे हैं, फिर आज का साहित्य ऐसा क्यों नहीं कर सकता! यह एक यक्ष प्रश्न है। यह याद रहना चाहिए कि आने वाली पीढ़ी ग्लोबल वार्मिंग या पर्यावरण के दुष्प्रभाव से जब जूझ रही होगी और उस समय हम पर और हमारे साहित्य पर विचार करेगी तब वह इस त्रासदी के लिए हमें जिम्मेवार ठहराएगी और हमें कतई माफ़ नहीं करेगी। यह संभव है कि आने वाली पीढ़ी हमसे घृणा ही करती रहे।
(लेखक सामाजिक गतिविधियों के साथ विज्ञान एवं जलवायु से जुड़े विविध विषयों पर साहित्यक लेखन करते हैं)