क्या उष्णकटिबंधीय इलाकों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण वर्षा में देरी हो रही है?
जैसे ही ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी की सतह को गर्म करती हैं, अधिक जल वाष्प वायुमंडल में अपना रास्ता बनाता है। अतिरिक्त नमी वातावरण को गर्म करने के लिए आवश्यक ऊर्जा की मात्रा को बढ़ा देती है जो बारिश के मौसम के समय को बदल देता है।
On: Monday 28 June 2021
भारत में कई राज्य ऐसे हैं जहां अभी तक मानसूनी बारिश की एक बूंद भी नहीं टपकी। जबकि अंदाजा लगाया गया था कि इन इलाकों में मानसून समय से पहले पहुंचेगा। क्या कारण हैं कि मानसून की रफ्तार एवं परिस्थितियां प्रतिकूल हो गई हैं?
आज लोगों का पृथ्वी पर बढ़ता प्रभाव कई संकेतों के रूप में देखा जा रहा है। इसमें तापमान बढ़ने से लेकर समुद्र के जल स्तर में वृद्धि तक शामिल है। इस सूची में अब, पृथ्वी पर होने वाली बारिश तथा इसके जल चक्र के समय पर भी लोगों का प्रभाव देखा जा सकता है। इस बात की जानकारी अमेरिकी ऊर्जा विभाग के प्रशांत नॉर्थ वेस्ट नेशनल लेबोरेटरी के शोधकर्ताओं के नेतृत्व किए गए एक अध्ययन से पता चला है।
अध्ययन के मुताबिक 1979 से 2019 तक के ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि और मानवजनित एरोसोल में कमी ने मौसम में लगभग चार दिन की देरी की है, जिसकी वजह से उष्णकटिबंधीय इलाकों और साहेल में बारिश होने में देरी हो रही है। इस देरी का मतलब फसल उत्पादन में देरी, लू अथवा हीट वेव के बढ़ने के साथ-साथ जंगल में आग लगने की घटनाओं का बढ़ना है।
साहेल: साहेल, अरबी सायल, पश्चिमी और उत्तर-मध्य अफ्रीका का अर्ध-शुष्क क्षेत्र सेनेगल से पूर्व की ओर सूडान तक फैला हुआ है। यह उत्तर में शुष्क सहारा (रेगिस्तान) और दक्षिण में आर्द्र सवाना इलाके के बीच का भाग है।
वैज्ञानिक रूबी लेउंग ने कहा हम जानते हैं कि मानवीय गतिविधियों को पहले से ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन जल ऐतिहासिक रूप से, जल विज्ञान चक्र में बदलाव, मानव गतिविधि के कारण हुआ इस बात को स्थापित करने में हम अधिक सफल नहीं हुए हैं। इस अध्ययन से पता चलता है कि, मानसून की बारिश की शुरुआत, जलवायु मॉडल द्वारा अनुमानित भविष्य में बढ़ने वाले तापमान के साथ जोड़ा गया है।
विडंबना यह है कि बारिश में देरी तेजी से नम होते वातावरण के कारण होती है। जैसे ही ग्रीन हाउस गैसें पृथ्वी की सतह को गर्म करती हैं, अधिक जल वाष्प वायुमंडल में अपना रास्ता बनाता है। यह अतिरिक्त नमी वातावरण को गर्म करने के लिए आवश्यक ऊर्जा की मात्रा को बढ़ा देती है जो बारिश के मौसम के समय को बदल सकता है।
पृथ्वी वैज्ञानिक फेंगफेई सोंग ने कहा जब वायुमंडल में अधिक जल वाष्प होता है, तो यह महासागर की तरह हो जाता है। हम जानते हैं कि महासागर वायुमंडल की तुलना में गर्म होने में अधिक समय लेता है। अधिक नमी का मतलब है कि वातावरण को ऊर्जा को अवशोषित करने और वर्षा उत्पन्न करने में अधिक समय लगेगा।
मानवजनित एरोसोल, जैसे जीवाश्म ईंधन के जलने से उत्पन्न होने वाले कण, सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करते हैं। ये वातावरण को ठंडा करते हैं और ग्रीनहाउस गैसों के कारण होने वाली गर्मी को कम करते हैं।
अध्ययन के अनुसार वायु गुणवत्ता में सुधार के प्रयासों से एरोसोल सांद्रता में गिरावट जारी है, ठंडे करने का वह प्रभाव नष्ट हो गया है, जो हाल के दशकों में तापमान बढ़ने और मानसून की वर्षा में देरी दोनों को बढ़ाता है।
लेउंग ने कहा यदि एरोसोल सांद्रता में गिरावट जारी रहती है और ग्रीन हाउस गैस सांद्रता में वृद्धि जारी चहने के चलते, भविष्य में देरी और बढ़ सकती है। अध्ययनकर्ताओं का अनुमान है कि, सदी के अंत तक, उत्तरी उष्णकटिबंधीय भूमि पर बारिश के मौसम में पांच दिनों से अधिक और साहेल में आठ दिनों से अधिक की देरी हो सकती है।
भारत जैसा देश जो कृषि के लिए मानसूनी बारिश पर अधिक निर्भर रहता है, यहां गर्मी में होने वाली बारिश यदि देरी से होती है तो फसल की उपज इससे तबाह हो सकती है और बड़ी आबादी की आजीविका खतरे में पड़ सकती है। जब तक कि किसान अत्यधिक बदलाव के बीच लंबे समय में होने वाले परिवर्तनों की पहचान और उसके अनुसार नहीं ढ़लते तब तक यह खतरा बना रहेगा।
पृथ्वी का अधिकांश जल समुद्र में है। सूरज की रोशनी समुद्र को गर्म करती है और उसमें से कुछ पानी सतह से वाष्प के रूप में ऊपर उठता है। वह जल वाष्प, पौधों से निकलने वाले पानी और मिट्टी से वाष्पित पानी के साथ, बढ़ती हवा का सामना करने पर बादलों में बदलता है और उसके बाद वर्षा होती है।
उष्णकटिबंधीय इलाकों में हवाओं की दर बहुत अधिक तेज होती हैं, जहां सौर विकिरण सबसे मजबूत होता है। अंतरिक्ष से हमारी धरती पर आप इन मजबूत, नमी से भरी हवा को देख सकते हैं। यह पृथ्वी पर भारी वर्षा, तूफान के लिए जानी जाती हैं।
जैसे-जैसे ऋतुएं बदलती हैं और सूर्य गोलार्द्धों के बीच प्रवास करता है, वर्षा बैंड की गति बदल जाती है। जब वर्षा रूपी बैंड भूमि पर पहुंचती है, तो यह मानसून के मौसम की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। जो उष्णकटिबंधीय जंगलों और उनके भीतर और आसपास रहने वाली बड़ी आबादी के लिए पर्याप्त पानी की आपूर्ति करता है। वर्षा रूपी बैंड या रेनबैंड एक अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय चक्रवात में बड़ी मात्रा में बारिश या हिमपात करा सकते हैं।
मानव गतिविधि द्वारा दुनिया भर में बढ़ता तापमान, अधिक नमी से भरे वातावरण में अधिक ऊर्जा संग्रहीत करता है, जो वर्षा बैंड की गति और मानसूनी वर्षा की शुरुआत होने में देरी करता है।
शोधकर्ताओं ने पहली बार लगभग एक दशक पहले जलवायु मॉडलिंग के माध्यम से बारिश की देरी का अनुमान लगाया था। हालांकि, अवलोकन के आधार पर देरी को दर्ज करना चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। हर कोई वैश्विक स्तर पर होने वाली वर्षा को नहीं मापता है, लेउंग ने कहा कि इसमें कठिनाई दोगुनी है।
सबसे पहले, पृथ्वी की जलवायु में दिन-प्रतिदिन या साल-दर-साल होने वाले बदलावों से मानवजनित प्रभावों को अलग करना कठिन काम है। लेउंग ने कहा हर साल तापमान और वर्षा एक समान नहीं होती हैं, इसमें बड़ी मात्रा में अंतर होता है। यह अध्ययन नेचर क्लाइमेट चेंज नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
दूसरी चुनौती आंकड़ों को इकट्ठा करने से उपजी है। जहां वैश्विक तापमान का ऐतिहासिक रिकॉर्ड लंबे समय से, आंकड़ों पर आधारित है और सीधे मापा जाता है, वैश्विक वर्षा का रिकॉर्ड अपेक्षाकृत कम है और इसकी अनिश्चितता के कारण इकट्ठा कर पाना और भी कठिन हो जाता है।
उपग्रह वैश्विक वर्षा को अप्रत्यक्ष रूप से बादलों और बारिश की बूंदों से परावर्तित ऊर्जा का पता लगाकर मापते हैं, जो अनिश्चितता को प्रभावित करता है। उपग्रह का उपयोग 1970 के दशक के अंत में शुरू हुआ, जिसमें कई दशकों का रिकॉर्ड नहीं है।
जलवायु परिवर्तन के शोर में दबे देर से मिलने वाले संकेत को उजागर करना वैश्विक वर्षा के आंकड़ों के तेजी से उपलब्ध होने और जलवायु मॉडल अधिक मजबूत होने के कारण आया। कई मॉडलों के माध्यम से बनाए गए इन्हें 243 सिमुलेशन के साथ जोड़ा गया आठ अवलोकन डेटा सेट का उपयोग किया गया। अंततः अध्ययनकर्ता यह दिखाने में सक्षम रहे कि उत्तरी गोलार्ध में वसंत में होने वाली वर्षा में वास्तव में देरी हुई थी।
अध्ययन के अनुसार, अधिकांश मौसमी बदलाव द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप आए, जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हुई। बाद में 1980 के दशक में एरोसोल उत्सर्जन में कमी आई। हालांकि, देरी के पीछे केवल मानवीय गतिविधि ही जिम्मेवार नहीं थी। अन्य कारकों के साथ-साथ दशकीय समुद्री सतह तापमान में आए बदलाव ने भी मौसमी बदलाव में अहम योगदान दिया।