ध्रुवीकरण के दो धड़ों में बंटते मतदाता

भारत के चुनावों में पॉपुलिज्म एजेंडा राष्ट्रवाद से तय होगा या कल्याणवाद से?

By Richard Mahapatra

On: Wednesday 11 March 2020
 

रितिका बोहरा / सीएसई

हाल ही में दिल्ली विधानसभा चुनाव बेहद ध्रुवीकरण वाले प्रचार अभियान का गवाह बना। एक तरफ खुला राष्ट्रवादी एजेंडा था, तो दूसरी तरफ आर्थिक लाभ का एजेंडा प्रचार अभियान के केंद्र में था। दिल्ली चुनाव से पहले झारखंड विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही ध्रुवीकरण देखा गया।

क्या इसका अर्थ यह है कि चुनावी रणनीति में पॉपुलिज्म (लोकलुभावनवाद) की जमीन तैयार हो रही है? या यह ध्रुवीकरण का नया औजार है? राजनीतिक नजरिए से पॉपुलिज्म को मौटे तौर पर “लोगों के साथ जबकि सुविधा संपन्न या कुलीन वर्ग के खिलाफ” के रूप में परिभाषित किया जाता है। पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों में भी यह पॉपुलिज्म उभर रहा है। भारत में पॉपुलिज्म एजेंडे के दो विशिष्ट धड़े हैं। पहला, राष्ट्रवाद का खुला प्रदर्शन करता है और दूसरा कल्याणकारी सरकार के रूप में खुद को पेश करता है जिसे हम मुफ्तखोरी के रूप में परिभाषित करते हैं। दिल्ली चुनाव में दोनों धड़ों की ओर तेज ध्रुवीकरण हुआ, लेकिन जीत दूसरे धड़े की हुई। राज्यों में हाल में हुए चुनावों पर नजर डालने पर स्पष्ट होता है कि लक्षित समूहों के बीच कल्याणकारी सरकार का प्रचार करने से पक्ष में चुनावी हवा बनती है। पिछले साल अप्रैल मई में हुए आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने पॉपुलिज्म एजेंडे के दोनों धड़ों का इस्तेमाल किया। इससे उसे ऐतिहासिक जनादेश मिला।

भारतीय चुनाव फिलहाल स्पष्ट पॉपुलिज्म को विकसित करने की राह में हैं। इससे एक सवाल यह उठता है कि पॉपुलिज्म के दोनों धड़ों में कौन-सा चुनावी जीत सुनिश्चित करने के रास्ते पर ले जाएगा? सवाल भी है कि क्या हम दोनों धड़ों के बीच ध्रुवीकरण देखेंगे?

राज्यों में हाल में हुए चुनावों में देखा गया है कि लोग विभिन्न कल्याणकारी एजेंडे से मतदान के लिए प्रेरित हुए हैं। जबकि दूसरी तरफ राष्ट्रीय पहचान अथवा राष्ट्रवादी एजेंडा था जिसके मुख्य प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद थे। अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील और थाईलैंड जैसे देशों में इस प्रकार के पॉपुलिज्म एजेंडे ने चौंकाया है। यहां तक यूरोपीय देशों में भी दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े राजनीतिक दल जीत रहे हैं। वे हमेशा दूसरों से खतरे को डर के एजेंडे में शामिल करते हैं। चाहे वह खतरा अप्रवासियों से हो, अलग धर्म से हो या अलग सामाजिक पृष्ठभूमि का। लेकिन यह पॉपुलिज्म एजेंडा आर्थिक मंदी, बड़े पैमाने पर फैली बेरोजगारी और सामाजिक असुरक्षा से निपटने में कारगर साबित नहीं हो रहा है।

भारत इसी स्थिति से गुजर रहा है, लेकिन यहां के पॉपुलिज्म एजेंडे में कुछ बुनियादी खामियां हैं। राष्ट्रीय एजेंडा निश्चित रूप से काम कर रहा है लेकिन उन्हीं क्षेत्रों में जहां उसे हवा देने वाले दलों का प्रभुत्व है। यहीं उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता बनी हुई है और उन्हें राजनीतिक लाभ मिल रहा है। लेकिन दूसरी तरह का पॉपुलिज्म जिसे हम कल्याणकारी पॉपुलिज्म कह सकते हैं, राष्ट्रीय पॉपुलिज्म को टक्कर दे रहा है।

क्या इससे राजनीतिक दलों को कोई संदेश जाता है? जवाब है-हां। दरअसल भारत में कृषि संकट गहराता जा रहा है और इस क्षेत्र में अब भी अधिकांश मतदाता बसते हैं। आर्थिक मंदी से वे बुरी तरह टूट रहे हैं। इन लोगों के लिए राष्ट्रवादी पॉपुलिज्म उपयुक्त नहीं है। राज्यों के हालिया चुनाव संकेत देते हैं कि मतदाता विकास का एजेंडा अथवा ऐसे वादे चाहते हैं जिससे उन्हें तत्काल राहत मिले। दिल्ली के चुनाव में सस्ती बिजली और शिक्षा की बेहतरी के चलते मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को खुलकर मतदान किया। ऐसा लगता है कि दिल्ली के मतदाताओं ने सत्ताधारी दल के कल्याण के एजेंडे को बरकरार रखने के लिए पूरी रणनीति के साथ मत दिया।

आने वाले समय में पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे गरीब राज्यों के चुनावों में पॉपुलिज्म एजेंडे के दोनों धड़ों के बीच ध्रुवीकरण चरम पर दिखाई देगा। यह देखने वाली बात होगी कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदाता क्या पश्चिमी देशों से इतर अलग राह पकड़ेंगे।

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