स्कूली चरखा बनाम आत्मनिर्भर
अकेले चरखे ने ही तब की पीढ़ी को आत्मनिर्भर नहीं बनाया। तब के शिक्षा पाठ्यक्रम में शुरू से ही होम साइंस यानी घरेलू विज्ञान भी शामिल था
On: Wednesday 26 May 2021
मेरा गांव अमरपुर गंगा नदी किनारे बसा है। बात साठ के दशक की है। मैं चौथी कक्षा में पढ़ा करती थी। पिछले कुछ दशकों से पर्यावरण के प्रति हम थोड़ा अधिक ही सचेत हो गए हैं। लेकिन जब मैं सचेत होते समाज के बारे में गंभीरता से सोचती हूं तो यह समझ आता है कि हम अपनी जड़ों से दूर हो गए इसलिए यह समस्या आन पड़ी है। और इसकी बड़ी वजह है स्कूली शिक्षा में बुनियादी जरूरतों को पूरी तरह से नजरअंदाज करना। मुझे याद है कि चौथी कक्षा में ही हमें चरखा चलाना सिखाया गया था। यह एक विषय के रूप में शामिल था। इसका व्यावहारिक रूप से जीवन में इस्तेमाल भी सिखाया गया था।
स्कूल में हम केवल चरखा चलाते भर नहीं थे, बल्कि सूत भी कातते थे। इस सूत को गांव के नजदीक खादी ग्राम उद्योग की दुकान में जाकर जमा भी कर आते थे। इसके एवज में हमें पंद्रह दिन या महीने में एक बार सात रुपए से लेकर 25 रुपए तक का मेहनताना भी मिलता था। यह हम सभी स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए जेब-खर्च के रूप में काम आता था। कहने का अर्थ है कि तब हम विद्यार्थियों को शुरुआत से ही आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की जाती थी। मैं यह नहीं कहती कि आज भी बच्चे स्कूल में चरखा चलाएं लेकिन कम से कम हम अपने आत्मनिर्भर करने वाले औजारों को तो न भूलें। अब तो चरखा बस सरकारी कैलेंडरों और लोगों के ड्राॅइंग रूम में सजावट का सामान बन कर रह गया है।
अकेले चरखे ने ही तब की पीढ़ी को आत्मनिर्भर नहीं बनाया। तब के शिक्षा पाठ्यक्रम में शुरू से ही होम साइंस यानी घरेलू विज्ञान भी शामिल था। अब देखती हूं तो पता चलता है कि जब लड़की कक्षा नौवीं में जाती है तब जाकर उसे यह विषय पढ़ने का विकल्प मिलता है। जबकि मुझे याद है कि मेरे समय में कक्षा चार से ही लड़कियों को खाना बनाने की शिक्षा स्कूल में ही दी जाती थी। इस विषय की पढ़ाई हफ्ते में एक बार होती थी और पढ़ाई का मतलब होता था घर से खाना बनाने की सभी सामग्री लाकर स्कूल में ही चूल्हे में खाना बना कर अपने शिक्षकों को दिखाना और खिलाना।
यहां एक बात गौर करने वाली है कि जब हम लड़कियां खाना बनाना शुरू करती थीं तो शिक्षक हर लड़की के पास दो-दो लड़कों की ड्यूटी लगा देते थे बतौर सहायक के रूप में। लड़कों का काम होता था लकड़ी लाना, चूल्हा बनाना और सब्जी-दाल, चावल आदि को साफ करना और धोना। इसका नतीजा मैं इस रूप में देखती हूं कि गांव-घर में जब किसी के शादी- ब्याह या अन्य किसी प्रकार के आयोजन होते थे तो उसमें पुरुष ही खाना बनाने की जिम्मेदारी लेता था। आखिर यहां सवाल उठता है कि उसने यह कहां से सीखा?असल में वह बचपन से ही लड़कियों को खाना बनाने में सहयोग करता आया था। इसके चलते वह धीरे-धीरे खाना बनाने में पारंगत हो गया।
हां, आज के संदर्भ में इस बुनियादी शिक्षा में लड़की और लड़के के भेद को खत्म किया जा सकता है। मेरे बचपन में सिर्फ लड़कियां ही गृह विज्ञान का विकल्प लेती थीं और लड़के रसायन, भौतिक या जीव विज्ञान पढ़ते थे।
मेरा मानना है कि किसी भी तरह के विज्ञान में लैंगिक भेदभाव नहीं होना चाहिए तो फिर गृह विज्ञान में क्यों हो? गृह विज्ञान की तरफदारी करते ही लोग आपको पुरातनपंथी मानने लगते हैं और सोचते हैं कि यह सिर्फ लड़कियों के लिए है। हम क्या खाते हैं, वह कहां से आता है और कैसे तैयार होता है, हम जो पहनते हैं उसका चक्र क्या है, अगर इन बुनियादी चीजों से स्कूलों के स्तर पर ही बच्चों को जोड़ा जाए तो वो आगे ऐसे नागरिक होंगे जो अपने पर्यावरण और आस-पास की चीजों को लेकर सतर्क और संवेदनशील होंगे।