कोरोनावायरस से लड़ाई में स्थानीय सरकारों को भी शामिल किया जाए

हिंदुस्तान जैसे विशाल उप-महाद्वीप में केवल 1 संघीय और 29 राज्य सरकारें ही नहीं हैं बल्कि 2,74,275 स्थानीय सरकारें भी हैं

By Satyam Shrivastava

On: Wednesday 15 April 2020
 
फोटो: विकास चौधरी

न्यूयार्क टाइम्स (मार्च 31, 2020) में छपी एक खबर के मुताबिक साठ हजार साल पहले जो पेड़ खगोलीय घटनाओं के कारण समुद्र में डूब गए, उनमें आज की तमाम बीमारियों से लड़ सकने वाले शिपवार्म्स और उनके साथ मित्र बैकटीरिया मिल सकते हैं जो आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था के लिए युगांतरकारी आविष्कार होंगे। खबर में विस्तार से यह बताया गया है कि किस तरह रसायनशास्त्री, जीव वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का एक दल इन पेड़ों तक पहुंचने की कवायद कर रहा है। अपनी जान जोखिम में डालकर वो ऐसे शिपवार्म्स और बैक्टीरिया की तलाश करने गए हैं जो सदियों से इस परिस्थितिकी का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। मुमकिन है, इन पेड़ों से लिपटे जो भी बाइकटेरिया हैं वो कोरोना जैसे वायरस से भी मानव सभ्यता को बचा सकें।

इस खबर से यह बात और पुख्ता होती है कि विज्ञान भविष्य के लिए अपने अतीत की तरफ भी जाता है। खोज, आविष्कार और समाधान के स्तर पर यह एक प्रयोग होगा जिसमें एक बात अनिवार्य रूप से निहित है और वो है समाधान की दिशा में सोचने का एक तार्किक और वैज्ञानिक नजरिया। यह नजरिया जीवन की हर समस्या के समाधान में उतना ही मौजूं है जितना विज्ञान के प्रयोगों और आविष्कारों में।

इस खबर के हवाले से हिंदुस्तान की मौजूदा परिस्थियों को अगर देखें तो ऐसा लगता नहीं कि कोरोना वायरस से उत्पन्न कोविड-19 और उससे बचाव के अपनाए गए तरीकों से पैदा हुई भयंकर आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अराजकता से निपटने के लिए देश का केंद्रीय नेतृत्व या सरकार और तमाम राज्यों की सरकारें इस वैज्ञानिक नजरिये से लैस हैं।

21 दिनों के देशव्यापी तालबंदी ने दो सार्वजनिक तथ्य पूरी स्पष्टता से उजागर किए हैं- पहला कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था जो सालों से निरंतर घनघोर उपेक्षा की शिकार रही है वो अब इस हालत में पहुंच चुकी है उसके बूते कोरोना जैसी महामारी का सामना नहीं किया जा सकता और  दूसरा, देश में गरीबों की तादात और उनकी गरीबी  इस स्तर तक पहुंच गई है कि वो 21 दिन तक बिना सरकार के सहयोग के जिंदा नहीं रह सकती।

ये और बात है कि कोरोना से पहले तक जो सरकार देश की अर्थव्यवस्था का आकार 5 ट्रिलियन तक ले जाने का दावा कर रही थी, वह बीते 2 महीने में महज 1.7 लाख करोड़ का पैकेज ही घोषित कर सका।

बहरहाल! आज हालात यह हैं कि देश में जो भी सरकारें हैं वो इतनी व्यक्ति-केन्द्रित हो चुकी हैं कि उनके साथ उनकी कैबिनेट भी इस आपदा में दिखाई नहीं देती। देश में मानव संसाधनों की जबदस्त कमी आयी है। देश फिलहाल डॉक्टर्स, पुलिस और सफाईकर्मियों के हाथों में है। उन्हें सलाम, लेकिन यह अच्छी स्थिति नहीं है।

वैज्ञानिक जहां 60000 साल पुराने डूब चुके पेड़ों में समाधान तलाश कर रहे हों, वहाँ क्या सरकारें महज 28 साल पहले संविधान से पैदा हुईं 274,275 स्थानीय सरकारों में इस विपदा से निपटने के लिए साथ नहीं खोज पा रहीं हैं? जी हां, यहां बात पंचायती राज संस्थानों की हो रही है। जो बजाफ़्ता भारत के संविधान से जन्मी सरकारें हैं।

हिंदुस्तान जैसे विशाल उप-महाद्वीप में केवल 1 संघीय और 29 राज्य सरकारें ही नहीं हैं बल्कि 2,74,275 स्थानीय सरकारें भी हैं। ऐसी एक सरकार के अंतर्गत औसतन 3,416 नागरिक आबादी आती है। इन सरकारों में 31 लाख जन प्रतिनिधि हैं जिन्हें स्थानीय नागरिकों ने चुना हैं। इनमें 13.7 लाख महिला प्रतिनिधि भी हैं। इसके अलावा 629 जिला सरकारें हैं, 6613 जनपद स्तर की सरकारें हैं। ये सारे आंकड़े भारत सरकार के  पंचायती राज मंत्रालय की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट में दिये गए हैं। इन आंकड़ों में हालांकि एक बड़े भूगोल को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि संविधान के भाग 9 का हिस्सा नहीं हैं जिसके तहत पंचायती राज संस्थानों के प्रावधान किए गए हैं।

इतना विशाल देश जो अपनी मूल प्रकृति में संघीय गणराज्य है और विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था से संचालित है वहां किसी भी विपदा से निपटने के लिए क्यों केवल एक राष्ट्र प्रमुख को सारी जिम्मेदारी लेना चाहिए? इससे मसीहाई तो पैदा हो सकती है पर वास्तव में किसी गंभीर चुनौती का रणनीतिक ढंग से सामना नहीं किया जा सकता।

आज दो मोर्चों पर इस आपदा से देश लड़ रहा है। पहला मोर्चा अपने नागरिकों को कोरोना के संक्रमण से बचाने का है ताकि उनकी जान की रक्षा की जा सके और दूसरा अपने नागरिकों को जो देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी है उसे भुखमरी के संकट से बचना है ताकि उनकी जान बचाई जा सकी। दोनों मोर्चों पर अपने नागरिकों की जान बचाना सरकारों का ध्येय है।

कोरोना से लड़ाई एक अदृश्य वायरस से लड़ाई है जो निराकार न भी हो लेकिन इतना साकार भी नहीं है कि उसे बम -भालों या तोप और बंदूकों से निशान बनाया जा सके। वहीं भुखमरी अपने नग्न स्वरूप में साकार है, अनभूति जन्य है। उसके भौतिक, रासायनिक और जैविक हर तरह के लक्षण सामने हैं।

क्या यह सोचना किसी नेता के खिलाफ बोलना होगा कि जिस टीम इंडिया का ज़िक्र आप अपने पहले कार्यकाल में निरंतर करते आए और देश के संघीय ढांचे के बरक्स राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ दो -चार औपचारिक बैठकें करके साकार कर लिया और बाद में उसका क्या हुआ किसी को कुछ पता नहीं। अप भूल गए होंगे शायद लेकिन जनता नहीं भूलती। क्या आज उसी लाइन पर सोचने की ज़रूरत नहीं है कि आप अपनी टीम इंडिया का विस्तार मोहल्लों, टोलों, गांवों, कस्बों, जनपदों और जिलों तक भी करें।

यह वायरस सर्वव्यापी है। कहां तक पहुंच चुका है, कहां तक जाएगा किसी को कोई स्पष्ट अंदाज़ा नहीं है। लेकिन जहां भी जाएगा वहां स्थानीय सरकार होगी इसकी गारंटी हमारे संविधान ने की है। केवल दिल्ली, रायपुर, भूबनेश्वर या भोपाल से यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकेगी बल्कि इससे लड़ने की यान्त्रिकी हर टोले, मोहल्ले और गाँव में भी चाहिए। और देश इस बात पर गर्व कर सकता है और आत्म-विश्वास अर्जित कर सकता है उसके हर मोहल्ले और गाँव में संघीय सरकार जैसी ही सरकारें हैं जिनके लिए देश का आशय उनके गांवों से है। और ये इन सरकारों के लिए व्यावहारिक रूप से यह इतना आसान है कि वो दोनों ही मोर्चों पर इस विपदा का सामना कर सकें। उन्हें औसतन 3000 लोगों की ही चिंता तो करना है। इनमें से 60 प्रतिशत यानी 1800 लोगों को भूख से लड़ने में मदद करना है और 3000 को कोरोना से संक्रमित होने से बचाना है।

लेकिन क्या यह इतना अ-व्यावहारिक और पेचीदा समाधान या निहायत गैर जरूरी है कि न तो केंद्र सरकार को इनका ध्यान आ रहा है और न ही राज्य सरकारों को? अगर ऐसा है तो फिर यह और गंभीर प्रश्न बनाकर सामने आता है कि फिर इन 31 लाख जन प्रतिनिधियों, 2लाख 76 हजार सरकारों का गठन किया ही क्यों गया है। जब उन्हें इस देशव्यापी विपदा में भी कोई काम नहीं है?

कोरोना संकट देश को जो कई महत्वपूर्ण संदेश और सबक दे रहा है उनमें एक तो स्वास्थ्य की सार्वजनिक व्यवस्था और ग्रामीण रोजगार पर तत्काल ठोस उपाय करना है और जिसका नियोजन अनिवार्य तौर पर स्थानीय स्तर पर भू-राजनैतिक संदर्भों में हो। हमने देखा है किस तरह अचानक हुए लॉक डाउन ने अप्रवासी मजदूरों को गांव लौटने पर मजबूर किया। क्योंकि शहरों और महानगरों ने और तमाम औद्योगिक इकाइयों ने उन्हें ठुकरा दिया। गरिमा तो खैर उनके लिए बहुत दूर का सपना हो गया लेकिन दो वक़्त का खाना भी उन्हें मयस्सर नहीं हो रहा है। इसने देश के नीति-निर्धारकों के उन दावों की भी कलई खोल दी जो अगले दो दशकों में ग्रामीण भारत से 40 प्रतिशत तक आबादी को शहरों में खपा लेने वाले थे।

यह स्पष्ट हो चला है कि देश के संसाधनों का संकेद्रीकरण महानगरों में होना पूरे देश को न तो आत्म-निर्भर बना सकता है और न ही ऐसी किसी आपदा से कारगर ढंग से निपट सकता है।

ज़रूरत स्थानीय स्तर पर योजना बनाने की है। इस आपदा में ऐसी खबरें भी आयीं है कि सुदूर इलाकों में कुछ परिवार उन गांवों में भी वापिस पहुंचे हैं जिन्हें ‘भूतिया’ करार दिया जा चुका था। यानी जहां कोई इंसान नहीं रह गया था। जो लोग इन गांवों में लौटे हैं वो आखिर क्या उम्मीद लेकर लौटे हैं? सुरक्षा, रोजगार या सम्मान।

जो भी हो लेकिन यह समय है जब ग्राम पंचायतों को न केवल फौरी तौर पर इस संकट से निपटने में अपना सहयोगी बनाया जाए बल्कि उन्हें संसाधनों से इतना सक्षम बनाया जाए कि वो अपने हिस्से आए चंद हज़ार लोगों की सुरक्षा, आजीविका, सम्मान और सामुदायिकता सुनिश्चित कर सकें। ढांचा मौजूद है। संस्थान मौजूद हैं। ध्यान दें कि दिल्ली में जो एक रुपया 23 पैसे की कीमत रखता है वो सुदूर गाँव में 126 पैसे होता है क्योंकि आज भी गांव नकदी पर कम और वहां मौजूद प्रकृति प्रदत्त संसाधनों पर ज्यादा आश्रित हैं।

यह समय है जब गांवों को उनके प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल, प्रबंधन और उनसे आर्थिक उपार्जन करने के मामले में पूरी स्वतन्त्रता दी जाए और सक्षम बनाया जाये। जो उन्हें देश के संविधान ने पहले से ही दिये हैं। संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में उल्लिखित सारे विषय उन्हें सौंपे जाएँ और उनके लिए फण्ड्स मुहैया कराये जाएँ। नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त ये सरकारें देश की सबसे बड़ी ताक़त होंगीं।

देश के 17 करोड़ आदिवासी जो शहरों तक नहीं आए आज भी देशबंदी से उतने परेशान नहीं हैं और सरकार पर बोझ नहीं बन रहे हैं तो इसका कारण है कि उनके पास जंगल है और जो कभी बंद नहीं होता। न्यूनतम जरूरतों के समाज की लगभग सारी जरूरतें जंगल पूरी करते हैं। अभी भी महुआ बीने जा रहे हैं, तेंदू पत्ते तोड़े जाएंगे और साग -भाजी साल भर उपलब्ध है। यह सही समय है जब उन्हें उनके सदियों पुराने अधिकार सौंप दिये जाएँ जिनका वादा देश की संसद ने 2006 में वन अधिकार (मान्यता) कानून बनाते समय किया था। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ये कोरोना संकट भी अंतत: पारिस्थितिकी ध्वस्त होने से पैदा हुआ संकट है।

अब हिंदुस्तान जैसे बड़े मुल्क और सबसे बड़े लोकतान्त्रिक गणराज्य को शहरी चश्मे से समाधान ढूंढ़ने की बजाय लोकलाइज और ग्रामीण ढंग से समाधान के रास्ते तलाश करने होंगे।

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