बिहार: जर्जर हालात में शिक्षा व्यवस्था, रजिस्टरों में उपस्थित बच्चे, न शौचालय, न लाइब्रेरी, न शिक्षक: रिपोर्ट

सर्वे के अनुसार ऐसा एक भी प्राथमिक विद्यालय नहीं है जहां बिजली-पानी-शौचालय तीनों की सुविधा उपलब्ध हो। उच्च प्राथमिक विद्यालयों में भी स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है

By Lalit Maurya

On: Friday 04 August 2023
 
केवल रजिस्टरों में उपस्थित बच्चे, फोटो: जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस)

भले ही सरकार लाख दावे करे, लेकिन बिहार के सरकारी स्कूलों में स्थिति खराब है। शिक्षा व्यवस्था किस बदहाल स्थिति में है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां 90 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में मैदान, पुस्तकालय यहां तक की पर्यापत चारदीवारी भी नहीं है। इसी तरह स्कूलों में न तो बच्चे हैं और न ही पर्याप्त शिक्षक, जो हैं भी उनमें से करीब आधे ड्यूटी से गायब मिले।

सर्वे किए गए दो-तिहाई प्राथमिक विद्यालयों और करीब-करीब सभी उच्च प्राथमिक विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात 30 से ऊपर है। मतलब की केवल 35 फीसदी प्राथमिक विद्यालय और पांच फीसदी उच्च-प्राथमिक विद्यालय ही छात्र-शिक्षक अनुपात के लिए तय नियमो को पूरा करते हैं।

गौरतलब है कि राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 के मुताबिक छात्र-शिक्षक अनुपात 30 या उससे कम होना चाहिए। स्कूलों में शिक्षकों की कमी का फायदा निजी ट्यूशन सेंटर उठा रहे हैं। यदि महिला शिक्षकों की बात करें तो सर्वे किए गए 78 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में कम से कम एक महिला शिक्षक थी, जबकि केवल 12.5 फीसदी स्कूलों में कम से कम पांच शिक्षक थे। वहीं 65 फीसदी उच्च प्राथमिक विद्यालयों में एक महिला शिक्षक उपलब्ध थी जबकि 63 फीसदी में कम से कम आठ टीचर थे।

इतना ही नहीं आलम यह है कि स्कूलों से बच्चे नदारद हैं। रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों में सर्वेक्षण के दिन केवल 23 फीसदी बच्चे ही उपस्थित थे। वहीं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में तो स्थिति और भी खराब है, जहां बच्चों की उपस्थिति का यह आंकड़ा केवल 20 फीसदी ही दर्ज किया गया। इनमें से अधिकतर छात्र गरीब परिवारों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों से आते हैं।

न टॉयलेट, न लाइब्रेरी, कोचिंग सेंटर का बोलबाला

वहीं केवल 23 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे उपस्थित थे। वहीं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में यह आंकड़ा केवल सात फीसदी रहा। रिपोर्ट के अनुसार शिक्षक नियमित तौर पर बच्चों की उपस्थिति का आंकड़ा बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। इसके बावजूद प्राथमिक विद्यालयों में 44 फीसदी और उच्च-प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति केवल 40 फीसदी ही दर्ज की गई।

यह जानकारी जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) द्वारा बिहार में सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर जारी नई रिपोर्ट "बच्चे कहां हैं? बिहार में सरकारी स्कूलों का अजीब मामला" में सामने आई है। रिपोर्ट जनवरी से फरवरी 2023 के बीच बिहार के कटिहार और अररिया जिलों में 81 सरकारी प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक विद्यालयों पर किए सर्वेक्षण के नतीजों पर आधारित है।

रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन किए गए करीब-करीब सभी सरकारी स्कूलों में कोई भी शिक्षा के अधिकार अधिनियम (आरटीई) में तय मानदंडों का पालन नहीं करता। उदाहरण के लिए केवल पांच फीसदी उच्च प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की पर्याप्त संख्या है।

 उसपर भी केवल 58 फीसदी शिक्षक ही दौरे के दौरान ड्यूटी पर उपस्थित थे। वहीं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में यह आंकड़ा केवल 55 फीसदी ही दर्ज किया गया। इतना ही नहीं नौ फीसदी स्कूलों के पास तो बिल्डिंग भी नहीं है। वहीं 20 फीसदी स्कूलों के मुताबिक उनके पास मिड-डे मील के लिए पर्याप्त बजट नहीं है।

यदि स्कूलों में उपलब्ध बुनियादी सुविधाओं के लिहाज से देखें तो 35 फीसदी प्राइमरी स्कूलों में कम से कम पांच कमरे थे, जबकि 63 फीसदी अपर प्राइमरी स्कूलों में कम से कम आठ कमरे थे। स्वच्छ भारत मिशन के बावजूद इन स्कूलों में शौचालयों की स्थिति काफी खराब है। आंकड़ों के अनुसार केवल 16 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में उचित शौचालय थे, जबकि उच्च प्राथमिक विद्यालयों में यह आंकड़ा 40 फीसदी रहा।

महामारी के कारण पढ़ाई में कमजोर हुए बच्चे

सर्वे के अनुसार ऐसा एक भी प्राथमिक विद्यालय नहीं था जहां बिजली-पानी-शौचालय तीनों की सुविधा उपलब्ध हो। इस मामले में उच्च प्राथमिक विद्यालयों में भी स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है, जहां यह आंकड़ा केवल 22 फीसदी दर्ज किया गया।

इतना ही नहीं केवल 23 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में लाइब्रेरी है, वहीं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में यह आंकड़ा 65 फीसदी रहा। खेल के मैदान के मामले में स्थिति कहीं ज्यादा बेहतर रही, जहां 72 फीसदी प्राइमरी स्कूलों और 65 फीसदी अपर-प्राइमरी स्कूलों में यह सुविधा उपलब्ध थी।

पुस्तकों और वर्दी के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) योजना गरीब परिवारों को कठिन स्थिति में डाल रही है, जिससे उन्हें इन आवश्यक वस्तुओं को खरीदने या बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बीच चयन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसके चलते, कई बच्चे पाठ्यपुस्तकों या वर्दी से वंचित रह जाते हैं। अधिकांश शिक्षक भी पाठ्यपुस्तकों के लिए डीबीटी प्रणाली के विरोध में हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक कोविड संकट के दौरान भी बिहार की सरकारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था को भारी झटका लगा है। अधिकांश शिक्षकों का मानना है कि पिछले साल जब स्कूल दोबारा खुले तो कक्षा एक से पांच के अधिकांश बच्चे पढ़ना-लिखना भूल गए थे। हालांकि इसके बावजूद इन छात्रों की मदद के लिए कोई गंभीर कदम नहीं उठाए गए हैं।

रिपोर्ट में इस बात को लेकर खतरा जताया है कि बिहार में सरकारी स्कूलों की जगह सस्ते और निम्न-गुणवत्ता वाले कोचिंग सेंटर ले सकते हैं, जो बच्चों के लिए सही नहीं है। ऐसे में शिक्षा व्यवस्था पर मंडराते इस संकट से निबटने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। 

इसके लिए शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम को लागू करना, मध्याह्न भोजन के साथ दैनिक अंडे प्रदान करना और स्कूली समय के दौरान ट्यूशन पर प्रतिबंध लगाना एक अच्छा शुरूआती बिंदु हो सकता है। यूएमएस चारघरिया जैसे स्कूलों ने इस बात का उदाहरण प्रस्तुत किया है कि कैसे सरकारी स्कूलों को सफलतापूर्वक पुनर्जीवित किया जा सकता है।

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