डाउन टू अर्थ खास: जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सक्षम हैं हमारे पारंपरिक घर

सीएसई ने ओडिशा और पश्चिम बंगाल के तुलनात्मक अध्ययन कैसे भारत में ग्रामीण समुदाय आवास बनाने के लिए स्थानीय सामग्री और निर्माण तकनीकों का उपयोग करते हैं। 

By Sugeet Grover, haricherthala@gmail.com

On: Tuesday 18 July 2023
 
2011 के अांकड़े बताते हैं कि पहले ओडिशा व पश्चिम बंगाल में प्रमुख रूप से पारंपरिक निर्माण सामग्री का ही उपयोग किया जाता था लेकिन 2022 में एक शोध से पता चला कि अब निर्माण सामग्री में कंक्रीट, लोहे आदि के इस्तेमाल का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है

सभ्यता की शुरुआत से ही आश्रय मनुष्य की बुनियादी जरूरतों में से एक रहा है। हमारा घर हमें खराब मौसम, कीड़े-मकोड़ों और अन्य खतरों से सुरक्षा प्रदान करता है। हालांकि अपने स्वयं का एक घर होने की इच्छा के पीछे का एकमात्र कारण सुरक्षा ही नहीं है, घर होने से हमारे अंदर पहचान, स्वामित्व और अपनेपन की भावना आती है। ग्रामीण क्षेत्र वैश्वीकरण और औद्योगीकरण की तकनीकी प्रगति से कम प्रभावित हुए हैं।

इसी कारण से गांवों के घर अपने निवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक स्थिति को प्रतिबिंबित करते हैं। आधुनिक शहरी क्षेत्रों के हालात इसके ठीक विपरीत हैं, जहां आवासों का निर्माण जलवायु प्रतिक्रिया और सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों पर आधारित होने के बजाय बाजार की ताकतों व उद्योगों द्वारा संचालित होता है। यही कारण है कि ग्रामीण घर अब भी अपने संदर्भ और पर्यावरण से बहुत अधिक गहराई से जुड़े प्रतीत होते हैं, जबकि आधुनिक शहरों की सूरत अपेक्षाकृत नीरस हो गई है।

पारंपरिक निर्माण में उपयोग की जाने वाली सामग्री अक्सर स्थानीय वनस्पति से प्राप्त होती है। स्थानीय निवासी और राजमिस्त्री भले ही औपचारिक रूप से शिक्षित न हों लेकिन वे स्थानीय जलवायु परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसलिए किसी क्षेत्र विशेष में विकसित होने वाली निर्माण तकनीकें वर्षों के प्रयोगों और समायोजन का परिणाम होती हैं।

ये निर्माण ऐसी भौतिक रचनाओं और रूपों को अपनाते हैं जो प्राकृतिक चुनौतियों के प्रति सर्वाधिक अनुकूल हों और उनके कार्यान्वयन में लचीलापन हो। जैसे, भीषण गर्मी वाले क्षेत्रों में सघन पदार्थों से बनी मोटी दीवारें होती हैं। ओडिशा और पश्चिम बंगाल के अधिकांश हिस्सों में घरों की दीवारें मिट्टी या पत्थर की होती हैं।

ठंडी जलवायु में दीवारों को पुआल व लकड़ी से बनाया जाता है जिससे वे इन्सुलेशन का काम करती हैं। इसी तरह, ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में जहां भारी वर्षा होती है, वहां छतें खड़ी और ढलान वाली होती हैं। पुरी के पास के क्षेत्र जहां उच्च वेग वाली हवाएं चलती हैं, वहां घरों को ऐसे बनाया जाता है जिससे वे वायु को कम से कम प्रतिरोध प्रदान करें।

निर्माण प्रौद्योगिकियों में परिवर्तन

2022 में, दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने ओडिशा और पश्चिम बंगाल के तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा यह विश्लेषण किया कि कैसे भारत में ग्रामीण समुदाय आवास बनाने के लिए स्थानीय सामग्री और निर्माण तकनीकों का उपयोग करते हैं। इस शोध के दौरान निर्माण तकनीक में उल्लेखनीय बदलाव का पता चलता है।

2011 के आंकड़े बताते हैं कि पहले (भारत की पिछली जनगणना के अनुसार) ओडिशा और पश्चिम बंगाल में मुख्य रूप से पारंपरिक निर्माण सामग्री जैसे घास, छप्पर, बांस, लकड़ी और मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता था। हालांकि, 2022 में जमीनी जांच से पता चला है कि नए निर्माणों में लाल ईंटें, कंक्रीट, लोहा, अभ्रक और धातु की चादरों के इस्तेमाल में लगातार वृद्धि हो रही है।

इस बदलाव की अपनी वजहें हैं। लाल ईंटों से बनी दीवारें टिकाऊ होती हैं जबकि धातु की चादरों को छप्पर की छतों की तुलना में बहुत कम रखरखाव की आवश्यकता होती है। कंक्रीट बहुपयोगी होता है और त्वरित निर्माण में मदद करता है। हालांकि, इन सामग्रियों का उपयोग दीर्घकालिक चुनौतियों का कारण बन सकता है।

निर्माण सामग्री के विकास के इतिहास में, यह हालिया बदलाव अचानक आया है। यह ठीक उसी तरह है जैसे पाषाण युग के एक शिकारी-संग्रहकर्ता को कांस्य युग का धातु से बना कृषि उपकरण सौंप दिया जाए। यह उपकरण चमकदार होने के साथ-साथ पत्थर की तुलना में अधिक टिकाऊ तो है लेकिन शिकारी के लिए पूरी तरह से उपयुक्त नहीं है और उसकी आवश्यकताओं पर खरा नहीं उतरता है। उसी तरह, आधुनिक प्रौद्योगिकियां कई पहलुओं में पारंपरिक तकनीकों के लाभों से मेल नहीं खाती।

ईंट, सीमेंट, धातु और एस्बेस्टस शीट गांवों से दूर कारखानों में निर्मित होते हैं। उनके परिवहन की अपनी प्रक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप अर्ध या अकुशल ग्रामीण कार्यबल की आवश्यकता नहीं पड़ती। स्थानीय रोजगार सृजन में बाधा आती है। थर्मल कम्फर्ट के मामले में भी वे पारंपरिक सामग्रियों से कमतर हैं। इसके फलस्वरूप लोगों को ऊर्जा की खपत करने वाले उपकरणों का उपयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ता है जिससे उनकी बिजली का बिल बढ़ जाता है।

अपने जीवनचक्र के अंत में ये आधुनिक सामग्रियां कूड़ा- करकट में बदल जाती हैं, जिससे निपटना छोटे गांवों के लिए तो मुश्किल है ही, बड़े शहरों के लिए भी यह टेढ़ी खीर साबित होती है। इस निर्माण में स्थानीय समुदाय, विशेषकर महिलाओं की भूमिका को सबसे बड़ा नुकसान हो सकता है। सीएसई के शोध से पता चलता है कि देश के कई ग्रामीण हिस्सों में महिलाएं पारंपरिक ज्ञान और कौशल की अग्रदूत हैं, क्योंकि वे पारंपरिक आवासों के निर्माण और रखरखाव के साथ-साथ ज्ञान के आदान-प्रदान में हमेशा सक्रिय रही हैं। आधुनिक इमारतें स्थानीय ग्रामीण संस्कृति को भी बाधित करती हैं।

निर्माण प्रौद्योगिकी में आए इस परिवर्तन और इसके प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के लिए, सीएसई ने सितंबर 2022 में “सस्टेनेबल सेल्फ-बिल्ट हाउसिंग: रीइनवेंटिंग लोकल मटीरियल, टेक्निक्स एंड स्किल्स” नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित की। अपनी रिपोर्ट में, सीएसई ने ऐसे कई अलग-अलग कारकों की पहचान की है, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पारंपरिक से आधुनिक निर्माण तकनीकों में बदलाव की सुविधा प्रदान की है।

पक्के घर की पहेली

2016 में केंद्र द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण और 2022 में ओडिशा सरकार द्वारा संचालित बीजू पक्का घर योजना जैसी सरकारी आवास योजनाअों के अनुसार एक पक्के घर की कुछ न्यूनतम शर्तें हैं। इस परिभाषा के अनुसार एक पक्का घर गैल्वनाइज्ड आयरन (लोहे पर जस्ते की परत चढ़ाने की प्रक्रिया को गैल्वनीकरण कहा जाता है), मेटल, एस्बेस्टस शीट्स, पक्की ईंटें, सीमेंट की ईंटें या कंक्रीट जैसी स्थायी सामग्री से बना होता है। इसे कम से कम तीस साल उपयोग में आना चाहिए।

योजनाओं में वादा किए गए मौद्रिक लाभ पक्के घर के निर्माण से जुड़े हैं। यह संकीर्ण परिभाषा और जनादेश पारंपरिक तकनीकों को कम महत्व देता है और उनके प्रति लोगों के दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। उन्हें “अविकसित” और “गरीबों के लिए” उपयुक्त माना जाता है, जिसके फलस्वरूप पारंपरिक प्रथाएं गायब हो रही हैं।

कुछ निर्माण प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की पहल के अंतर्गत, केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के तहत आनेवाले बिल्डिंग मैटेरियल्स एंड टेक्नोलॉजी प्रमोशन काउंसिल और ग्लोबल हाउसिंग टेक्नोलॉजी चैलेंज ने कुछ पुस्तकों का एक संकलन प्रकाशित किए हैं लेकिन उनका ध्यान मुख्यतः आधुनिक निर्माण सामग्री पर केंद्रित है।

इन निर्माण तकनीकों का एक बड़ा हिस्सा पोर्ड-कंक्रीट प्रौद्योगिकी पर केंद्रित है, जबकि पारंपरिक और फ्यूजन प्रौद्योगिकियों (पारंपरिक और आधुनिक निर्माण दृष्टिकोणों का एक संयोजन) पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। यह राज्य कौशल योजनाओं में भी परिलक्षित होता है।

वेस्ट बंगाल स्टेट काउंसिल ऑफ टेक्निकल एंड वोकेशनल एजुकेशन एंड स्किल डेवलपमेंट और ओडिशा स्टेट काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन एंड वोकेशनल ट्रेनिंग जैसी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे निर्माण-संबंधी पाठ्यक्रम केवल ब्रिक-एंड-मोर्टार निर्माणों पर केंद्रित हैं। इसी वजह से पारंपरिक तकनीकों में पारंगत एक राजमिस्त्री कुशल के रूप में “प्रमाणित” नहीं हो पाता है। इसके फलस्वरूप पारंपरिक तकनीकों का ज्ञान रखने वाले स्थानीय राजमिस्त्री अपने “प्रमाणित” समकक्षों की तुलना में कम तो कमाते ही हैं, उन्हें काम भी काफी कम मिलता है। मान्यता न मिलने के कारण वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जरूरी पारंपरिक तकनीकों के आधुनिकीकरण और फाइन-ट्यूनिंग का काम भी प्रभावित होता है।

स्थानीय वनस्पति और पारिस्थितिक तंत्र का नुकसान पश्चिम बंगाल के बोलपुर में घास की एक स्थानीय किस्म, सोर घास को बांध कर फर्श के बीम के रूप में उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार उड़ीसा में छत की छप्पर के लिए विभिन्न पेड़ों की पत्तियों का उपयोग किया जाता है। पूर्वी क्षेत्र में निर्माण में प्रयुक्त होने वाला स्थानीय बांस इसी प्रकार का एक और उदाहरण है। हालांकि, जिस भूमि पर बांस उगता है, वह शहरीकरण के कारण तेजी से घट रही है।

सुंदरवन में लोग दूधेश्वर जैसी देसी चावल की किस्में उगाते हैं। इस किस्म से उच्च गुणवत्ता वाली पुआल मिलती है जिसे छप्पर के काम में इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन हाल के दिनों में इन किस्मों की तुलना में गैर-स्थानीय चावल की फसलें अधिक पसंद की जा रही हैं। इन किस्मों के डंठल निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

शहरी फुटप्रिंट के विस्तार के फलस्वरूप जमीन की कमी और फसल के पैटर्न में बदलाव के कारण इन सभी प्राकृतिक निर्माण सामग्रियों की उपलब्धता में बाधा उत्पन्न हुई है। इसने इन स्थानीय सामग्रियों को पोषित करने वाली छोटी अर्थव्यवस्थाओं को भी बड़ा झटका लगा है।

पारंपरिक दृष्टिकोण को बढ़ावा

हालांकि सरकारी योजनाओं ने परंपरागत तकनीकों से किनारा कर लिया है या उनकी अनदेखी की है लेकिन हाल के वर्षों में इस तरह के तरीकों को समझने और ज्ञान साझा करने के कुछ प्रयास किए गए हैं। 2021 में, बिल्डिंग मैटेरियल एंड टेक्नोलॉजी प्रमोशन काउंसिल ने दो कॉम्पेंडियम (सार संग्रह) जारी किए जिनमें पारंपरिक और फ्यूजन निर्माण प्रौद्योगिकियां शामिल थीं। यह एक स्वागत योग्य बदलाव था। हालांकि यह स्व-निर्मित आवास क्षेत्र में लागू की जा सकने वाली तकनीकों का एक छोटा हिस्सा भर है।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली और वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद, केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान द्वारा जारी कॉम्पेंडियम “पहल-ए काम्पेंडियम ऑफ रूरल हाउसिंग टाइपोलॉजीज, वॉल्यूम 2” स्थानीय भू-जलवायु परिस्थितियों के आधार पर राज्यों को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित करता है।

स्थानीय रूप से उपलब्ध इमारती लकड़ी, बांस और मिट्टी के साथ ईंट और कंक्रीट जैसी उपयुक्त निर्माण सामग्री का सुझाव देता है। ये प्रयास, हालांकि स्वागत योग्य हैं लेकिन पारंपरिक से आधुनिक के इस परिवर्तन को धीमा करने या रोकने के लिए अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं।

इन प्रयासों के साथ प्रदर्शन परियोजनाओं, नीतिगत प्रोत्साहन, कौशल उन्नयन और नवाचार के एक पारिस्थितिकी तंत्र का पूरक के तौर पर होना आवश्यक है। स्थिरता और स्थायित्व आधुनिक निर्माण प्रौद्योगिकियों के सबसे बड़े गुणों में से हैं। इन लाभों को पारंपरिक दृष्टिकोणों के साथ जोड़ने वाली एक “फ्यूजन” प्रणाली कई समाधान प्रदान करती है।

प्रधान मंत्री आवास योजना और राज्यों में इसके समकक्ष योजनाओं को नए स्वयं निर्मित आवास में फ्यूजन प्रौद्योगिकियों को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि थर्मल आराम, जलवायु उपयुक्तता और संधारणीयता लाभ लिए जा सकें। इसके अलावा पारंपरिक सामग्रियों को दरों की अनुसूची में शामिल किया जाना चाहिए ताकि उन्हें अपनाने में आसानी हो। सीएसई ने “विजडम टु बिल्ड : ए कम्पेंडियम ऑफ लोकली इवॉल्व्ड मैटेरियल्स एंड टेक्निक्स फॉर सस्टेनेबल सेल्फ बिल्ट हाउसिंग” प्रकाशित की है।

इसका उद्देश्य ओडिशा और पश्चिम बंगाल से तेजी से लुप्त होते स्थानीय निर्माण के ज्ञान संबंधित जागरुकता फैलाना है। इस प्रकाशन में विभिन्न आर्किटेक्ट्स द्वारा की गई वैसी फ्यूजन परियोजनाओं का भी विवरण दिया गया है जिनमें परंपरागत और आधुनिक निर्माण प्रौद्योगिकियों के फायदों का एक मेल बनाने की कोशिश की गई है।

गैर-कंक्रीट संरचनाओं को आवास नीति दस्तावेजों में “कच्चा” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है जिसे बदलने की आवश्यकता है। इन परंपरागत तकनीकों को कौशल विकास पारिस्थितिकी तंत्र का एक अभिन्न अंग बनाए जाने की आवश्यकता है। यह तंत्र वर्तमान परिदृश्य में मुख्यतः ब्रिक-एंड-मोर्टार निर्माण पर केंद्रित है।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा तैयार किए गए राष्ट्रीय भूकंप जोखिम प्रबंधन कार्यक्रम के मसौदे में आपदा तैयारियों के अंतर्गत स्थानीय निर्माण का पूर्ण परीक्षण शामिल है। यह सही दिशा में लिया गया एक कदम है। इन तकनीकों के परीक्षण और प्रमाणन से निर्माण में उनकी व्यवहार्यता और स्वीकार्यता बढ़ेगी। तकनीकी मूल्यांकन के आधार पर इनसे संबंधित कौशल को भी प्रमाणित करने की आवश्यकता है। राज्यों को अपने भौगोलिक क्षेत्रों के जोन आपदा और जलवायु वल्नेरेबिलिटी के आधार पर बनाने चाहिए।

अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग चुनौतियां होंगी और राज्यों को इन कमजोरियों के आधार पर निर्माण तकनीक और सामग्रियों के विकल्पों का चुनाव करना चाहिए और जलवायु अनुकूल संरचनाओं की आवश्यकता को पूरा करना चाहिए।

स्थानीय सामग्रियों के प्रसंस्करण में स्थानीय अर्द्ध कुशल श्रमिकों को काम मिलता है। इस प्रकार निर्माण सामग्री की खपत में चक्रीयता सुनिश्चित तो होती ही है साथ ही रोजगार भी पैदा होता है। कृषि अपशिष्ट को अक्सर जला दिया जाता है लेकिन इसे स्थानीय सूक्ष्म उद्योगों के माध्यम से संसाधित किया जा सकता है और निर्माण में लगाया जा सकता है।

साधारण लकड़ी, इमारती लकड़ी, बांस जैसी निर्माण सामग्री को बनाए रखने वाला पारिस्थितिक संसाधन आधार पर्यावरणीय क्षरण और विकासात्मक प्रभावों के कारण दबाव में है। स्थानीय सामग्रियों की आपूर्ति श्रृंखला और संबद्ध सूक्ष्म अर्थव्यवस्था का निर्माण भी पारिस्थितिक आधार के संरक्षण और कायाकल्प के लिए दबाव बनाएगा।

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