ब्लॉग : हिंसक होती जा रही हैं भारतीय सड़कें

दोपहिया वाहन सडक पर चलने वाले सभी वाहनों में सबसे अधिक असुरक्षित मानी जा सकती है। 

On: Friday 11 August 2023
 

केयूर पाठक

--------------------

‘फ़ास्ट एंड फ्यूरियस’ आधुनिक वैश्विक संस्कृति की वास्तविकता है। तेज सबसे तेज। समाचार से लेकर खेल तक। अर्थनीति से लेकर राजनीति तक- सबमें जल्दीबाजी है। और जल्दीबाजी की इस संस्कृति में असंतुलन भी है हिंसा भी। यह असंतुलन दुखद है और यह हिंसा आत्मघाती. ग्लोबल पूंजी ने समय को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक अर्थ में यह समय का नियंता हो गया है। सुबह, दोपहर, शाम सब पर इसी का पहरा है। आम आदमी से इसने उसका सबसे कीमती चीज समय भी छीन लिया।आदमी समयहीन हो चुका है। समय के इस भयंकर अभाव ने जल्दीबाजी की चेतना निर्मित की है। सड़क दुर्घटना उसी ‘फ़ास्ट एंड फ़्युरिऔस’ की संस्कृति का प्रकट रूप है। यह मानवीय सभ्यता के सामने एक दैनिक आपदा की तरह है। पूरी दुनिया में हर दिन सैकड़ो-हजारों लोग इसका शिकार होते हैं। भारत में 2021 में जितनी भी सड़क दुर्घटनाएं हुई हैं उनमें से लगभग 60 प्रतिशत गाड़ियों को निर्धारित गति से तेज चलाने के कारण ही हुई है- गति जीवन की गति को ख़तम कर दे रही है।

हाल के वर्षों में देखें तो तेजी से विशाल सड़कें बन रही हैं, सड़कों पर गाड़ियों की संख्या बढ़ रही और उसी रफ़्तार से सड़क दुर्घटनाओं की संख्या भी बढती जा रही। एनसीआरबी- 2021 के रिपोर्ट के सन्दर्भ में अगर वर्ष 2020 और 2021 के बीच ही तुलना करें तो यह साफ़ हो जाता है कि यह तेजी से बढ़ रही है। 

जहाँ वर्ष 2020 में सड़क दुर्घटना 354,796 था तो वह वर्ष 2021 में बढ़कर 403,116 हो गया और जिसमें करीब 155,622 लोगों की मौतें हुई और करीब 371884 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। अगर वाहनों के अनुसार दुर्घटनाओं पर नजर डाली जाए तो दोपहिया वाहन सड़क हादसों के सबसे अधिक शिकार होते हैं जिसका प्रतिशत करीब 44.5 है। और इस सन्दर्भ में अगर देखें तो दोपहिया वाहन सडक पर चलने वाले सभी वाहनों में सबसे अधिक असुरक्षित मानी जा सकती है। 

सड़कों पर बड़े वाहन जितने लापरवाह होते हैं शायद उससे कम दोपहिया वाहन नहीं होते।  उसके बाद कारों की संख्या अधिक हैं जो करीब 15.11 प्रतिशत है। यह बड़ा आश्चर्यजनक है कि पैदल चलने वालों की संख्या भी 12 प्रतिशत से अधिक है जो सड़क दुर्घटनाओं में तीसरे नंबर पर आते हैं। यानि आप कार में हों, पैदल, बसों में, या बाइक पर हो, सड़क पर आप सुरक्षित नहीं हैं। सड़कें गंभीर रूप से हिंसक हो चुकी हैं। एक अर्थ में देखें तो आधुनिक सभ्यता की हिंसा को देखने के लिए इसकी सड़कें ही काफी हैं।  

सड़कों की केटेगरी के अनुसार अगर देखें तो न तो नेशनल हाईवे और न स्टेट हाईवे और न ही अन्य सड़कें सुरक्षित मानी जा सकती हैं। नेशनल हाईवे और अन्य सडकों के बीच दुर्घटनाओं के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं है। जहाँ नेशनल हाईवे पर 53615 लोगों की मौतें हुई तो अन्य सड़कों पर 62967।

प्रति 100 किलोमीटर में देखें तो अन्य सड़कें अधिक सुरक्षित हैं नेशनल हाईवे की तुलना में- नेशनल हाईवे पर 40 मौतें हुई तो अन्य सड़कों पर मात्र 1। एनसीआरबी -2021 ने महीनों के आधार पर भी थोड़े आंकड़ों को तैयार किया है।

महीनों के सन्दर्भ में अगर इन दुर्घटनाओं पर नजर डालें तो जनवरी (40235), फरवरी (36809), मार्च (38196) और जुलाई (31747), अगस्त (33125), अक्टूबर (35338), नवम्बर (36475) और दिसम्बर (38028) में अधिक दुर्घटनाएं दर्ज की गई।

दिसंबर और जनवरी में संभवतः इन दुर्घटनाओं की वजह ठंढ और कुहासा हो सकता है। फरवरी और मार्च में त्योहारों की चहलकदमी तेज हो जाती है जिससे लोगों का आवगमन बढ़ता है। मार्च में होली जैसे बड़े त्यौहार आते हैं और उस समय प्रवासी मजदूरों सहित अन्य सभी वर्ग के लोग अपने-अपने घरों की तरफ लौटते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से अनगिनत यात्रा की अफरा-तफरी में सड़क दुर्घटना के शिकार होते हैं। जुलाई और अगस्त में इन हादसों का संभावित कारण अत्यधिक बारिश हो सकता है, क्योंकि यह सड़कों को और भी अधिक असुरक्षित बना देती है।

भारत में वैसे भी सड़कों की स्थिति बहुत ही ख़राब मानी जाती है, और बारिश के समय तो पूरी व्यवस्था ही पानी के साथ बह जाती है। अक्टूबर और नवम्बर भी त्योहारों का महीना होता है इसमें दीवाली और छठ जैसे महापर्व के अलावा भी अनेक छोटे-बड़े उत्सव होते हैं जिस कारण इन महीनों में आवगमन बढ़ जाता है। और समुचित प्रबंध और सुविधा नहीं होने के कारण लोग जैसे तैसे बसों, कारों या अन्य वाहनों के द्वारा अपने-अपने घरों को पहुँचने का प्रयास करते हैं। और यह आसान नहीं होता। 

किसी कवि ने तो भारत में यात्रा के बारे में लिखा भी हैं- “अपने यहाँ उर्दू का सफ़र हमेशा अंग्रेजी का सफर हो जाता है”।

एनसीआरबी ने इन दुर्घटनाओं के अनेक कारणों को दर्ज किया है जैसे गाड़ी में तकनीकी खराबी के कारण करीब 10 प्रतिशत, लापरवाहीपूर्ण ड्राइविंग के कारण 27.5 प्रतिशत, ख़राब मौसम के कारण करीब 3.5 प्रतिशत, अल्कोहल के कारण 1.9 प्रतिशत. लेकिन इनमें सबसे बड़ा कारण तेज गति ही दर्ज किया गया जो करीब 60 प्रतिशत है।

लेकिन इसे अंतिम और वास्तविक कारण नहीं माना जा सकता. इन कारणों के पीछे के कारणों पर शोध की जरुरत है। ड्राइविंग केवल एक तकनीकी कार्य नहीं है. यह एक व्यापक मानसिक और शारीरिक क्रिया भी है। 

सड़क दुर्घटना एक सार्वभौम समस्या है, लेकिन इसके बावजूद भारत में इसपर बहुत अधिक प्रमाणिक शोध का अभाव है। शोध के नाम पर हमारे पास थोड़े बहुत सांख्यिकीय आंकड़े मात्र है। सड़क दुर्घटना के पीछे पूरा ग्लोबल अर्थतंत्र कार्य कर रहा है। ग्लोबल अर्थव्यवस्था ने हमपर मात्र उपभोक्तावाद को ही नहीं थोपा, बल्कि एक हिंसक और असंतुलित चेतना को भी थोप डाला है।

वाहनों की कंपनियों को जल्दी है कि उनका अधिक से अधिक उत्पाद कम से कम समय में बाजार में बिक जाए, सरकारों को जल्दीबाजी है कि कैसे खरीदने और बेचने की गति को तेज किया जाए ताकि अर्थतंत्र को “गति” दी जाये।

ऐसे में आम आदमी अगर जल्दीबाजी कर रहा है तो यह उसकी व्यक्तिगत भूल कैसे हो सकती है! आदमी परेशान है।

वह ऑफिस समय पर नहीं पहुंचा तो वेतन काटे जाने का डर है, अगर मजदूर तेज गति से काम नहीं करता तो उसे नौकरी से निकाला जा सकता है, अगर डेलिवरी बॉय ने 15 मिनट में बर्गर या पिज़्ज़ा नहीं पहुँचाया तो पैसे उसके पॉकेट से जायेंगे, अगर बच्चा समय पर स्कूल नहीं पहुँच पाया तो शिक्षक उसे दंड दे सकता है- ये उदाहरण यथार्थ हैं।

जीने के लिए जान जोखिम में डालना यह आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। सड़के ख़राब हो या वाहनों में तकनीकी खराबी, मौसम ख़राब हो या कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी, उसे जीने के लिए इस भागदौड़ वाली संस्कृति का हिस्सा बनना ही है।

समाजविज्ञानी उलरिख बेख के शब्दों में कहें तो हमने एक जोखिम से भरी दुनिया को बनाया है और ऐसे में सड़क हादसे हो रहें हैं तो यह निश्चित रूप से ऐसी ही ‘फ़ास्ट एंड फ्यूरियस संस्कृति’ का परिणाम मात्र है।

(लेखक : सीएसडी हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट करने के बाद वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

Subscribe to our daily hindi newsletter