नंदलाल बोस की कृति से कितना अलग है मोदी का अशोक स्तंभ?

विद्वानों का मानना है कि ससंद भवन की नई इमारत के शीर्ष पर लगी धातु की मूर्ति उस मूल कृति से अलग है जिसे नंदलाल बोस ने कड़ी मेहनत से तैयार किया था

By Rajat Ghai

On: Wednesday 13 July 2022
 


देश के नए संसद भवन की इमारत के शीर्ष पर लगाई गई एक मूर्ति पर कला-इतिहासकारों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।

धातु की इस मूर्ति का अनावरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 जुलाई, 2022 को किया था, जिस पर राजनीतिक दलों ने पहले ही विरोध जताया था।
 
अब विद्वानों ने भी डाउन टू अर्थ को बताया है कि नया अशोक स्तंम्भ, मूल कृति से अलग है और उस आदर्श का प्रतीक नहीं लगता, जैसा कि राष्ट्रीय प्रतीक से अपेक्षा की जाती है।

अशोक-स्तम्भ, मौर्य साम्राज्य के शासनकाल के दौरान 280 ईसा पूर्व की एक प्राचीन मूर्ति है। इस राष्ट्रीय प्रतीक का डिजाइन आधुनिक भारतीय कला के पथ-प्रदर्शक और विश्व भारती विश्वविद्यालय में कला भवन के प्रधानाचार्य नंदलाल बोस के पांच शिष्यों ने तैयार किया था। उन पांच में से एक दीनानाथ भार्गव ने इस काम के लिए कोलकाता के चिड़ियाघर में शेरों के व्यवहार का अध्ययन किया था।

कला-इतिहासकार और बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के साथ ही अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में पढ़ा चुके शिवाजी पणिक्कर ने डाउन टू अर्थ को बताया: ‘यह अशोक स्तम्भ की प्रतिमूर्ति की बजाय निश्चित तौर पर उसका एक नया प्रारूप है। नए मॉडल में शेर के शरीर पर जो बाल हैं, उनकी विस्तृत सज्जा काफी अलग है। इसमें में शेर के अयाल में बालों का स्टाइल अलग तरह से बनाया गया है जबकि सारनाथ के अशोक स्तम्भ में एक साहसी व अमूर्त गुण है और वह बहुत लयबद्ध भी है।’

उन्होंने कहा कि अशोक स्तम्भ की डिजाइन काफी हद तक सम्पूर्ण थी और आकृति के मामले में परिष्कृत थी। उन्होंने इसके अलावा दोनों में दूसरे फर्क भी गिनाए। उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा दोनों में धातु का भी अंतर है। अशोक स्तम्भ, चुनार के बलुआ पत्थर का बना हुआ है जबकि नए मॉडल को धातु से बनाया गया है। इसे अलग-अलग हिस्सों के रूप में तैयार किया गया है और फिर उन्हें जोड़ा गया है। यह अपूर्ण है।’

वह आगे कहते हैं - ‘इसके अलावा दोनों के विस्तारीकरण में भी अंतर है। नए मॉडल में ज्यादा वास्तविकता दर्शाने की कोशिश की गई है, हालांकि यह प्रभावकारी तरीके से ऐसा नहीं कर सकी है।’

प्रसिद्ध कला-इतिहासकार, कला समीक्षक और निरीक्षक, आर शिव कुमार, जिन्होंने विश्व-भारती विश्वविद्यालय में पढ़ाया है, ने भी दोनों रचनाओं में अंतर पाया है। उन्होंने कहा, ‘ पहला प्रभाव तो यही है कि नए मॉडल में मूल अशोक स्तम्भ से विचलन है। आदर्श रूप में इसे मूल के करीब होना चाहिए था।’

उन्हें इस पर भी आश्चर्य है कि ऐसा असावधानीवश हुआ है, क्योंकि वह मानते हैं कि देश की ज्यादातर सरकारी परियोजनाओं में सौंदर्य-बोध के मामले में पूरी तरह से दृष्टिहीनता नजर आती रही है।

उन्होंने कहा, ‘ देश की पूर्व और वर्तमान सरकार आमतौर पर कला को सौंदर्य-बोध के साथ डिजाइन करने के लिए नहीं जानी जाती। इसे पूरे देश में तमाम सार्वजनिक मूर्तियों में देखा जा सकता है।’

विजुअल स्टडीज, स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वाईएस अलोने ने डाउन टू अर्थ को बताया, ‘ पुराने और नए अशोक स्तम्भ में कोई तुलना ही नहीं है। मूल रचना में जो गौरव और भव्यता है, वह बिल्कुल अद्भुत है। नया अशोक स्तम्भ मूर्ति कला की भाषा में बीसवीं सदी की रचना ज्यादा नजर आता है।’

मूल भाव के रूप में शेर
प्राकृतिक इतिहासकारों ने डाउन टू अर्थ को इस बारे में बताया कि प्राचीन भारत के छवि-चित्रण में शेर का इतना महत्व क्यों था।

महेश रंगराजन ने अपने पेपर ‘रियासत के प्रतीक से लेकर संरक्षण चिन्ह तकः  भारत में शेर का एक राजनीतिक इतिहास’ में दर्ज किया है - भारत में मानव- कल्पना पर अपनी शक्ति में शेर का प्रतिद्वंद्वी शायद केवल बाघ था।’

उन्होंने कहा कि अशोक स्तम्भ, उन स्तम्भों में से एक है, जो मौर्य काल से जुड़े हैं। प्राचीन काल में स्रामाज्यवादी राजशाही से जुड़े जानवरों में हाथी, शेर, सांड और घोड़े शामिल हैं।

वह आगे कहते हैं, - इतिहासकार उपिंदर सिंह के प्राचीन राजशाही के काम में हाथी ऐसा जानवर है, जिसका प्रतीक के तौर पर व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया है, फिर भी निश्चित तौर पर शेर बहुत महत्वपूर्ण है।

राजसी गौरव के साथ शेर का जुड़ाव पुराना है।

रंगराजन ने कहा, ‘बुद्ध का एक नाम ‘ शाक्य सिम्हा’ है, जिसका अर्थ है - शाक्यों का शेर। सारनाथ में बुद्ध के पहले उपदेश को सिम्हानाद यानी सिंह के गरजने के नाम से जाना जाता है। यानी कि हमारी कल्पना में शेर की जड़ें गहरी हैं।’

उन्होंने बताया कि ये जड़ें केवल पाली भाषा में ही नहीं बल्कि संस्कृत, अरबी, फारसी और तमिल में भी थीं। इन सभी भाषाओं के साहित्य में शेर बहुत महत्वपूर्ण है।

भारत में शेरों के ऊपर ‘ द स्टोरी ऑफ एशियाज लायंस’ लिखने वाले दिव्यभानुसिंह चावदा ने बताया कि प्राचीन भारत के छवि-चित्रण में बाघ की बजाय शेर इतना महत्वपूर्ण क्यों था।

उनके मुताबिक, ‘शेर घास के मैदानों और झाड़ियों के जंगलों का निवासी है। यह एक मिलनसार जानवर है जो प्राइड्स नाम के समूहों में रहता है। यह इंसानों के द्वारा आसानी से देखा जा सकता है।’

दिखाई देने के चलते ही इसे चौपायों जानवरों का राजा और जमीन के शासक के बराबर माना जाता था। चावदा कहते हैं- ‘ संस्कृत में शेर के लिए मृगराज, मृगेंद्र और मृगदीप जैसे शब्द हैं।’
 
संविधान सभा की बहसों में राष्ट्रीय प्रतीक के तौर अशोक स्तम्भ का वर्णन किया गया था। 
 
हालांकि आधिकारिक तौर पर संविधान ने इसे उस तरह से कभी राष्ट्रीय प्रतीक का दर्जा नहीं दिया, जिस तरह से तिरंगे को दिया गया है, तिरंगे को संविधान सभा में काफी विस्तृत समीक्षा के बाद अपनाया गया था।

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