डाउन टू अर्थ खास: शहरों पर बंदरों का कब्जा, प्यार जताएं या गुस्सा!

पहले मनुष्यों ने उनके ठिकानों का अतिक्रमण किया। अब वे हमारे ठिकानों पर हमला कर रहे हैं और वे पीछे हटने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें यहां भोजन आसानी से मिल रहा है

By Rajat Ghai, Himanshu Nitnaware, Taran Deol

On: Friday 07 July 2023
 

जानवरों की कुछ प्रजातियों के साथ मनुष्य की आत्मीयता होती है। शायद यही वजह है कि आवारा कुत्ते, बंदर और कबूतर हमेशा से भारतीय जीवन का हिस्सा रहे हैं। मगर, हाल के दशकों में शहरों में इनकी संख्या में भारी इजाफा हुआ है और इनकी तादाद इतनी अधिक बढ़ गई है कि मानव सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया है। कुत्ते व बंदर के काटने से रेबीज जैसे जूनोटिक रोग व कबूतर की बीट के चलते फेफड़े से संबंधित बीमारियों में जिस तरह की बढ़ोतरी हो रही है, वैसी पहले कभी नहीं हुई। शहरों में रहने वाली इन प्रजातियों के व्यवहार में भी काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। ये शहरी व्यवस्था के अनुरूप खुद को ढाल रहे हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए उनकी संख्या को नियंत्रित करना शायद पर्याप्त नहीं है। इसके लिए मानव को अपने व्यवहार में भी बदलाव की जरूरत है ताकि ये उदार जानवर शहर के लिए खतरा न बनें। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, क्या आवारा कुत्ते इंसानों के मददगार साबित हो रहे हैं या मुसीबत बन गए हैं? । आज पढ़ें, बंदरों से प्यार जताया या गुस्सा

 

गुल खान स्वघोषित पेशेवर बंदर भगाने वाले हैं और नई दिल्ली के ख्यातिलब्ध लोग उनके ग्राहक हैं। गुल खान कहते हैं, “यह हमारा पारिवारिक व्यवसाय है। उनके चचेरे भाई राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, नीति आयोग, केंद्रीय वित्त मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय व विदेश मंत्रालय में बंदर भगाने का काम करते हैं। खान को इस अजीबोगरीब पेशे में आए हुए तीन दशक से अधिक वक्त बीत चुका है। पहले वह इस काम में लंबी पूंछ वाले मनुष्य जैसा दिखने वाले लंगूरों को लगाते थे। साल 2012 में सरकार ने बंदरों को भगाने में लंगूरों के इस्तेमाल को मनुष्य-सदृश इस पशु पर क्रूरता बता इस पर रोक लगा दी। तब उन्होंने खुद लंगूर की आवाज निकालना शुरू किया और इसमें विशेषज्ञता हासिल कर ली। अब वह खुद लंगूर की आवाज निकाल कर बंदरों को डराते हैं।

राजधानी दिल्ली में खान जैसे लोगों की खूब मांग है क्योंकि दिल्ली में बंदरों की संख्या में चिंताजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है। नतीजतन, बंदरों के काटने की घटनाओं में इजाफा हुआ है। वे भोजन के लिए सरकारी दफ्तरों व रिहायशी इलाकों में धावा बोलते हैं। इस खतरे को लेकर प्रशासन की नींद संभवतः 2007 में खुली।

पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली के डिप्टी मेयर एसएस बाजवा के दफ्तर में बंदरों ने हमला बोल दिया था। बंदरों को रोकने की कोशिश में बाजवा अपने घर की सीढ़ियों से गिर पड़े थे और सिर में गंभीर चोट लगने से उनकी मौत हो गई थी। उसी साल की शुरुआत में न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी की तरफ से साल 2000 में दायर की गई एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने सार्वजनिक स्थानों पर बंदरों को भोजन देने पर रोक लगा दी थी और नगर निगम को इसका उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना लगाने की इजाजत दी थी। अदालत ने सरकार को रिहायशी इलाकों से बंदरों को पकड़ कर दिल्ली-हरियाणा सीमा पर स्थित असोला-भट्टी वाइल्डलाइफ सेंचुरी में छोड़ने का आदेश दिया था। कोर्ट ने विशेष समिति से बंदरों के नसबंदी के विकल्प तलाशने को भी कहा था।

मगर यह योजना मूर्त रूप नहीं ले सकी। अलबत्ता, विगत 15 वर्षों में प्रशासन ने 20,000 बंदरों को सेंचुरी में स्थानांतरित कर उनके लिए भोजन का भी इंतजाम किया। चूंकि, सेंचुरी में उनकी संख्या क्षमता अधिक हो गई है तो वे अब भी बाहर निकल जाते हैं। वे अब सेंचुरी के आसपास के गांवों व हाउसिंग सोसाइटीज के लिए मुसीबत बन गए हैं। जिन जगहों को पुराने बंदरों ने छोड़ दिया, वहां बंदरों के दूसरे गुटों ने कब्जा जमा लिया है, जिससे दोनों गुटों में टकराव जारी है। इस साल जनवरी में दिल्ली हाईकोर्ट में एक और जनहित याचिका दायर की गई, जिसमें बंदरों के उत्पात को रोकने के लिए खर्च हुए रुपयों का ब्यौरा मांगा गया। दिल्ली सरकार ने कोर्ट में बताया कि बंदरों के उत्पात पर लगाम लगाना मुश्किल हो रहा है क्योंकि अव्वल तो सर्जिकल नसबंदी काम नहीं कर रही है और दूसरा, मदद करने के लिए बंदर पकड़ने वाले लोग पर्याप्त संख्या में सामने नहीं आ रहे हैं। दिल्ली सरकार की लाचारी संकेत देती है कि देशभर में यह समस्या बेहद गंभीर है और यह भी कि इस टकराव को रोकने के लिए साफ व स्पष्ट रणनीतियों की कमी है।

बंदरों के हमले से मारे गए या जख्मी होने के एकमुश्त आंकड़ों के अभाव में जोधपुर के प्रीमेट रिसर्च सेंटर के 2015 के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय शहरों में रोजाना 1,000 लोग बंदरों के हमले का शिकार होते हैं। बंदर, रेबीज और अन्य जूनोटिक बीमारियों मसलन क्यासनूर वन रोग के वाहक भी होते हैं और ये संपत्तियों और फसलों की क्षति का भी कारण बनते हैं। डाउन टू अर्थ ने पूर्व में अपनी रपट में बताया कि हिमाचल प्रदेश में हर साल बंदर व अन्य वन्यजीव 500 करोड़ रुपए की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। हिमाचल प्रदेश सरकार पिछले दो दशकों से इस नुकसान को रोकने का प्रयास कर रही है। साल 2006 में हिमाचल प्रदेश, बंदरों की नसबंदी करने वाला पहला राज्य बना। वन विभाग की वेबसाइट के अनुसार, हिमाचल में साल 2021 तक 1,70,169 बंदरों की नसबंदी की जा चुकी है, जो बंदरों की कुल आबादी का 51.4 प्रतिशत है। लेकिन, इससे बहुत फायदा नहीं हुआ और साल 2016 से समय-समय पर उन्हें दरिंदा (वर्मिन) बताकर उनकी हत्या की गई।

बुरा तो यह है कि हाल के वर्षों में क्षेत्रीय स्तर पर बंदरों की संख्या में गिरावट के संकेतों के बावजूद बंदरों व मानव के बीच टकराव जारी है। हिमाचल प्रदेश में साल 2004 से 2020 के बीच बंदरों की आबादी में 57 प्रतिशत की गिरावट आई और अभी उनकी संख्या 1,36,443 है। उत्तराखंड वन विभाग ने साल 2015 से 2021 के बीच बंदरों की आबादी में 25 फीसदी की गिरावट दर्ज की। क्या ये मानव व बंदरों के बीच के टकराव को रोकने की रणनीतियों में गड़बड़ी के संकेत हैं?

प्राइमेटोलाॅजिस्ट व बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज में अकादमिक प्रमुख‌ अनिंद्य सिन्हा कहते हैं, “चूंकि भारत में बंदरों को सम्मान की नजर से देखा जाता है इसलिए फसलों का नुकसान करने की सूरत में हत्या करने की छूट होने के बावजूद उन्हें शायद ही मारा जाता है।” स्थानांतरण को प्रायः एक आसान विकल्प माना जाता है। मगर, मैसूर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मेवा सिंह का कहना है कि स्थानांतरण में उन्हें लंबे समय तक कैद में रखना पड़ता है, जो उनमें व्यवहार जन्य बदलाव का कारण बन सकता है। साथ ही ये बीमारियों व परजीवी संक्रमण को लेकर संवेदनशील भी बना सकता है। हाल के वर्षों में नसबंदी एक प्रभावी विकल्प के रूप में उभरी है, लेकिन नर बंदरों की नसबंदी से बहुत फायदा नहीं होता है क्योंकि मादा बंदर मैथुन क्रिया के लिए पार्टनर बदलती रहती हैं। दूसरी तरफ, नर बंदरों की नसबंदी के चलते उनके अंडकोष में बनने वाले टेस्टोस्टेरोन हार्मोन से उनमें आक्रामकता बढ़ने का जोखिम होता है।

सिन्हा कहते हैं, “उनकी सामाजिक व्यवस्था मादा की नसबंदी का अधिकार देती है जबकि पुरुषों की नसबंदी आसान है।” मार्च 2023 में केंद्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंदर यादव ने मानव-पशु संघर्ष को रोकने के लिए 14 दिशानिर्देश जारी किए, जिसमें नर बंदर की सर्जिकल नसबंदी थर्मोक्यूटरी कोगुलेटिव के जरिए और मादा बंदर की नसबंदी एंडोस्कोपिक थर्मल-कॉटरी के जरिए करने की सिफारिश की गई। हालांकि इस प्रक्रिया में भी समस्या है।‌ सिन्हा कहते हैं कि इसमें पहला मुद्दा तो यह है कि इस तरह की नसबंदी के लिए बंदरों को पकड़ना पड़ता है लेकिन बंदर पकड़ने वाले मुश्किल से मिलते हैं। दूसरा, लोग बंदरों की स्थायी नसबंदी नहीं करना चाहते हैं क्योंकि यह बहुत कठिन और खर्चीली प्रक्रिया है।

तीसरा ये कि हममें समझदारी की कमी है कि नसबंदी हो चुके बंदरों का आखिर होता क्या है? क्या उन्हें वापस स्वीकार कर लिया जाता है? वह कहते हैं, “बंदरों की मादा नसबंदी के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई अध्ययन नहीं हुआ है।” केंद्र सरकार ने दिसंबर 2022 में बंदरों को वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के शेड्यूल्ड-II से हटा दिया, जिसका मतलब है कि अब वे लुप्तप्राय प्रजातियों में नहीं आते, जिनकी हत्या या शिकार करना अवैध है। अब बंदर, आवारा कुत्ते व बिल्लियों जैसे हैं। सिन्हा को चिंता है कि मेडिकल रिसर्च के लिए अब कहीं दोबारा बंदरों का निर्यात न शुरू हो जाए। उन्होंने कहा कि यह उनकी आबादी के लिए विध्वंसक हो सकता है।

गैर सरकारी संगठन वातावरण की संस्थापक निदेशक प्राइमेटोलॉजिस्ट इकबाल मलिक कहती हैं कि मनुष्य और मानव-सदृश जानवर का सह-अस्तित्व कभी भी स्थायी और शांतिपूर्ण नहीं रहा है। मगर, इन दोनों प्रजातियों के बीच तनाव, डर और कड़वाहट महज पिछले 50 सालों या उससे कुछ अधिक वक्त में विकसित हुई है। और हम पुराने संबंध को दोबारा विकसित कर सकते हैं, मगर इसके लिए हमें समझना होगा कि ये संबंध खत्म कैसे हुए।

सिन्हा के मुताबिक, समस्या दोहरी है। पहली और स्पष्ट दिख रही समस्या तेज रफ्तार शहरीकरण, औद्योगीकरण और खेती के चलते उनके रिहायशी ठिकानों का खत्म होना है। लेकिन, एक बार बंदरों का समूह अगर लोगों के साथ रहने का आदि हो जाए, तो वह अपने प्राकृतिक ठिकानों की तरफ लौटना नहीं चाहता है। द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) के फॉरेस्ट्री एंड बायोडायवर्सिटी डिवीजन में सीनियर फेलो योगेश गोखले कहते हैं कि हम नेशनल पार्कों व हाइवे से सटे इलाकों, जहां बंदरों को सैलानी खाना खिलाते हैं, ऐसा देखते हैं। फिर धीरे- धीरे वे लोगों के ठिकानों के करीब आ जाते हैं। वह आगे बताते हैं कि उनके ठिकानों का खत्म होना और शहरी क्षेत्रों में खराब कूड़ा प्रबंधन बंदरों को आसानी से भोजन उपलब्ध करा देता है और इसी वजह से वे शहरों का रुख करते हैं।

इन क्षेत्रों के बंदर खुद को विकसित करते हुए निपुण हो गए हैं। वे पैकेज्ड खाना व पानी की बोतल खोलना तथा कूड़े से खाना तलाशना सीख गए हैं।

मानव-बंदर टकराव के समाधान के लिए बने दिशानिर्देशों में कचरा पेटी और अपशिष्ट निपटान को “मानव-बंदर के बीच संपर्क का महत्वपूर्ण मानव जनित पहलू” बताया गया है क्योंकि “वह बंदरों के लिए आसानी से और भरपूर मात्रा में मिलने वाले भोजन का विश्वसनीय स्रोत है।”

शहरी क्षेत्रों में जहां प्राकृतिक भोजन उपलब्ध नहीं है, वहां बंदर पूरी तरह से लोगों से मिलने वाले खाने, कूड़े पर फेंके गए भोजन और घरों पर धावा बोलकर लूटे हुए खाने पर निर्भर होते हैं। दिशा निर्देशों में कहा गया है कि बंदरों की जन्म-दर, उनमें आक्रामकता और मनुष्यों के साथ टकराव कम हो यह सुनिश्चित करने के लिए कूड़ा प्रबंधन जरूरी है। लेकिन इसमें नगर निगम प्रशासन को सतर्कता अपनाने की जरूरत है क्योंकि इससे खाद्य आपूर्ति में बाधा आएगी, जो उन्हें और आक्रामक बनाता है।

इकबाल कहती हैं कि इसके साथ-साथ उनके रहने के लिए अनुकूल रिहायश तैयार करने की जरूरत है। ओडिशा, केरल और तेलंगाना में तो बाकायदा इस पर काम शुरू भी हो चुका है। मगर इसके प्रभाव के मूल्यांकन के लिए जब तक तंत्र विकसित नहीं होता है तो यह पता लगाना मुश्किल है कि क्या काम करता है और क्या नहीं।

हमलों पर नियंत्रण के उपाय

बंदरों के हमलों से निपटने के लिए अलग-अलग राज्य अलग-अलग तरह के प्रयोग कर रहे हैं

स्थानांतरण

  • आंध्रप्रदेश: दिसंबर 2020 में तिरुपति से बचाए गए बंदरों को मुलुगु जिले की सीमा से सटे वन में छोड़ा गया
  • हरियाणा: जनवरी 2021 में सरकार ने घोषणा की कि गुरुग्राम से बचाए गए बंदरों को फिरोजपुर झिरका में छोड़ा जाएगा
  • चंडीगढ़: साल‌ 2023 में केंद्र शासित क्षेत्र से बचाये गए बंदरों को वन में छोड़ा गया
  • दिल्ली: साल 2007 के हाईकोर्ट के आदेश को मानते हुए बचाए गए बंदरों को असोला भट्टी वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में छोड़ा गया


ठिकाने बनाए गए

  • कर्नाटक: साल 2019 में शिवमोंगा में मंकी पार्क बनाने की घोषणा
  • उत्तर प्रदेश: साल 2022 में लखनऊ के सीमा के पास चार वानर वन बनाने का ऐलान


डराने के तरीके

  • पंजाब: साल 2023 में पंजाब यूनिवर्सिटी ने लंगूर की आवाज निकाल कर बंदरों को डराने के लिए लोगों को नियुक्त किया


नसबंदी

  • केरल: बंदरों का उत्पात रोकने के लिए जनवरी 2023 में राज्य ने पुरुष नसबंदी जैसे गर्भनिरोधक तरीके तरीके अपनाने का निर्णय लिया
  • कर्नाटक: मार्च 2021 से राज्य सरकार बंदर नसबंदी कार्यक्रम पर विचार कर रही है
  • तेलंगाना: जनवरी 2022 में सरकार ने हर जिले में नसबंदी केंद्र स्थापित करने पर विचार करने का निर्णय लिया


पौधारोपण अभियान

  • ओडिशा: मार्च 2019 में ओडिशा सरकार ने बंदरों को लुभाने के लिए विश्वनाथपुर व कदलीघाट के बीच 5 किलोमीटर क्षेत्र में 1,15,000 फलदार पेड़ लगाने का निर्णय लिया
  • केरला: सितम्बर 2021 से सरकार वन क्षेत्र को समृद्ध करने के बारे से विचार कर रही है ताकि बंदरों को पर्याप्त भोजन मिल सके
  • तेलंगाना: जनवरी 2022 में वन विभाग ने नेशनल व स्टेट हाईवे के किनारे फलदार पेड़ लगाने का निर्णय लिया


फसल में बदलाव

  • केरला: सितंबर 2021 में केरल सरकार ने ऐसी फसलें उगाने पर विचार किया, जिन्हें बंदर बर्बाद नहीं करते हैं। इनमें अदरक, हल्दी, आलुकी, रतालू, सूरजमुखी, नींबू, लेमनग्रास आदि शामिल हैं


पुनर्वास

  • तेलंगाना: दिसंबर 2020 में बंदरों को जंगल में छोड़ने से पहले उन्हें 10-15 दिन तक रखने के लिए एक कैंप स्थापित किया गया था
  • पंजाब: पंजाब सरकार ने उत्पात मचाने वाले बंदरों के पुनर्वास के लिए साल 2009 में एक रेस्क्यू सेंटर की स्थापना का प्रस्ताव दिया था
  • केरल: सितंबर 2021 में वन विभाग ने विशेष रूप से बने सेंटरों में बंदरों को भेजने की सिफारिश की
  • कर्नाटक: बंदरों के पुनर्वास के लिए सरकार ने 6.25 करोड़ रुपए दिए


लोगों की मदद के लिए

  • कर्नाटक व हरियाणा: बंदरों से पीड़ित मोहल्लों के लोगों की मदद के लिए टेलीफोन हेल्पलाइन शुरू किया गया


दरिंदा घोषित

  • हिमाचल प्रदेश: साल 2016 से सरकार समय-समय पर फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले बंदरों को दरिंदा घोषित कर उन्हें मारने की इजाजत देती रही है

 

 

“टकराव प्रबंधन पर हो जोर”

सिर्फ स्थानांतरण से मानव-बंदर टकराव खत्म नहीं होगा  — सुमंत बिंदुमाधव

दक्षिण एशिया के बहुत सारे देशों की तरह भारत में भी मानव-बंदर के बीच संपर्क की वजह धार्मिक व श्रद्धा है। हालांकि, टकराव की खबरें तब आती हैं जब बंदर शहरों में लोगों को काटते हैं, गांवों में फसल को नुकसान पहुंचाते हैं और सैलानियों को परेशान करते हैं। लगभग हमेशा ही बंदरों को खतरे के तौर पर देखा जाता है, बड़ी संख्या में उन्हें बेतरतीबी से कैद कर लिया जाता है और दिल्ली जैसी जगहों पर सेंचुरी के नाम पर एक बड़े इलाके में उन्हें छोड़ दिया जाता है। या हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में टकराव नहीं होने की सूरत में भी बड़ी संख्या में उनकी नसबंदी कर दी जाती है। कुछ मामलों में लोग निर्ममता से उनकी हत्या कर देते हैं, जैसा कि कर्नाटक में हमने हाल में देखा। बंदरों के लिए शहर वरदान हैं क्योंकि भरपूर भोजन मिलने पर ही वे फूलते-फलते हैं। शुरुआत में जब बंदरों का एक बहुत छोटा समूह रिहायशी काॅलोनियों में नजर आता है, तो अधिकतर लोग अपना बचा खुचा खाना और फल उन्हें दे देते हैं। इसके साथ ही ठोस पदार्थों के खराब प्रबंधन के चलते बंदरों को उच्च कैलोरी वाला भोजन भी आसानी से मिल जाता है। दिन गुजरने के साथ उनकी आबादी बढ़ती जाती है और फिर उनकी संख्या इतनी बढ़ जाती है कि वे खाना छीनने लगते हैं या भोजन के लिए घरों में धावा बोलने लगते हैं। तब जाकर लोग मदद के लिए प्रायः अनुपयुक्त और खराब तरीके से प्रशिक्षित वाइल्डलाइफ मैनेजर के पास या फिर निजी तौर पर बंदर पकड़ने वालों के पास पहुंचते हैं, जो बंदरों को कैद कर जंगलों में छोड़ देते हैं।

यद्यपि स्थानांतरण मानवीय नजर आता है, मगर असल में इसमें सिर्फ टकराव को शिफ्ट कर दिया जाता और बंदरों के दूसरे समूह के आने के लिए जगह छोड़ दी जाती है। इस तरह से यह चक्र चलता रहता है। सच्चाई तो यह है कि मानव-बंदर के बीच टकराव ऐसा मुद्दा नहीं है जिसका समाधान हो सकता है। जब तक मानव व बंदर, स्थान और संसाधन साझा कर रहे हैं, तो उनके बीच संपर्क तो होगा ही। इस टकराव के प्रबंधन की जिम्मेदारी पूरी तरह वन विभाग पर है, जिनकी क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। जरूरत है कि वन विभाग, नगर निगमों, शिक्षा विभाग और स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर ऐसे मीडिया कैंपेन पर काम करें कि लोगों को बंदरों को भोजन देने के लिए हतोत्साहित किया जाए। सभी विभाग मिलकर असरदार ठोस कचरा प्रबंधन को प्रोत्साहित करें, स्कूल पाठ्यक्रम में सहानुभूतिपूर्ण जीवन को शामिल किया जाए, वैज्ञानिक, मानवीय और गैर -विध्वंसक आबादी प्रबंधन कार्यक्रम अपनाया जाए और प्रतिक्रिया वश बंदरों की हत्या करने या उन्हें नुकसान पहुंचाने को रोकने के लिए त्वरित निदान की व्यवस्था की जाए।

(सुमंत बिंदुमाधव, ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल/इंडिया के वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन के डायरेक्टर हैं)

 

“बंदरों का हो पृथक जोन”

मनुष्यों के रिहायशी इलाकों से स्थानांतरण होने वाले बंदरों को उनके अनुकूल पृथक स्थान देने की जरूरत है — इकबाल मलिक

भूरे बाल और लाल त्वचा वाले बंदर की पैदाइश भारत समेत दक्षिण, मध्य और दक्षिणी पूर्वी एशिया में है। वे ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी तरफ उत्तरी राज्यों में रहते हैं और भौगोलिक रूप से काफी फैले हुए हैं। घास के मैदान से लेकर वन क्षेत्र, मैदान और पर्वत श्रृंखला उनके ठिकाने हैं। पिछले कुछ समय से प्राकृतिक संसाधनों में गिरावट आई है, जिससे मानव व बंदरों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है जबकि उनमें सह-अस्तित्व की सहनशीलता घट गई है। मनुष्यों ने बंदरों के भोजन के लिए जगह छोड़ने की जगह बेतरतीबी से उनकी जगह को हड़प लिया। इसके बदले में बंदरों ने मनुष्यों की संपत्तियों पर धावा बोल दिया और उन्हें नुकसान पहुंचाया। उनकी रोजाना की गतिविधियां बदल गईं। नर व मादा बंदरों के अनुपात में विषमता आने के चलते उनकी आबादी में बेतहाशा इजाफा हुआ। न केवल मादा बंदरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई बल्कि वे सामान्य उम्र से पहले ही सेक्सुअली मैच्योर होने लगी। मानव-बंदर टकराव ने प्रशासन, वन व कानून प्रवर्तन एजेंसियों के भ्रष्ट आचरण को भी बेपर्दा कर दिया है, जिसमें बंदरों को मिलने वाले प्राकृतिक खाद्य की जगह मानव निर्मित खाने ने ले ली और बहु-परतीय वन, सतही वन में तब्दील हो गए। टकराव प्रबंधन की कोशिश बेमन से या गलत दिशा में की गई।

अल्पकालिक, अवैज्ञानिक और बेतरतीब समाधानों की जगह यह समझने की जरूरत है कि बंदर किसी खास रिहायश को क्यों चुन रहे हैं। साथ ही उनके भीतर के तनाव और चिंता को भी समझने की जरूरत है। इस मसले को लेकर एक समाधान यह है कि सभी हरियाली भरी जगहों को मंकी जोन में तब्दील कर वहां बंदरों के रहने के लिए मनुष्यों के ठिकाने से बेहतर माहौल बनाया जाए।

इसके लिए लोगों को सबसे पहले उत्तरी भारत में साथ खाना खाने वाले बंदरों के समूहों और हरियाली भरी जगहों की शिनाख्त करनी चाहिए। इन जगहों में पानी की व्यवस्था, मिट्टी को ठीक कर छायादार और फलदार पेड़ लगाकर बंदरों के रहने के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।

इसके अलावा बंदरों को लेकर स्थानिक व जरूरत आधारित नई नीतियों व कठोर कानून की जरूरत है। बंदरों को राज्य की जगह केंद्र का मुद्दा बनाना चाहिए और केंद्र सरकार को समाधान के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से विमर्श करना चाहिए। नए कानूनों में कैद करने, भोजन देने और हिंसा को रोकना चाहिए और साथ ही बेतहाशा प्रजनन को कम करने के लिए मादा बंदरों का लम्बे समय तक प्रभावी रहने वाला गर्भनिरोधन करना चाहिए।

(इकबाल मलिक, दिल्ली के गैर-लाभकारी सामुदायिक संगठन वातावरण की संस्थापक व निदेशक हैं)

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