आंकड़ों से किसे और क्यों लगता है डर

मौजूदा समय में इस संगठन के बहुत से सर्वेक्षणों को कूड़ेदान में डाल दिया जाता है, शायद इसलिए कि उसके नतीजे राजनीतिक नेतृत्व को पसंद नहीं आते

By Richard Mahapatra

On: Monday 29 August 2022
 

योगेन्द्र आनंद / सीएसई इतिहास की किताबें वर्तमान में सजग करती हैं। निखिल मेनन की किताब “प्लानिंग डेमोक्रेसी” ऐसी ही एक किताब है। अमेरिका के नोट्रेडेम विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक मेनन ने भारत की पंचवर्षीय योजनाओं की उपयोगिता को कलमबद्ध किया है।

किताब की भूमिका में वह लिखते हैं, “किताब आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं के चश्मे से भारत और उसके लोकतंत्र को समझने का प्रयास करती है।”

भारत द्वारा केंद्रीकृत नियोजित अर्थव्यवस्था को अपनाना एक वैश्विक घटनाक्रम था, जिसके विविध पहलुओं पर दुनिया भर के वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी देशों में बहस हुई।

मेनन लिखते हैं, “भारतीयों की जिंदगी में नियोजन की भाषा ने बहुत जल्द पैठ बना ली। जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने और बर्लिन की दीवार ढहाने के उस दौर में नियोजन की वैश्विक नीति निर्माताओं के बीच चर्चा होने लगी। भारत में इसे लागू करने से काफी पहले दूसरे विश्व युद्ध के समय भी इसे अंतरराष्ट्रीय वैद्यता मिली थी, खासकर बीसवीं सदी के मध्य के दशकों में।”

किताब भारत में आंकड़ों के महारथी और उसके संरक्षक प्रशांत चंद्र महानलोबिस के जीवन और उस समय के जरिए पंचवर्षीय योजनाओं की कहानी समझाती है। यह बताती है कि आंकड़े किस तरह देश को नियोजित विकास के पथ पर अग्रसर करने में मदद करते हैं।

किताब के अनुसार, “स्वतंत्रता के बाद देश की आंकड़ों में दिलचस्पी काफी बढ़ गई। नियोजित विकास की आवश्यकता ने इसे और तीव्र कर दिया। 1950 के दशक में देश ने आंकड़ों के संकलन के लिए अपनी क्षमताओं का व्यापक विस्तार किया।”

अब बात अगस्त 2022 की, जब हम स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहे थे। अभी “नए भारत” की आकांक्षाओं को ईंधन दिया जा रहा है। जोर देकर कहा जा रहा है कि हम अपने वर्चुअल अकाउंट्स में राष्ट्रीय ध्वज की तस्वीर लगाकर अपनी भारतीयता का प्रदर्शन करें। इन सबके बीच मेनन की किताब याद दिलाती है कि अधिकांश भारतीय विगत पांच वर्षों से योजनाविहीन जीवन जी रहे हैं।

12वीं पंचवर्षीय योजना अपनी कड़ी की आखिरी योजना थी, जो मार्च 2017 में खत्म हो गई। 2014 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग का गठन किया। यह एक विजन दस्तावेज था, जिसमें राज्य को मिलकर काम करके संघीय ढांचे को पोषित करना है।

“प्लानिंग डेमोक्रेसी” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले स्वतंत्रता दिवस के भाषण से शुरू होती है, जब उन्होंने ऐसे पहले विजन “75वें वर्ष में नए भारत की रणनीति” की घोषणा की थी। इसे 2018 में जारी किया गया। इसमें नया भारत बनाने का लक्ष्य है। इस नए भारत में गंदगी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, गरीबी, कुपोषण और कमजोर कनेक्टिविटी से मुक्ति का लक्ष्य है।

इस विजन के कम से कम 17 लक्ष्यों की समयसीमा 2022 है। सरकारी आंकड़ों पर आधारित डाउन टू अर्थ की वार्षिक रिपोर्ट “स्टेट ऑफ इंडियाज इनवायरमेंट इन फिगर्स 2022” की मानें तो हम इनमें से अधिकांश लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाएंगे।

“प्लानिंग डेमोक्रेसी” एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू पर भी रोशनी डालती है। यह बताती है कि नियोजित व विजन आधारित विकास कार्यक्रम बनाने में आंकड़ों की क्या महत्ता है। लेकिन अगर हम पिछले पांच वर्षों पर नजर डालें तो पाएंगे कि आंकड़ों पर बंदिश लगाई गई है। हम यह नहीं जानते कि भारत में कितने और कौन लोग गरीब हैं।

पिछले दशक में कोई उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण भी नहीं किया गया। हम यह भी नहीं जानते कि श्रमबल में कितनों और रोजगार मिला है और कितने बेरोजगार हैं। हालांकि हमें यह जरूर पता है कि कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों से कितने लोग लाभांवित हुए हैं।

हालिया महीनों में मोदी ने गरीबों की बात शुरू की है और जिन्हें अब लाभार्थी के नाम से जाना जा रहा है। सवाल यह है कि आबादी के इस वर्ग को बिना जाने सरकार अपनी विकास योजनाओं को कैसे लक्षित कर रही है?

सरकार किस आधार पर यह दावा करती है कि गरीबों को सभी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है? पंचवर्षीय योजनाओं के लागू होने से ठीक पहले तत्कालीन सरकार ने 1950 में नेशनल सैंपल सर्वे का गठन किया था ताकि विकास योजनाओं के लिए सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों का संकलन किया जा सके।

मौजूदा समय में इस संगठन के बहुत से सर्वेक्षणों को कूड़ेदान में डाल दिया जाता है, शायद इसलिए कि उसके नतीजे राजनीतिक नेतृत्व को पसंद नहीं आते। आंकड़ों से समस्या को मापा जा सकता है, फिर उसे दूर भी किया जा सकता है। अगर हम इसे मापेंगे ही नहीं, तो उसे दूर भी नहीं कर पाएंगे, चाहे वह नए भारत के दावे ही क्यों न हों।

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