बजट 2020-21: क्या कहते हैं देश के पांच परिवार?

बजट 2020-21 को लेकर डाउन टू अर्थ ने देश के गांव, तहसील, जिले, राज्य की राजधानी और देश की राजधानी में रह रहे परिवारों से बातचीत की

By Anil Ashwani Sharma

On: Saturday 01 February 2020
 
मध्य प्रदेश के रीवा जिले के गांव गांव दुआरी निवासी गुरु रामजी अग्निहोत्री अपने परिवार के साथ बजट देखते हुए। फोटो: निमेश अग्निहोत्री

आम बजट 2020-21 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की कई घोषणाएं की हैं, लेकिन इन घोषणाओं को आम जन किस तरह देख रहे हैं, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने गांव से लेकर देश की राजधानी तक पांच अलग-अलग क्षेत्रों में रह रहे लोगों से बातचीत की। आइए, जानते हैं कि क्या कहते हैँ ये आम जन-

मध्य प्रदेश के रीवा जिले के गांव गांव दुआरी निवासी गुरु रामजी अग्निहोत्री एक किसान हैं और उन्होंने अपने परिवार के साथ बजट को ध्यान से सुना। उनका कहना है कि सरकार हमारी आमदनी 2022 तक में दोगुना करने की घोषणा कर रही है, लेकिन यह बात पच नहीं रही है। अब तो लगने लगा है कि देश का बजट एक सालाना प्रक्रिया होकर रह गया है। इसका गांव, गरीब, किसान के कल्याण से कोई वास्ता नहीं है, जिस तरह का गोलमोल बजट पेश किया गया है, उसका मतलब समझना भी कठिन काम है। किसानों का मुख्य विषय लाभकारी मूल्य और खरीद की गारंटी का बजट भाषण में वित्त मंत्री द्वारा जिक्र तक नहीं किया गया, इससे बड़ी निराशा किसानों के लिए है।

उनके साथ ही भाषण सुन रहे पंकज अग्निहोत्री ने अपने पिता की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा कि फसल बीमा में बदलाव, कर्ज माफी, किसान सम्मान निधि में बजट न बढ़ाना आदि अहम विषयों को वित्त मंत्री ने छुआ तक नही। उनकी बेटी नीतू अग्निहोत्री जो एक आगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं, कहती हैं कि बजट में बताया गया है कि हमें स्मार्ट फोन बांटे गए हैं, लेकिन अब तक तो हमारे इस इलाके में किसी को नहीं नसीब हुए हैं।

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की तहसील कुम्हारी में नित्यव्रत राय बजट भाषण देखते हुए। फोटो: पूर्णव्रत राय

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की तहसील कुम्हारी में नित्यव्रत राय अपने माता-पिता और परिवार के साथ इस कस्बे में पिछले तीस सालों से रह रहे हैं। पेशे से एकाउंटेंट राय कहते हैं आप स्वयं देख लें कि यह बजट कितना प्रभावी है। वित्तमंत्री ने जब बजट पेश किया और उनका लंबा भाषण खत्म् हुआ तो बाजार भी लुढक गया। मैं लगातार शेयर बाजार पर नजर रखता हूं। आम बजट से शेयर बाजार नाखुश है। बजट में सरकार ने डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स (डीडीटी) को खत्म करने और इनकम टैक्स स्लैब पर बड़े बदलाव किए। इसके बावजूद बाजार में जोश देखने को नहीं मिल रहा। बजट की गोलमटोल बातें तो देश की अस्सी फीसदी जनता के सिर से ऊपर निकल जाती हैं। उनकी पत्नी मृदुला राय कहती हैं कि एक महिला द्वारा लगातार दूसरी बार पेश करने की बात सुनकर अच्छा लगता है, लेकिन वित्त मंत्री एक महिला होकर भी एक आम गृहणी की समस्या को समझ नहीं पाई। वित्त मंत्री महंगाई पर काबू पाने की बात करती हैं, जबकि वह अगर बाजार जाएं तो हकीकत पता चल जाएगी।

 

ओडिशा के सुंरदगढ़ जिले में राघवेंद्र द्विवेदी अपने परिवार के साथ बजट देखते हुए। फोटो: कृति द्विवेदी

ओडिशा के सुंरदगढ़ जिले में राघवेंद्र द्विवेदी अपने परिवार के साथ रहते हैं। पेशे से शिक्षक द्विवेदी ने बजट में शिक्षा ऋण पर दी गई धनराशि को पर्याप्त नहीं मानते हैं। वह कहते हैं कि बजट में कहा गया है कि हाशिए पर मौजूद तबके के बच्चों को क्वालिटी एजुकेशन देने के लिए ऑनलाइन एजुकेशन को बढ़ावा दिया जाएगा। यहां सवाल उठता है कि पहले तो उनके पेट की आग बुझाना जरूरी हैं। यह सही है कि भारत हायर एजुकेशन का भी पसंदीदा देश बनता जा रहा है। लेकिन यहां भी वही क्वालिटी एजुकेशन का मामला है। जहां तक नई शिक्षा नीति घोषित करने की बात है तो इस पर हम देखते आए हैं कि पिछली शिक्षा नीतियों का कहीं भी समीक्षा करने की बात नहीं कही जाती है।

उनकी पत्नी प्रतिमा द्विवेदी कहती हैं कि बजट में वित्तमंत्री ने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की बढ़चढ़कर तारीफ की है। लेकिन धरातल पर देखें तो ऐसा नहीं है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही उनकी बेटी कृति द्विवेदी कहती हैं कि देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए 10 साल से अधिक का समय बीत गया है, लेकिन इस कानून पर अमल करने की रफ्तार इतनी धीमी है कि पूरे देश में इसके अनुपालन का दर महज 12.7 फीसदी है। लिहाजा सरकार को शिक्षा पर बजट बढ़ाना चाहिए। 

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बजट दिखता घोष परिवार। फोटो: मनीष चंद्र मिश्र

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रह रहे घोष परिवार ने पूरे परिवार के साथ मिलकर बजट देखा। परिवार के मुखिया प्रदीप और शिबानी घोष के साथ इस परिवार में दो युवा उद्यमी भाई-बहन पीयूष और पियूली घोष शामिल हैं। पीयूष घोष ने कहा कि यहां यह समझना अधिक मुश्किल नहीं है कि सरकार अच्छी-अच्छी बातें तो करना जानती है, लेकिन उसे जमीन पर लाने के मामले में हमेशा निराश करती है। वे कहते हैं, मुझे लगता है कि यह बजट इसी तरह का है। बस बजट का भाषण कुछ लंबा था, लेकिन बहुत शानदार नहीं था। हमने देखा कि कैसे आर्थिक सर्वेक्षण में वीकीपीडिया को स्त्रोत मानकर जानकारियां शामिल की गई थीं। इनकम टैक्स स्लैब पर पीयूष कहते हैं कि यहां दो तरह का सिस्टम लाने की क्या जरूरत थी। हम क्यों नहीं एक सुलझा हुआ टैक्स सिस्टम बना सकते हैं।

शिबानी घोष ने शिक्षा के क्षेत्र में किए गए प्रावधानों पर खुशी जताई। वे कहती है कि मैं वंचित लोगों के लिए शिक्षा पर काम करती हूं। एजुकेशन पर सरकार ने काफी बढ़िया योजनाएं बनाई है। इस क्षेत्र में 99,312 करोड़ का खर्च वाकई पर्याप्त है, लेकिन जरूरत है उसे सही जगह खर्च करने की। मेरा सोचना है कि अगर इन पैसों को सही से खर्च किया जाए तो शिक्षा की स्थिति बेहतर होगी। अगर यूनिवर्सिटी की संख्या बढ़ती है और वंचित समूह के लोगों के लिए फीस में सहूलियत मिलती है तो मेरे ख्याल से यह बजट अच्छा माना जाएगा। प्रदीप घोष बजट की घोषणाओं पर अलग राय रखते हैं। वे मानते हैं कि हर साल बजट में लोक लुभावने वादे किए जाते हैं और अगली बार फिर बजट पेश होता है। इस दौरान कोई ये नहीं देखता कि पिछले बजट के वादों का क्या हुआ। बजट आने से पहले सिटीजन ऑडिट होना चाहिए, ताकि यह देखा जा सके कि जमीनी स्तर पर घोषणाओं का क्या असर हुआ।

दिल्ली के रोहिणी इलाके में बजट की जानकारी लेते पवन शर्मा व उनका परिवार। फोटो: शुभम शर्मा

देश की राजधानी दिल्ली के रोहिणी इलाके में रह रहे पवन शर्मा कहते हैं कि इस बजट में हम दिल्ली वालों या हमारे जैसे महानगरों में रहने वालों के स्वास्थ्य पर किसी प्रकार की बात नहीं की गई है। हम देख रहे हैं कि पिछले चार पांच सालों में हम सभी प्रदूषित हवा ले रहे हैं। कहने के लिए सरकार ने इसके लिए बजट कहा कि जहां आबादी 10 लाख से ज्यादा है, वहां साफ हवा एक बड़ी चुनौती है। इस पर 4400 करोड़ रुपए खर्च होंगे। यह प्रावधान तो कर दिया, लेकिन इसके क्रियान्वयन पर जोर कभी नहीं होता है। ऐसे में यह पैसा पूरे के पूरे पांच साल तक बचा ही रह जाता है। क्योंकि यह एक ऐसी समस्या है जो कि हमें और आपको अपनी नंगी आंखों से भी नहीं दिखाई देती।

वहीं, दूसरी ओर उनकी पत्नी बिंदु शर्मा कहती हैं कि बजट में स्वच्छता पर सरकार ने बारह हजार करोड़ से अधिक की व्यवस्था की है लेकिन हम देख रहे हैं कि जब देश की राजधानी ही स्वच्छ नहीं हो सकी, पिछले पांच सालों में तो देश के अन्य गांव या कस्बे कैसे साफ होंगे। वह कहती हैं कि सरकार इसे पैसे से जोड़ती है जबकि वास्तविकता यह है कि यह एक महत्वपूर्ण विषय है और इसे स्कूलों ओर कॉलेजों में पढ़ाया जाए नाकि सरकार जोर जबरदस्ती से टायलेट आदि बनावने से कोई इसका उपयोग करना शुरू नहीं कर देगा।

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