जानें, कोरोना संकट के बाद सरकार को क्यों देना चाहिए बेसिक यूनिवर्सल इनकम

बड़े स्तर पर लोगों तक नगदी न पहुंचने के कारण हम कुल मांग में कमी के साथ-साथ एक बड़ी मंदी का सामना कर रहे हैं

By Molly Scott Cato

On: Monday 11 May 2020
 
Photo: Needpix

पूंजीवाद काम नहीं कर रहा है। हमें एक यूनिवर्सल बेसिक इनकम की जरूरत है, क्योंकि कोरोनावायरस लॉकडाउन से आगे हम गहरे आर्थिक और जलवायु संकट में भी चले गए हैं।

‘फरलॉग स्कीम’ कंजर्वेटिव सरकार की बेहतरीन पहल थी, जिसका लक्ष्य लाखों लोगों की इनकम को सुरक्षा प्रदान करना था।

इस मामले में यह कहना कि ब्रिटेन के लोगों में इस स्कीम के प्रति आसक्ति पैदा हो गई है, यानी इस स्कीम का वे हर हाल में लाभ लेना चाहते हैं, उन लोगों का अनादर है, जो इसके बिना गरीबी के दलदल में डूब जाएंगे। यहां इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया गया कि फरलॉग नियोक्ताओं के नियंत्रण में था, न कि कामगारों के नियंत्रण में। यहां खास बात यह भी है कि जो बिजनेस चला रहे हैं, वे इकोनॉमी को पटरी पर लाने के लिए उतने ही बेताब हैं, जितने कि देश के चांसलर।

हम लोग पहले आपातकाल से आगे निकल चुके हैं, अब आगे क्या?

सरकार के लिए इस समय सबसे जरूरी है आने वाले महीनों और सालों के दौरान देश के सभी लोगों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करना है, क्योंकि लेबर मार्केट और इकोनॉमी दोनों लगातार उथल-पुथल से गुजर रहे हैं और उनके बारे में अनुमान लगाना फिलहाल मुश्किल है।

इस स्थिति का साफ जवाब है- यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) से जुड़ी एक स्थायी ग्रीन पॉलिसी। इससे सभी लोगों को उतनी आय मिल जाएगी, जिससे वे अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के साथ ही किराये पर रहने की स्थिति में इसके पैसे वहन करने में सक्षम हों। इसके अलावा, इससे शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की जरूरतों की पूर्ति भी हो सके।

इस संकट के दौरान यूबीआई की मांग काफी तेज हो गई है। इस संबंध में एक संसदीय प्रस्ताव भी सामने आया, जिसका समर्थन लगभग 100 सांसदों ने किया।

इस तरह की पॉलिसी देश के लोगों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए चांसलर द्वारा तैयार की गई जटिल आर्थिक स्कीम्स की तुलना में अधिक प्रभावी होगी। खास बात यह भी है कि चांसलर द्वारा तैयार स्कीम्स के दायरे से बाहर रह गए लोगों को यूबीआई से संकट के इस दौर में आर्थिक सुरक्षा मिलेगी।

हालांकि, लेबर और कंजरवेटिव दोनों दलों ने इस पॉलिसी की खिलाफत की है, क्योंकि दोनों ही दल ‘वेज-लेबर सिस्टम’ के हिमायती हैं, जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के केंद्र में है।

लेबर और कंजरवेटिव पार्टी से एक-एक सांसद परंपरागत पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति तटस्थ दिखे, लेकिन किसी में भी पूंजीवादी व्यवस्था के उन बुनियादी कानूनों को चुनौती देने की हिम्मत नहीं हुई, जिनके प्रति काम करने के लिए हर नागरिक नैतिक रूप से मजबूर है।

असुरक्षा

इस वक्त जिस तरह का वीभत्स आर्थिक संकट है, उसका हल निकालने के लिए जरूरी पॉलिसी की राह में 19वीं सदी की मानसिकता आड़े आ रही है।

जो सरकार अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कोशिश कर रहे लोगों पर आर्थिक राहत लेने के लिए आसक्त होने का आरोप लगाती है, उसे इस बात का भी भय होगा कि तात्कालिक बेसिक इनकम स्कीम कहीं स्थायी बेसिक इनकम स्कीम न बन जाए और देश को यह व्यवस्था भीखारियों का देश न बना दे।

हालांकि, फिनलैंड की हालिया रिसर्च से साफ है कि यह आशंका वास्तविकता से काफी दूर है। दो साल के अध्ययन से साफ है कि भले ही राहत लेने वाले लोगों में वित्तीय और मानसिक सुरक्षा बाकी लोगों की तुलना में अधिक हो, लेकिन यह सिस्टम उनके काम की राह में रोड़ा बनने का प्रयास नहीं करता है।

वास्तव में, लाभ या राहत खोने के भय के बिना लाभ ले रहे लोग असुरक्षित अवसरों की जगह काम से जुड़े लचीले अवसरों की तरह अधिक उन्मुख हैं।

लेकिन बेसिक इनकम सिर्फ बुनियादी सुरक्षा प्रदान करती है। इससे अधिकांश लोग उस निम्न इनकम ग्रुप में ही बने रह जाते हैं, जिसमें वे इस आर्थिक संकट से पहले थे।

संकट

अगर इकोनॉमी में बड़ी मात्रा में कैश नहीं डाली जाती है तो आने वाले दिनों में भी कम डिमांड बनी रहेगी, जिससे आर्थिक मंदी अवश्यम्भावी हो जाएगी।

यूबीआई के साथ हमें बड़े स्तर पर पब्लिक इन्वेस्टमेंट (सरकारी निवेश) की भी जरूरत है, जो स्थायी ग्रीन पार्टी पॉलिसी होगी, जिसे ग्रीन न्यू डील भी कहा जाता है।

इससे ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, रेलवे में जान आएगी, हमारे घर बेहतर होंगे और जगहों को गर्म करने के लिए गैस की जगह इलेक्ट्रिसिटी के उपयोग को बढ़ावा मिलेगा।

इससे स्थानीय स्तर पर अच्छे वेतन वाली नौकरी पैदा होगी, जो ट्रेंड लोगों को ही मिलेगी। ग्रीन न्यू डील का मतलब है कि हम वर्तमान कोरोनावायरस संकट से बेहतर तरीके से निकलने में सक्षम होंगे।

हालांकि, हम किस तरह से इस ग्रीन न्यू डील की फंडिंग करते हैं, इसी से यह तय होगी कि हम समानता और निरंतर विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में कितने सफल रहते हैं।

उद्योग

हम एफटी से सहमत हैं कि इमरजेंसी कोरोनावायरस इन्वेस्टमेंट के एक बड़े हिस्से का निवेश बैंक ऑफ इंग्लैंड या क्यूई के द्वारा डायरेक्ट मनी क्रिएशन के लिए होना चाहिए।

वर्तमान सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के दौरान नागरिकों की सुरक्षा के लिए व्यापक पैमाने पर जरूरी सरकारी निवेश को भविष्य की पीढ़ियों के लिए बोझ नहीं बनना चाहिए। हालांकि, इन सबके बीच क्यूई के जरिए आने वाले पैसे जलवायु और निरंतर विकास की शर्तों पर ही आने चाहिए।

इससे यह सुनिश्चित होगा कि आपातकालीन आर्थिक पैकेज न सिर्फ वर्तमान संकट से निपटने के लिए है, बल्कि इससे दीर्घकालीन और गहरे जलवायु संकट से निपटने के लिए जरूरी क्षमता विकसित करने में भी मदद मिलेगी, जो कोरोना संकट के खत्म होने के बाद भी हमारे सामने होगा।

आर्थिक रिकवरी के लिए जरूरी है कि सरकार औद्योगिक और क्षेत्रीय नीतियों पर अधिक फोकस करे। वह तय करे कि किस इंडस्ट्री को सब्सिडी देनी चाहिए और उस इंडस्ट्री को कहां होना चाहिए।

तैयारी

हमें सार्वजनिक निवेश का संचालन इस तरह से करना चाहिए, ताकि इसके जरिए लंबे समय से प्रतीक्षित ग्रीन न्यू डील के प्रस्तावों को नया जीवन मिले और निरंतर आर्थिक विकास का मॉडल मजबूत बने।

हमें इस समय का उचित उपयोग करना चाहिए, क्योंकि अभी मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री अपना अधिकांश समय कम ऊर्जा और संसाधनों का उपयोग करते हुए ऑडिट करने, खुद का रीडिजाइन करने और जरूरी बदलाव करने में कर रही है।

हमें संकट की इस घड़ी में नहीं टिक सकने वाले उद्योंगों, खासकर नागर विमानन आदि से होने वाली क्षति को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस क्रम में हमें तेजी से उभर रहे उन उद्योंगों पर फोकस करना चाहिए, जिनके लिए सरकार के ट्रेनिंग पैकेज हैं और जहां लोगों की नौकरियां गई हैं।

इससे यह सुनिश्चित हो पाएगा कि इस आपातकालीन अवधि से निकलने के बाद सामने आने वाली इकोनॉमी गहरे जलवायु संकट से जूझने में अधिक सक्षम और टिकाऊ होगी।

(मॉली स्कॉट कैटो पहले साउथ-वेस्ट इंग्लैड और जिब्राल्टर के लिए ग्रीन एमईपी और वर्तमान में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। यह लेख इकोलॉजिस्ट से पुर्नप्रकाशित है। मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। )

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