तीसरी पीढ़ी का मजदूर दिवस

भारत सहित दुनिया भर में पहली बार मजदूर दिवस, घोषित ‘महामारी और तालाबंदी' के दौरान मनाया जा रहा है

By Ramesh Sharma

On: Friday 01 May 2020
 
फोटो: एकता परिषद

भारत सहित दुनिया भर में पहली बार मजदूर दिवस, घोषित ‘महामारी और  तालाबंदी' के दौरान मनाया जा रहा है। यह महज़ संयोग नहीं है कि अमूमन दुनिया के हरेक हिस्से में उनके अधिकारों की अघोषित तालाबंदी बरसों और दशकों पहले हो चुकी है। कुछ मुल्कों में समाजवाद के बयार के तुरंत बाद और शेष मुल्क़ों में नव उदारवाद की नई आंधी के साथ सायास  इन  'श्रमजीवियोंके अधिकार, पहचान और गौरव लगभग खारिज़ घोषित कर दिए गए।

भारत जैसे महादेश के लिए यह 'अर्द्धसत्य' कई मायनों में महत्वपूर्ण है।सत्य’ इसलिये कि संविधान और विधानों के मूल्य और भावना इस 70 फ़ीसदी श्रमिक जनसँख्या के लिये कवच है; औरअर्ध’ इसलिये कि यह कवच अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। आज यह अर्द्धसत्य उन करोड़ों बेज़ुबानों का दर्द है जिसका उत्तर केवल एक 'मज़दूर दिवस' को याद करके नहीं तलाशा जा सकता। वास्तव में मज़दूर दिवस मनानें के सही हक़दार हम तभी होंगे जिस दिन अर्द्धसत्य को समाज और सरकार 'पूर्ण सत्य' में बदल देगा। भले ही वह 26 जनवरी का दिन हो या 15 अगस्त का। 

फ़िलहाल 1 मई का मज़दूर दिवस, छत्तीसगढ़ में कोरबा जिले के कुम्हारीदर्री गांव के बृजलाल मार्को के लिये वैसा ही सामान्य दिन है। पानी पसिया से निपटकर काम पर जाना है ताकि घर परिवार के लिये बृजलाल कुछ कमा सके। बृजलाल के बुजुर्ग पिता अहिबरन नें अपने पिता बुधराम पंडो से कहानी सुनी थी।

लगभग 100 बरस पुरानी कहानी - लेकिन बिलकुल आज के महामारी के यथार्थ की तरह।

बुधराम पंडो कहते थे कि  वो सिगंरौली जिले का कोई गांव-टोला था जहाँ घने जंगलों में पंडो आदिवासी समाज का अपना संसार था। महामारी आयी और फिर देखते देखते लोग मरनेँ लगे। बुधराम पंडो के दादा और पंडो समाज के लोगों ने तय किया कि - अब यहाँ से भागना चाहिये।  कई दिन और रात वो सब जंगल में भागते रहे। अंततः कोरबा में रानीअटारी के जंगलों में एक गुफा में उन्होनें शरण लिया। बुधराम के दादा को गुफ़ा में तिरिया देवी ने स्वप्न में कहा कि वो पंडो समाज की रक्षा करेगी।  और फिर बरसों उसी गुफा और उसके आसपास पंडो समाज नें अपना गांव बसा लिया। सबको लगा कि उनकी अपनी दुनिया फ़िर बस गयी। पंडो समाज आज भी रानीअटारी की गुफ़ा में अपनी कुलदेवी तिरिया रानी को पूजता है और मानता है कि वो सभी विपत्तियों से पूरे समाज की रक्षा करेगी।

अहिबरन बताते हैं कि हम सब भूमिहीन थे सो मूलतः जंगल पर ही आजीविका टिकी थी। लेकिन हम सब कमाने-खाने, कोरबा -बिलासपुर और सरगुजा तक भी जाते थे। मज़दूरी के अनाज और जंगल के कंदमूल से गुजारा हो जाता था।  फिर लगभग 30 वर्ष पूर्व एक दिन गांव में कुछ बाहरी लोग आये  हमनें मेहमान मानकर उनका स्वागत किया।  कुछ लिखापढ़ी करके वो लौट गये।  कुछ महीनों बाद वो बड़े बड़े नक्शे लेकर गांव आये  उनकी बातें हमारे समझ से परे थीं। फिर 2-3 बरस  सबकुछ सामान्य ही था। इस बीच हमनें एकता परिषद के साथ जुड़कर  अपनें  'जंगल -जमीन' के अधिकारों के लिये आंदोलन शुरू कर दिया। वर्ष 2002 के शुरूआती दिन थे जब सुबह सुबह हमनें मशीनों की आवाजें सुनी।  वो धरती महतारी को मशीनों से छेदकर कुछ निकाल रहे थे। शाम होते होते वो खा-पीकर लौट गये। अगले हफ्ते ही फ़रमान आया कि रानीअटारी के नीचे बहुत कोयला है जिसे सरकार निकालकर बिजली बनाएगी ताकि हमारे घरों में रोशनी हो जाये। जब तक हम कुछ समझ पाते - कह पाते उसके पहले ही रानीअटारी के जंगल में काला धुआं उड़ने लगा और हमारे आँखों के सामनें अंधेरा छाने लगा।

बृजलाल मार्को का जनम कुम्हारीदर्री के नई जमीन पर हुआ। बृजलाल कहते हैं कि मेरे पिता अहिबरन से विरासत में मुझे सबकुछ मिला  - गैंती-रापा जिससे मैं मज़दूरी कमा सकूँ; पूरा काला जंगल जहाँ से कुछ भी लानें पर सरकार द्वारा अपराधी कहलाऊँ; मेरी धरती महतारी जिसे मशीनों और बारूदों नें छलनी कर डाला और कुलदेवी  तिरिया रानी की गुफ़ा जो आज भी पंडों लोगों से कहती है कि  तुम्हारी रक्षा मैं करुँगी। पूरे पंडो आदिवासी समाज की बस इतनी ही जमा पूंजी है।

बुधराम और अहिबरन का वंशज - बृजलाल मार्को तीसरी पीढ़ी का मज़दूर है। उसनें संविधान नहीं पढ़ा।  श्रम क़ानून और मज़दूरो के अधिकारों और सुरक्षा की कोई दंत कथा अपने पिता अहिबरन से नहीं सुना। क़ानून और नीतियां, समयकाल से परे होती हैं। उनमें पीढ़ीगत न्याय का कोई वर्गभेद नहीं होता। अन्यथा बुधराम से अहिबरन और अहिबरन से बृजलाल तक न्याय की प्रतीक्षा , तीन पीढ़ी गिन रही होती।

भारत में कृषि और कृषि से संबंधित लगभग उद्यमों में 52 फ़ीसदी से अधिक श्रमिक कार्य कर रहे हैं।  ‘न्यूनतम मज़दूरी क़ानून’ वर्ष 1948 में लागू किया गया था जिसके तहत निर्धारित से कम मज़दूरी का भुगतान संज्ञेय अपराध माना गया। यह क़ानून कितना प्रभावी है इसका पैमाना यह हो सकता है कि इसके उल्लंघन के लिये कितनें लोगों को सजा दी गयी। मज़दूरों के अधिकारों के लिये दूसरा महत्वपूर्ण क़ानून हैअन्तर्देशीय प्रवासी मज़दूर अधिनियम’ जो 1979 में लागू किया गया। इसके क्रियान्वयन की असफ़लता केवल इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अधिकांश राज्यों के पास प्रवासी मज़दूरों का कोई व्यवस्थित रिकॉर्ड है ही नहीं, इसलिये  इसके क्रियान्वयन की वास्तविकता महज़ त्रासदी ही है।

बृजलाल और उसके पिता अहिबरन की दिलचस्पी ऐसे किसी भी क़ानून की कथा सुननें के बजाये ये जाननें में अधिक है कि 'मनरेगा' में किए गए काम का भुगतान क्या इस बरस हो जायेगा?

बृजलाल कहता है मैं तीसरी पीढ़ी का मज़दूर हूँ।  बुधराम जब जिन्दा थे तब न्यूनतम मज़दूरी कानून बना। जब अहिबरन नें गैंती फावड़ा उठाया तब अन्तर्देशीय प्रवासी मज़दूर अधिनियम बना। जब से मैं कमा खा रहा हूँ - मनरेगा का नया क़ानून गया। मुझे पहली और दूसरी पीढ़ी के क़ानून लागू होनें की प्रतीक्षा नहीं है।  मैं तो बस इतना जानना चाहता हूँ कि मेरे जैसे लाखों तीसरी पीढ़ी के नौजवान मज़दूरों के अधिकारों की तालाबंदी आखिर कब समाप्त होगी।  

मज़दूर दिवस वास्तव में सवालों का दिवस नहीं होना चाहिये। हमारे पास उन मज़दूरों के अनुत्तरित सवालों का जवाब होना चाहिये जिनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी 'देश के निर्माण का गौरव' होनें के लिये अभिशप्त है।

आज से लगभग 100 बरस पहले बृजलाल के पुरखे किसी महामारी से बचनें के लिये अपना सबकुछ गँवा कर पूरी उम्मीद से रानीअटारी आये  उन्हें भय है कि नई महामारी कहीं फिर उन्हें उनके 'जंगल जमीन' से जुदा ना कर दे।

बृजलाल की तरह करोड़ों मज़दूरों के 'उम्मीद और भय' का घालमेल है - मज़दूर दिवस।

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