ऊर्जा उत्पादन के अर्धसत्य

कोयले की खातिर 2.94 लाख हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है, लेकिन इन जंगल-जमीन से आजीविका व अधिकार गवां चुके लोगों को आखिर क्या हासिल हुआ?

By Ramesh Sharma

On: Friday 02 February 2024
 
सरल गणित के अनुसार, प्रति घंटे 1 मेगावाट बिजली बनानें के लिये हमें लगभग 400 किलो कोयला जलाना होता है। फोटो: विकास चौधरी

जलवायु संकट के वैश्विक परामर्शों में ‘ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था’ (Just Inclusive Energy Transition) एक सार्थक और बहुप्रतीक्षित प्रस्ताव के रूप में आज दुनिया के सामने है। जलवायु परिवर्तन के वैश्विक विमर्शों में ‘ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था’ के सन्दर्भों का केंद्रबिंदु – कोयला और जीवाश्म तेल के बजाये प्राकृतिक स्रोतों से हरित अथवा प्रकृतिसंगत ऊर्जा का उत्पादन और उसका न्यायपूर्ण प्रबंधन है।

यह दृष्टिकोण उस संकट से जनमा है, जहां विगत 100 से अधिक बरसों के दौरान कोयला और जीवाश्म तेल के अंधाधुंध उपयोग-दुरूपयोग की नैतिकता-अनैतिकता नें जलवायु को घातक-स्थायी क्षति पहुंचाई है।

विश्वविख्यात सामाजिक चिन्तक बर्टेंड रस्सेल अपनी पुस्तक ‘विवेक और विनाश’ में लिखते है कि पृथ्वी की समस्त प्रजातियों में अकेला मानववंश ही है, जो अपने अविवेकपूर्ण हरक़तों के चलते स्वयं अपने ही पतन का कारण बनेगा। प्राकृतिक आपदाओं से हर बरस बेमौत मारे जाने वालों की उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या और बावजूद उसके, विनाश के स्थायी साधनों का अविवेकपूर्ण उपयोग करता मानव समाज, आज अपने ही नहीं वरन सम्पूर्ण पृथ्वी के अंत की शुरुआत कर चुका है।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट (2020) के अनुसार, विश्व में जलवायु संकट के कारण होने वाले नुकसान का मौद्रिक मूल्य लगभग 1.3 ट्रिलियन डॉलर है। जलवायु विशेषज्ञ कहते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण हर बरस लगभग 2 करोड़ लोग विस्थापित हो रहे हैं, जिनके समक्ष केवल जलवायु ही नहीं बल्कि अपनें अस्तित्व को बचाये रखनें का संकट भी है।

जलवायु परिवर्तन के संकटों के अध्ययन और उनके समाधान सुझाने के लिये गठित इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी, 2023) का अनुमान है कि आने वाले बरसों में पूरी दुनिया के एक ओर लगभग 10 करोड़ से अधिक लोग प्रत्यक्ष तौर पर भयावह सूखे से, तो दूसरी ओर लगभग 24 फीसदी लोग बाढ़ से प्रभावित होंगे।

भारतीय वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों के अनुसार वर्ष 2021 में केवल सूखे के वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 160 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है।

पर्यावरण और विकास के मानवीय मुद्दों पर कार्यरत ‘ग्रोथ वाच संस्था’ की प्रमुख विद्या दिनकर कहतीं हैं कि - भारत में ऊर्जा उत्पादन और उसके न्यायपूर्ण प्रबंधन को सर्वोच्च राजनैतिक प्राथमिकताओं में रखना होगा, ताकि जलवायु संकट के लिये प्रमुख रूप से जवाबदेह - कार्बन उत्सर्जन के अनुपात को वैश्विक संधियों के अनुरूप संतुलित किया जा सके।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (2022) के अनुसार ‘ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था’ का प्रमुख तात्पर्य प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित, तार्किक और टिकाऊ उपयोग के माध्यम से गरीबी, असमानता आदि को दूर करते हुये जलवायु संकट से प्रभावित लाखों वंचितों को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना भी है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का मानना है कि जलवायु संकट से बचने के सर्वश्रेष्ठ विकल्प अर्थात हरित ऊर्जा के उपयोग से लगभग 1 करोड़ 80 लाख नये रोजगार पैदा हो सकते हैं। अर्थात ‘ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था’ वास्तविक रोजगार में वृद्धि का एक महत्वपूर्ण माध्यम है, अथवा हो सकता है।

आज भारत जैसे तेजी से विकसित होते राष्ट्र का राजनैतिक संकट यह है कि वह विकास अथवा कार्बन तीव्रता कम करने यानी डिकार्बनाइजेशन के निर्णायक विकल्पों के मध्य आखिर किसे चुनें? विकास की रफ्तार निश्चित ही आर्थिक-सामाजिक समृद्धि के लिये आवश्यक है, किन्तु पर्यावरण के विनाश की कीमत पर होने वाला ‘तथाकथित विकास’ दूरगामी तौर पर अमानवीय और अन्यायपूर्ण होगा यह देश-दुनिया के कई उदाहरणों से जगजाहिर है।

प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर किन्तु दशकों से विपन्नता के उदाहरण बने क्युन्झर, कोरापुट, कोरबा और कवर्धा इसके सार्वजनिक प्रमाण हैं, जहां के लोगों नें विकास के लिये अपने प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संसाधन तो राष्ट्रहित में दे दिये, किन्तु उन संसाधनों की कीमत पर होनें वाले विकास के न्यायपूर्ण लाभ से वंचित ही रहे।

वास्तव में ऊर्जा के साधनों-संसाधनों के सदुपयोग-दुरूपयोग में असमानता और उसके अन्यायपूर्ण प्रभाव - एक मानव निर्मित आपदा है, जिसका समाधान - उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग और विशेष रूप से समाज में इन परियोजनाओं से विस्थापित लोगों को न्यायपूर्ण विकास में समान अवसर देने से ही संभव है।

वर्ल्ड एनर्जी रिव्यू (2022) के अनुसार भारत में कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन से पूरी तरह बाहर आने का लक्ष्य वर्ष 2070 है। जिसका एक अर्थ यह भी है कि, तब तक हमें समाज के सुविधाओं के खातिर सस्ती बिजली मुहैया कराने के लिये अपवादस्वरूप जंगलों और वहां बसने वाले लोगों को उजाड़ने का क्रम जारी रखना होगा। ऐसे में ऊर्जा उत्पादन की व्यवस्था, क्या न्यायपूर्ण रह पायेगी?

‘ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था’ के किसी भी सार्थक प्रस्ताव के पूर्व, आज समाज और सरकार को कुछ मूलभूत सवालों का जवाब देना होगा कि – ऊर्जा उत्पादन की अन्यायपूर्ण व्यवस्था से हुई अपूरणीय मानवीय और प्राकृतिक क्षति का समाधान क्या है और उसे कैसे लागू किया जायेगा?

क्या ऊर्जा उत्पादन के अन्यायपूर्ण व्यवस्था के दोषी लोगों और निकायों को स्थायी दंड दिया जायेगा? क्या सरकारें अब तक वंचित और विस्थापित हुये लोगों को प्राथमिकता के आधार पर न्याय सुनिश्चित करनें के लिये तैयार हैं? यदि हाँ, तो इसकी समय सीमा क्या है?

इनमें से किसी भी सवाल के सार्थक जवाब और उस जवाब को सशक्त तरीके से लागू करने की समय सीमा के बिना, जाहिर है ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था की चर्चा ही बेमानी होगी।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन के नाटकीय वैश्विक वार्ताओं और आधे-अधूरे संधियों में हम सब, ठीक यही ऐतिहासिक गलतियाँ कर रहे हैं। इसलिये पूरी चर्चा के विवेकपूर्ण निहितार्थ तो वास्तविक, लेकिन अविवेकपूर्ण समाधान - महज छद्म हैं।

भारत की राष्ट्रीय ऊर्जा नीति (2022) के अनुसार वर्तमान उपभोग की दर से वर्ष 2025 तक कुल 256 गीगावाट बिजली की आवश्यकता होगी, लेकिन यह उपलब्धता होने पर सभी लोगों को 24 घंटे बिजली मुहैया की जा सकती है या नहीं इस प्रश्न का उत्तर कहीं नहीं है।

गौरतलब है कि वर्ष 2018 में ही हम, शत-प्रतिशत गावों को बिजली मुहैया कराने के लक्ष्य तो हासिल कर चुके हैं, लेकिन प्रश्न शेष है कि क्या गावों और शहरों के बीच बिजली वितरण और उपभोग की असमानता समाप्त हो चुकी है?

बहरहाल सभी को बिजली देने की दिशा में वित्तीय वर्ष 2023 में हमने कुल 777 मिलियन टन कोयला जलाया और इसके खातिर, दिसंबर 2022 को भारत सरकार द्वारा संसद में दी गयी जानकारी के अनुसार - अब तक लगभग 2.94 लाख हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया।

इस अधिग्रहण से समाज के एक तबके नें बिजली के अधिकार तो हासिल कर लिये गये, लेकिन अपनें जंगल और जमीनों के अधिग्रहणों में अपनी आजीविका और अधिकार गवां चुके उन लाखों गुमनाम लोगों को आखिर क्या हासिल हुआ?

सरल गणित के अनुसार, प्रति घंटे 1 मेगावाट बिजली बनानें के लिये हमें लगभग 400 किलो कोयला जलाना होता है। अर्थात एक माह में 720 मेगावाट बिजली के लिये लगभग 288,000 किलो कोयले की जरूरत होगी - जिसे प्राप्त करने के लिये औसतन 1 एकड़ जंगल-जमीन उजाड़ना होता है।

इसके बाद बनी 720 मेगावाट बिजली का लगभग 20 फ़ीसदी नुकसान इसके पारेषण में होता है। शेष बिजली का औसतन 20  फीसदी अवैध रूप से चुराया जाता है - और अंत में उपलब्ध लगभग 60 फ़ीसदी बिजली के उपयोग के भुगतान में सरकारें, अमूमन 14 फ़ीसदी सब्सिडी देती हैं।

कुछ सरकारें तो लोगों को राजनैतिक घूसखोरी के लिये मुफ्त में बिजली देने का अनैतिक कृत्य भी करतीं हैं। भारत में ऊर्जा उत्पादन से जुड़े अन्याय और अनैतिकता का वास्तव में यही प्रस्थानबिन्दु है।

भारत में ऊर्जा उत्पादन की न्यायपूर्ण व्यवस्था की अंतर्राष्ट्रीय संधियों में हस्ताक्षर करने वालों से लेकर, ऊर्जा प्रबंधन के नीति-निर्माताओं से लेकर, राजनैतिक घूसखोरी के लिये लोगों को मुफ्त बिजली देने का वायदा करने वाले राजनेताओं से लेकर, चौबीसों घंटे बिजली की चाहत रखनें वाले (ग़ैर)जागरूक समाज तक, हरेक को यह भी जानना जरूरी है कि हम बिजली बनानें के लिये, किसकी और कितनी - भौतिक, पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत चुका रहे हैं।

जाहिर है भारत में ऊर्जा उत्पादन के लाभार्थी वो सभी हैं - जिन्होनें अपनी जमीन और जंगल सहित अपना गाँव नहीं खोया। लेकिन सब कुछ खोकर भी कुछ भी हासिल न हो पाने का दंश उन गुमनाम लाखों लोगों से जानना ही चाहिये जिनके अस्तित्व, आशा और अधिकारों को हम डोंगामहुआ, सुकिंदा, झरिया और भटादी गांव के कोयला खदानों में हमेशा के लिये दफन कर चुके हैं। काश हम भारत में ऊर्जा उत्पादन के न्यायपूर्ण व्यवस्था को - डोंगामहुआ, सुकिंदा, झरिया और भटादी गांव में अपनी जमीन और जमीर गवां चुके लोगों के साथ प्रारंभ कर पाते।

(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के महासचिव हैं)

 

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