परमाणु संयंत्रों का आसपास के पर्यावरण पर पड़ रहा है न के बराबर रेडियोलॉजिकल प्रभाव

भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के मुताबिक भारत के मौजूदा सात परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के आसपास हवा, पानी और मिट्टी में रेडियोधर्मिता का स्तर तय सीमा के भीतर है

By Lalit Maurya

On: Thursday 18 January 2024
 
कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र (केकेएनपीपी), तमिलनाडु; फोटो: रीतेश चौरसिया/ विकिमेडिया कॉमन्स

भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) के वैज्ञानिकों ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि भारत के मौजूदा परमाणु ऊर्जा संयंत्र अपने आसपास के पर्यावरण और समुदाय पर न के बराबर रेडियोलॉजिकल प्रभाव डाल रहे हैं।

गौरतलब है कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र अपने लंबे जीवन काल के लिए जाने जाते हैं। यह संयंत्र बहुत कम मात्रा में ग्रीनहाउस गैसे उत्सर्जित करते हैं, साथ ही यह बहुत ज्यादा ऊर्जा भी पैदा करते हैं। यही वजह है कि उन्हें ऊर्जा का एक विश्वसनीय स्रोत माना जाता है। हालांकि इसके साथ ही इन संयंत्रों से होने वाले रेडियोधर्मी उत्सर्जन की वजह से स्वास्थ्य और पर्यावरण को लेकर चिंता बनी रहती है।

इसी को ध्यान में रखते हुए भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर से जुड़े वैज्ञानिकों ने भारत में मौजूदा सात परमाणु ऊर्जा संयंत्रों (एनपीपी) से जुड़े रेडियोलॉजिकल आंकड़ों का विश्लेषण किया है, ताकि इन संयंत्रों के पर्यावरण और आम लोगों पर पड़ने वाले रेडियोलॉजिकल प्रभावों को समझा जा सके।

यह आंकड़ें 2000 से 2020 के बीच पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय पर्यावरण सर्वेक्षण प्रयोगशालाओं (ईएसएल) द्वारा एकत्र किए गए थे। इन आंकड़ों में प्रत्येक परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के 30 किमी के दायरे में हवा, पानी और जमीन में मौजूद रेडियोधर्मिता के स्तर का ब्यौरा दिया गया है। साथ ही इसमें थर्मोल्यूमिनसेंस डोसीमीटर (टीएलडी) नामक विशेष उपकरण की मदद से सालाना उत्सर्जित होने वाली गामा किरणों के स्तर को भी दर्ज किया गया था।

इस अध्ययन में काकरापार परमाणु ऊर्जा स्टेशन (गुजरात), मद्रास परमाणु ऊर्जा स्टेशन (तमिलनाडु), नरौरा परमाणु ऊर्जा स्टेशन (उत्तर प्रदेश), कैगा परमाणु ऊर्जा संयंत्र (कर्नाटक), राजस्थान परमाणु ऊर्जा स्टेशन (राजस्थान), तारापुर परमाणु ऊर्जा स्टेशन (महाराष्ट्र) और कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र (तमिलनाडु) को शामिल किया गया था।

अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक भारत के इन मौजूदा सात परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के आसपास हवा, पानी और मिट्टी में रेडियोधर्मिता (रेडियोएक्टिविटी) का स्तर न केवल बेहद कम है, बल्कि साथ ही वो अंतरराष्ट्रीय स्तर इसके लिए जो सीमा तय की गई है उससे भी काफी नीचे है। अध्ययन के नतीजे जर्नल साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुए हैं।

शोध के मुताबिक इन संयंत्रों के पास मौजूद रेडियोएक्टिविटी का स्तर दुनिया के अन्य परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के पास मौजूद रेडियोधर्मिता जितना ही है। इसी तरह परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के पास पानी में मौजूद ट्रिटियम का स्तर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अनुशंसित सीमा के एक फीसदी से भी कम था। इसके लिए तय सीमा 10,000 बीक्यू प्रति लीटर है। बता दें कि बेकरेल (बीक्यू), रेडियोधर्मिता को मापने की एक इकाई है। जो यह निर्दिष्ट करती है कि किसी पदार्थ में औसतन एक सेकंड में कितने परमाणु नाभिकों का विघटन होता है।

इसी तरह आसपास रहें वाले लोगों पर विकरण का बेहद कम प्रभाव दर्ज किया गया जो तय सीमा (1000 μSv) का महज दस फीसदी था। इतना ही नहीं अध्ययन के दौरान इसमें कमी की प्रवत्ति भी दर्ज की गई।

हालांकि साथ ही शोधकर्ताओं को अलग-अलग संयंत्र पर रेडियोधर्मिता के स्तर में अंतर देखने को मिला है जिसके लिए इनके विशिष्ट रिएक्टरों में उपयोग की गई तकनीकों को वजह माना गया है।

भारत ने परमाणु ऊर्जा क्षमता को 22,480 मेगावाट करने का रखा है लक्ष्य

हालांकि दुनिया भर के विकसित देशों में कई परमाणु ऊर्जा संयंत्र लम्बे समय से सुरक्षित रुप से काम कर रहे हैं। लेकिन साथ ही थ्री माइल आइलैंड, यूक्रेन के चेर्नोबिल और फुकुशिमा में जो परमाणु दुर्घटना हुई थी, उसका डर आज तक लोगों के दिलों में जिन्दा है।

देखा जाए तो इस तरह के अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कहीं न कहीं इन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले रेडिएशन का डर लोगों के मन में बना रहता है और ऐसा होना लाजिमी भी है।

अध्ययन के मुताबिक इन संयंत्रों को लेकर लोगों को चिंता रहती है कि अक्सर परमाणु ऊर्जा संयंत्र हानिकारक रेडियोधर्मी पदार्थों को छोड़ते हैं, जिससे आस-पास के समुदायों के प्रभावित होने का खतरा बना रहता है। दुनिया भर में हुई परमाणु दुर्घटनाएं भी लोगों के मन में डर पैदा करती हैं। इसकी वजह से लोग यह नहीं चाहते कि उनके आसपास परमाणु ऊर्जा संयंत्र बनाए जाएं।

इस रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया है कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र कई तरीकों से पर्यावरण में कुछ न कुछ रेडियोधर्मिता छोड़ते हैं, लेकिन भारत के इन संयंत्रों के पास देखा गया स्तर स्वीकार्य सीमा के भीतर है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इस अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनसे पता चलता है कि भारत के परमाणु ऊर्जा संयंत्र ठीक तरह से सुरक्षित रूप से काम कर रहे हैं। साथ ही उनसे होने वाला रेडिएशन बहुत कम लगभग न के बराबर प्रभाव डाल रहा है।

इस अध्ययन के नतीजे ऐसे समय में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब देश परमाणु ऊर्जा क्षमता में इजाफा करने का प्रयास कर रहा है। गौरतलब है कि भारत सरकार का लक्ष्य 2031-32 तक परमाणु ऊर्जा क्षमता को 7,480 मेगावाट से बढ़ाकर 22,480 मेगावाट करने का है।

इस बारे में केंद्रीय मंत्री डॉक्टर जितेंद्र सिंह का कहना है कि परमाणु ऊर्जा, बिजली उत्पादन का एक साफ सुथरा, पर्यावरण अनुकूल स्रोत है, जो 24X7 उपलब्ध है। इसमें अपार संभावनाएं हैं। उनके अनुसार परमाणु ऊर्जा क्षमता विस्तार से 2070 तक नेट जीरो के लक्ष्य को हासिल करने के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव लाने में भी मदद मिलेगी।

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