आवरण कथा: कोविड-19 वैक्सीन पर नियंत्रण की लड़ाई

कोविड-19 वैक्सीन पर विकसित देशों का कब्जा बरकार है। इस पिछले दो वर्षों से लता जिष्णु की पैनी नजर है। आइए, इसे किस्तवार समझते हैं

By Latha Jishnu

On: Saturday 11 December 2021
 
इलस्ट्रेशंस : योगेन्द्र आनंद / सीएसई

 

कोविड-19 महामारी के दौर में जोनस साल्क की याद

पोलियो टीके को विकसित करने और उसका पेटेंट न करने वाले साल्क का दर्शन आज के दवा शोधकर्ताओं के लिए अभिशाप है

एक थे जोनस साल्क। कुछ लोगों को बताने की जरूरत है कि वह कौन थे। साल्क एक वायरोलॉजिस्ट थे जिन्होंने 1955 आए पोलियो के टीके को सफलतापूर्वक विकसित किया था। यह वह समय था जब पोलियो दुनियाभर की स्वास्थ्य प्रणाली के लिए गंभीर खतरा माना जाता था। यह हजारों लोगों, खासकर बच्चों की मृत्यु का कारण बना और इसने बड़ी संख्या में उन्हें पंगु बना दिया। अमेरिका 1952 की पोलियो महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ था और कहा गया था कि एटम बम के बाद देश का सबसे बड़ा डर पोलियो था।

साल्क एक क्रांतिकारी थे। उस समय की प्रचलित वैज्ञानिक धारणा के उलट साल्क का मानना था कि उनका निष्क्रिय पोलियो टीका बच्चों को संक्रमित किए बिना उन्हें प्रतिरक्षित कर सकता है। नेशनल फाउंडेशन फॉर इंफेंटाइल पैरालाइसेस से मिली आर्थिक मदद से साल्क ने सात वर्षों में एक फील्ड ट्रायल (इसे नैदानिक परीक्षण नहीं कहा गया) किया। सामाजिक इतिहासकार विलियम ओ नील ने इसे “इतिहास में अपनी तरह का सबसे विस्तृत कार्यक्रम” बताया था। इसमें लगभग 20 लाख स्कूली बच्चों ने हिस्सा लिया।

हम केवल इसी उपलब्धि के लिए साल्क को याद नहीं कर रहे हैं। इस सुपरस्टार वैज्ञानिक दुनियाभर में प्रसिद्धि हासिल की क्योंकि उन्होंने पैसों के लिए टीके को पेटेंट नहीं करवाया। वह बस यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि टीका ज्यादा से ज्यादा बच्चों तक पहुंचे और पोलियो से उनका बचाव हो सके। जब एक टीवी इंटरव्यू में साल्क से पूछा गया कि इस पेटेंट का मालिक कौन है, तब उनका जवाब था, “मैं लोगों से कहूंगा कि कोई पेटेंट नहीं है। क्या आप सूर्य को पेटेंट करा सकते हैं?” हालांकि ऐसे बहुत से खोजकर्ता हैं जिन्होंने पेटेंट कराने से इनकार कर दिया लेकिन साल्क का जन स्वास्थ्य प्रणाली में योगदान अतुलनीय है।

स्पष्ट रूप से साल्क का दर्शन आज के दवा शोधकर्ताओं के लिए अभिशाप है। कोविड-19 टीके ने फिनिशिंग लाइन भी पार कर दी है क्योंकि लागत के चलते दुनिया की अधिकांश आबादी को टीका उपलब्ध नहीं होगा। विडंबना देखिए कि दवा निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इन सभी टीकों को विकसित करने में अमेरिकी के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ द्वारा विकसित तकनीक (प्री फ्यूजन आकार में कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन को फ्रीज करना) की मदद ली है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इन कंपनियों को टीके के काम में तेजी लाने के लिए करोड़ों डॉलर का सार्वजनिक धन उपलब्ध कराया गया है।

दिग्गज फार्मा कंपनियां अपने टीके को पेटेंट कराने के लिए दर्जनों आवेदन दे चुकी हैं। जेनरिक दवा निर्माताओं के लिए उनसे पार पाना असंभव है। यही वजह है कि भारत-दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में महत्वपूर्ण प्रस्ताव दिया है कि कोविड-19 से संबंधित तकनीक का बौद्धिक संपदा अधिकार (आरपीआर) खत्म किया जाए।

ऐसा न करने पर केवल अमीर देश ही महामारी से लड़ने के लिए आवश्यक टीकों और दवाओं का उपयोग और खर्च करने में सक्षम होंगे। इस प्रस्ताव का 100 से अधिक देशों ने समर्थन किया है लेकिन जो लोग डब्ल्यूटीओ में ताकतवर हैं, वे इसका विरोध कर रहे हैं। ये लोग फार्मा कंपनियों के उस दावे का समर्थन कर रहे हैं जिसमें वे कहती हैं कि आईपीआर का निरस्तीकरण महत्पवूर्ण समय में होने वाली खोजों (नवाचारों) को बाधित करेगा। अगर साल्क इस समय होते तो इस तर्क की धज्जियां उड़ा देते। इस समय हम केवल उनकी विरासत को ही याद कर सकते हैं।

आंकड़ों की अहमियत

उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़ों के सार्वजनिक होने से वैज्ञानिक तेजी से टेस्ट किट, एंटीवायरल दवाओं और टीका तैयार करने में जुट गए

लगभग एक साल पहले चीन के वैज्ञानिकों ने कोविड-19 को जन्म देने वाला पहला जेनेटिक सीक्वेंस डाटा (जीएसडी) दुनिया से साझा किया था। इस डाटा को अमेरिका, यूरोप और जापान के पार्टनरशिप वाले डाटाबेस, जेनबैंक पर जारी किया गया था। इसके दो दिन बाद यानी 12 जनवरी को चीन ने आधिकारिक तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से जीएसडी शेयर किया। इससे डब्ल्यूएचओ की इंफ्लूएंजा प्रयोगशालाओं के बड़े नेटवर्क यानी ग्लोबल इंफ्लूएंजा सर्विलांस एंड रिस्पांस सिस्टम (जीआईएसआरएस) की इस महत्वपूर्ण डाटा तक पहुंच हो पाई।

कोरोना की पहली लहर के रिपोर्ट होने के दो हफ्ते से भी कम समय में कोविड-19 के लिए जिम्मेदार जीनोम (जीन के समूह) और उससे संबंधित डाटा को शेयर करने के लिए चीन की काफी तारीफ भी हुई थी। यह कोरोना से लड़ने में बहुत महत्वपूर्ण बात थी। उच्च गुणवत्ता वाले डाटा के सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध होने से दुनियाभर के वैज्ञानिक तेजी से टेस्ट किट जांचने और एंटीवायरल दवाओं और टीका तैयार करने के लिए प्रयोगशाला से जुड़े अन्य काम करने में सक्षम हो सके।

वायरस के लिए प्रायोगिक टीका तैयार करने वाली अमेरिकी नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्सियस डिजीजेस (एनआईएआईडी) और इसकी सहयोगी बायोटेक कंपनी माडर्ना का प्रयास इसका प्रमुख उदाहरण है। इसके छह महीने बाद कोविड-19 टीका के तीसरे चरण के परीक्षण जारी हुए। खतरनाक कोरोनावायरस की जांच के लिए इसी से आगे न्यूक्लियक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्ट और आरटी- पीसीआर जैसे टेस्ट ईजाद किए गए।

यह स्थिति 2007 से बिल्कुल उलट है, जब इंडोनेशिया ने पक्षियों से जुड़े इंफ्लुएंजा को पैदा करने वाले वायरस एच5एन1 के जेनेटिक सीक्वेंस को डब्ल्यूएचओ से साझा करने से इनकार कर दिया था। इसके पीछे उसने अपने देश की संप्रभुता की दलील दी थी। इस दलील के पीछे इंडोनेशिया ने वैश्विक समझौते यानी जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी) को आधार बनाया था। जैविक विविधता सम्मेलन यानी सीबीडी किसी देश को यह संप्रभु अधिकार देता है कि वह अपने लाभ के अनुकूल ही अपने जैविक स्रोतों से जुड़ी जानकारी साझा करे। इंडोनेशिया का तर्क था कि डब्ल्यूएचओ वायरस से जुड़ी जानकारी फार्मा कंपनियों को दे रहा था, ये कंपनियां ऐसी टीका तैयार करती हैं, जिनका इस्तेमाल करना इंडोनेशिया और उसके जैसे मध्य आय वाले देशों के लिए मुश्किल था।

जकार्ता के इस दावे से दुनिया को झटका लगा था, क्योंकि यह वैज्ञानिक सिद्धांतों में सहयोग करने के नियम का उल्लंघन था। हालांकि यह कोई पहला मामला भी नहीं था। अन्य देशों ने भी डब्ल्यूएचओ के ग्लोबल इंफ्लूएंजा सर्विलांस नेटवर्क और उसके पूर्ववर्ती जीआईएसआरएस पर आपत्ति जताई थी और कहा था कि वह जिन देशों से मुफ्त में मिलने वाले जेनेटिक मटैरियल को फार्मा कंपनियों को उपलब्ध कराती है, उन्हीं देशों को ये कंपनिया बड़े मुनाफे के साथ टीका बेचती हैं।

तो क्या उसके बाद ये मामला सुलझ गया है? सच पूछिए तो नहीं। हालांकि कोविड-19 के सीक्वेंस को ऑनलाइन डाटाबेस पर पब्लिक के लिए और प्राइवेट तौर पर साझा किया गया। लेकिन हर बार महामारी के दौरान यह मुद्दा सतह पर आ जाता है, खासकर पश्चिमी अफ्रीका में इबोला वायरस का हमला इस मामले में सबसे खौफनाक था।

पश्चिमी देशों और फार्मा कंपनियों पर लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि वे विकासशील देशों की अनुमति लिए बगैर उनके रोगजनकों के नमूनों और आंकड़ों का इस्तेमाल कर रही हैं।

डब्ल्यूएचओ इस विवाद को सुलझाने के लिए अब एक नया प्रस्ताव लेकर आया है। हालांकि इसमें 13 साल की देरी हो चुकी है और इसके संकेत हैं कि एक तूफान जन्म ले रहा है। इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि इसे सुलझाने में जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी) का किस तरह से इस्तेमाल किया जाता है।

करिको और आविष्कार का मुद्दा

एमआरएनए अनुसंधान में कामयाबी के झंडे गाड़ने वाली वैज्ञानिक की मेहनत को भुनाने में लगी हैं फार्मा कंपनियां

पिछले कई महीनों से बायोकेमिस्ट कातालिन करिको को ढेरों पुरस्कार और सम्मान मिल रहे हैं। वैज्ञानिकों की दुनिया में वह किसी रॉकस्टार से कम नहीं हैं। अगर आप उन्हें नहीं जानते तो कोई बात नहीं, क्योंकि वैज्ञानिकों के नाम शायद ही सुर्खियों में आते हैं। हालांकि करिको धीरे-धीरे मीडिया के लिए सनसनी बन रही हैं। कोविड-19 से चल रही लड़ाई में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल हो रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स को उनके योगदान को देखते हुए कहना पड़ा, “ऐसी शख्स जिन्होंने दुनिया को कोरोनावायरस से बचने की ढाल दी।”

2021 की शुरुआत से करिको एक दर्जन से ज्यादा पुरस्कार मिल चुके हैं। ये पुरस्कार उन्हें मेसेंजर राइबोन्यूक्लिक एसिड यानी एमआरएनए पर शोध करने के लिए मिले हैं। हालांकि उन्हें यह ख्याति देर से मिली है।

1980 के दशक में अपने मूलस्थान हंगरी से अमेरिका आने वाली करिको के संघर्ष की लंबी दास्तान रही है। पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय (पेन) में एक प्रोफेसर (पूर्णकालिक नहीं) के रूप में उनका करियर कठिन था क्योंकि उन्होंने अपने जुनून के कारण एमआरएनए अनुसंधान का रास्ता चुना।

वह हमेशा एक प्रयोगशाला से दूसरी प्रयोगशाला में स्थानांतरित होती रहीं। वह एक वरिष्ठ वैज्ञानिक या दूसरे पर निर्भर थीं। वे एमआरएनए अनुसंधान के शुरुआती दिन थे और अनुदान मिलना मुश्किल था। 1995 में जब वह पेन यूनिवर्सिटी में पूर्णकालिक प्रोफेसर बनने वाली थीं, तभी उन्हें पदावनत कर दिया गया क्योंकि वह धन नहीं जुटा सकीं। वह अपनी प्रयोगशाला में डेस्क के नीचे सो जाया करती थीं क्योंकि घर की यात्रा बहुत लंबी थी और छुट्टी वाले दिनों में भी काम करना पड़ता था। ऐसे में उनके परिवार ने गणना की कि वह केवल एक डॉलर प्रति घंटा कमा रही थीं। इस तरह उन्होंने किसी भी महीने 5,000 डॉलर से अधिक नहीं कमाया। लेकिन करिको को भरोसा था कि एमआरएनए का इस्तेमाल टीके सहित कोशिकाओं की दवा बनाने में किया जा सकता है।

1997 में उन्होंने पेन में इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर ड्रू वीसमैन के साथ मिलकर काम किया। इसके बाद उन्होंने सफलता के नए अध्याय लिखने शुरू कर दिए। अधिकांश पुरस्कारों को इन दोनों वैज्ञानिक ने ही साझा किया। इन्होंने एक हाइब्रिड एमआरएनए बनाया जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को सचेत किए बिना कोशिकाओं में अपना रास्ता बना सकता है और इसे ओवरड्राइव में भेज सकता है।

यह वह तकनीक है जिसका उपयोग कोविड-19 टीके के शीर्ष निर्माता फाइजर-बायोएनटेक और मॉडर्ना इंक द्वारा किया जा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, टीकों और दवाओं में इस तकनीक को लागू करने की क्षमता चौंका देने वाली है।

जब बड़ी फार्मा कंपनियों ने डब्ल्यूटीओ में 100 से अधिक देशों द्वारा मांगी गई आईपीआर में छूट के खिलाफ अथक अभियान शुरू किया तो उनकी दलील थी कि इससे टीका निष्पक्षता (इक्विटी) सुनिश्चित होगी। उनका यह तर्क समझ से परे है। कंपनियों का तर्क है कि पेटेंट के बिना विशेष रूप से चिकित्सा क्षेत्र में नवाचार करने के लिए कोई प्रोत्साहित नहीं होगा। फाइजर के मुख्य कार्यकारी अल्बर्ट बौरला ने महामारी खत्म होने तक आईपीआर में छूट को ‘बकवास’ के साथ ‘खतरनाक’ भी माना है।

उन्होंने छूट की मांग करने वालों को लाभ का लालची कहा है। गौरतलब है कि अकेले कोविड-19 टीके से फाइजर का राजस्व 33 बिलियन डॉलर से अधिक होने का अनुमान है।

करिको और ड्रू को एमआरएनए में कामयाबी का वास्तविक श्रेय जाता है। उन्हें एमआरएनए पर दो पेटेंट हासिल हैं। रिपोर्ट्स का कहना है कि इसकी लाइसेंसिंग करके 3 मिलियन डॉलर कमाए गए हैं। अगर आप करिको से पूछें कि क्या उन्होंने पेटेंट की चाहत में एमआरएनए पहेली को हल करने के लिए अथक मेहनत की है तो वह शायद कहेंगी, “यह बकवास है।”

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