कोविड-19: इस रात की सुबह कब?

अधिकांश देशों ने कोविड-19 से लड़ने के लिए फ्लैटनिंग द कर्व मॉडल यानी ऐसी जुगत लगाई कि मामले धीरे-धीरे लंबे समय तक आएं, लेकिन इसका अंत होता नहीं दिख रहा है

By Vibha Varshney

On: Monday 01 June 2020
 
स्वास्थ्य के जानकार प्रबंधित हर्ड इम्युनिटी पर बहस कर रहे हैं जिसमें लोगों को तभी क्वारंटाइन किया जाता है जिन्हें खतरा हो। अन्य लोग काम कर सकते हैं (रॉयटर्स)

हर देश अपने तरीके से कोविड-19 से लड़ रहा है, लेकिन उनकी सफलता का पैमाना अलग-अलग है। दक्षिण कोरिया ने भले इस पर काफी हद तक काबू पा लिया, लेकिन इटली जैसे देशों में उच्च मृत्यु दर देखी जा रही है। कोई भी देश यह नहीं कह पा रहा है कि यह महामारी कब खत्म होगी। अधिकांश देश “फ्लैटनिंग द कर्व” (लंबे समय तक नए केस आने से रोकना) की कोशिश कर रहे हैं और सामाजिक दूरी जैसे तरीकों का उपयोग करके मामलों की संख्या कम कर रहे हैं। यह स्वास्थ्य प्रणाली को अत्यधिक बोझ से बचाने में मदद करती है, लेकिन लंबे समय में केसेज को फैलाता भी है।

एक और तरीका है, “हर्ड इम्यूनिटी” (सामूहिक प्रतिरक्षा) को बढ़ाना। इसमें वायरस को अपने प्राकृतिक तरीके से फैलने दिया जाता है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग संक्रमित होकर (और वे यदि बच जाते हैं) वायरस के खिलाफ एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लें। लेकिन, ये तरीका भयावह है और इसे खारिज कर दिया गया है। ये ज्यादातर तब अपनाया जाता है जब बीमारी से बचाव के लिए कोई टीका होता है। लेकिन, कोविड-19 का टीका न होने के कारण, यह समस्या न केवल स्वास्थ्य प्रणाली पर बोझ डाल सकती है, बल्कि मृत्यु दर भी बढ़ा सकती है।

एक और तरीका है “प्रबंधित हर्ड इम्यूनिटी” जिसमें केवल जोखिम वाले लोग ही क्वारंटाइन किए जाते हैं। यरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मार्च 2020 में एक गणितीय मॉडल विकसित किया है, ताकि देशों को यह तय करने में मदद मिल सके कि क्या उनका स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा मामलों में अचानक वृद्धि का भार उठा सकता है।

कर्व को फ्लैट करने के लिए, पहले मामले की सूचना आने से पूर्व ही भारत ने कार्रवाई की। यात्रा सुरक्षा को लेकर पहली सलाह 17 जनवरी को जारी की गई थी और चीन से आने वाले यात्रियों को भारत आगमन पर स्क्रीनिंग से गुजरना पड़ा। कार्रवाई के बावजूद 30 जनवरी को भारत में एक मामला दर्ज किया गया था। देश में 22 मार्च को स्वैच्छिक कर्फ्यू लागू किया गया और फिर 14 अप्रैल तक राष्ट्रीय तालाबंदी कर दी गई। बाद में इसे बढ़ाकर 3 मई कर दिया गया।

ये प्रयास यह सुनिश्चित करने के लिए हैं कि आर जीरो (मूल प्रजनन संख्या) को 1 से नीचे रखा जाए और नए संक्रमण की घटनाओं में कमी आए। जब यह 1 से अधिक हो जाता है, तो संक्रमण के मामले बढ़ जाते हैं। फिर ये संक्रमण तब तक बढ़ते हैं जब तक कि महामारी नहीं आ जाती और अंततः हर्ड इम्युनिटी के कारण इसमें गिरावट आने लगती है। 26 मार्च को भारत का आर जीरो 1.81 था।

स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, इंपीरियल कॉलेज लंदन, यूके के रिसर्च असोसिएट स्वप्निल मिश्रा कहते हैं, “महामारी कब खत्म होगी इसका कोई वास्तविक अनुमान नहीं है। लेकिन हम विभिन्न हस्तक्षेपों के साथ महामारी के उन्नत चरण वाले देशों के लिए फ्लैट कर्व का संकेत देख रहे हैं। हम यह नहीं कह सकते हैं कि कौन सा हस्तक्षेप अधिक प्रभावी है, लेकिन एक साथ किए गए हस्तक्षेपों का प्रभाव पड़ रहा है।” मिश्रा 30 मार्च को यूके के एमआरसी सेंटर फॉर ग्लोबल इंफेक्शियस डिजिज एनालिसिस द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के प्रमुख लेखक हैं।

मिश्रा कहते हैं कि उपायों को बढ़ाना होगा क्योंकि आर जीरो 1 से ऊपर है। हालांकि मिश्रा ने यह नहीं बताया कि “अधिक” उपाय क्या हो सकते हैं, लेकिन यूके के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तावित एक मॉडल दो विकल्प सुझाता है, जिसका उपयोग भारत इस महामारी को समाप्त करने के लिए कर सकता है। पहले विकल्प में 21 दिन, फिर 28 दिन और फिर 18 दिन के लॉकडाउन होते हैं। प्रत्येक लॉकडाउन के बाद पांच दिन की छूट होती है। 24 मार्च से शुरू लॉकडाउन को 10 जून तक जारी रखना होगा। दूसरे विकल्प में 49 दिनों तक लगातार लॉकडाउन करना है (13 मई तक, अगर इसे 24 मार्च से शुरू समझें)। इस मॉडल की भविष्यवाणी के मुताबिक, यदि महामारी को बिना कुछ करे यूं ही बढ़ने दिया जाए तो भी हर्ड इम्यूनिटी के कारण यह अगस्त के अंत तक खत्म हो जाएगा।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज, यूके में गणित के प्रोफेसर रोनोंजय अधिकारी कहते हैं, “अगर हम केवल सामाजिक दूरी से महामारी को नियंत्रित करते हैं, तो हमें महामारी खत्म करने के लिए टीका मिलने तक इंतजार करना होगा, जो कम से कम एक वर्ष का समय होगा। यानी, सामान्य स्थिति तक वापस आने के लिए हमें कम से कम एक साल इंतजार करना होगा।” इस अध्ययन की अभी समीक्षा की जानी है। लेकिन मौजूदा लॉकडाउन समाप्त होने वाला है और ऐसे में यह मॉडल सरकार के काम आ सकते हैं। रोनोंजय अधिकारी कहते हैं कि हमारे पास कई लॉकडाउन प्रोटोकॉल हैं जो कुछ हद तक संक्रमण स्तर को कम कर सकते हैं। लेकिन वह कहते हैं कि इन लॉकडाउन की व्यवहार्यता का पता गणितीय रूप से नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि इसमें आर्थिक, चिकित्सा, सामाजिक और नैतिक कारकों को भी देखना होगा।

यह पूछे जाने पर कि क्या भारत महामारी को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रहा है, मिश्रा ने कहा कि यह जवाब देना मुश्किल है क्योंकि विश्वसनीय डेटा दुर्लभ है और सरकारी हस्तक्षेपों का आमतौर पर अच्छी तरह से पालन नहीं किया जाता। मिश्रा कहते हैं, “अगर भारत में सामुदायिक संक्रमण शुरू हो गया है (जैसे मुंबई में धारावी और दिल्ली में निजामुद्दीन से आई खबरें बता रही हैं) तो हमें फ्लैट कर्व रखने के लिए कुछ समय तक हस्तक्षेप जारी रखने की जरूरत है।”

वैसे इन मॉडल्स में भी कुछ खामियां पाई गई हैं। रिप्रिंट सर्वर में 6 अप्रैल को प्रकाशित एक नए अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि मौजूदा मॉडल में दोष है। इंग्लैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंजिलया में प्रोफेसर एलिस्टर ग्रांट ने जब एक नया मॉडल विकसित किया, तब उसकी तुलना वुहान में कोविड-19 के प्रकाशित मॉडल से की गई। यह आइसोलेशन और सामाजिक दूरी जैसे उपायों से पहले हुआ। माना जाता है कि पहले के मॉडलों ने चरम संक्रमण दर को कमतर आंका। साथ ही महामारी के चरम पर पहुंचने के बाद यह कितने समय पर बनी रहेगी, यह गणना भी बढ़ा चढ़ाकर की गई।

भारत के लिए यह आवश्यक है कि कर्व को फ्लैट करने के लिए उपायों को अच्छी तरह से लागू किया जाए, क्योंकि रोग के बेकाबू प्रसार से निपटने के लिए स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचा तैयार नहीं है। बोस्टन के हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, लंदन के इंपीरियल कॉलेज ने 2009 में एच1एन1 महामारी के वक्त अर्जेंटीना, जापान, मैक्सिको, यूके और अमेरिका के लोगों के व्यवहार का अध्ययन किया था। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि करीब 73 प्रतिशत ब्रिटिश लोगों ने खांसते या छींकते वक्त अपने मुंह को टिश्यू से नहीं ढंका और 47 प्रतिशत ने अपने हाथ नहीं धोए और न ही सेनिटाइजर का इस्तेमाल किया।

प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायत विभाग द्वारा 1 अप्रैल, 2020 को प्रकाशित भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के बीच किए सर्वेक्षण स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे में तीव्र कमी का संकेत देते हैं। जवाब देने वाले 266 अधिकारियों में से 71 फीसदी ने कहा कि कोविड-19 मरीजों के लिए अति आवश्यक वेंटिलेटर उनके संबंधित क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं थे। महामारी से निपटने में परीक्षण किट और व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) की कमी तो प्रमुख समस्या है ही।

रोनोंजय अधिकारी बताते हैं कि परीक्षण में सुधार करने से सरकार को बेहतर नीतिगत निर्णय लेने में मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिए, अधिक परीक्षण का मतलब है कि हमारे पास संक्रमण के प्रसार को लेकर एक बेहतर विचार होगा। यह गणितीय मॉडलिंग में सुधार कर सकता है जो बेहतर नीतिगत निर्णय लेने में मदद कर सकता है।

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