ब्रेन स्कैन के लिए भैंस बेचने की नौबत: कोविड-19 संकट ने उजागर किया स्वास्थ्य व्यवस्था का कड़वा सच

मरीज सीमित संसाधन वाले सार्वजनिक क्षेत्र और लाभ-केंद्रित निजी स्वास्थ्य सेवाओं के बाजार के बीच फंस गए हैं।

On: Sunday 09 May 2021
 

कारेन मैथियास

जैसा कि भारत में  नोवल कोरोनावायरस बीमारी (कोविड-19) का संकट लगातार जारी है, पिछले 30 दिनों में आबादी के वायरस से पॉजिटिव आने की दर 4.2 प्रतिशत से बढ़कर 18.4 प्रतिशत हो गई है।

रोजाना दर्ज होने वाले तीन लाख से ज्यादा नए मामले के साथ, अस्पताल और श्मशान ध्वस्त होने जैसे हालात का सामना कर रहे हैं। वैश्विक मीडिया हृदय विदारक तस्वीरों, आंकड़ों और कहानियों से पट गया है, जो संक्रमण और मौतों में उछाल के सामने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की बेबसी बयां कर रहे हैं।

भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में ये बिखराव या दरार बीते कई वर्षों में पनती है। दशकों से स्वास्थ्य सेवाओं और निवारक स्वास्थ्य में बेहद कम निवेश किया गया है. इसके अलावा, भारत के पास दुनिया में सबसे ज्यादा निजीकरण वाली स्वास्थ्य व्यवस्था है। इसका नतीजा है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर आने वाला खर्च भारत में  गरीबी का एक प्रमुख कारण बना हुआ है।

ग्रामीण मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में मेरे हालिया अध्ययन से सामने आया है कि मरीज कम संसाधनों वाले सार्वजनिक क्षेत्र और लाभ-केंद्रित निजी स्वास्थ्य बाज़ार के बीच फंसे गए हैं। कुछ लोगों को “ब्रेन स्कैन का भुगतान करने के लिए अपनी भैंस तक बेचनी पड़ती है।” स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश का अभाव है। 

1946 में, भारत की दूरदर्शी  भोरे समिति ने रिपोर्ट की अपनी प्रस्तावना में घोषित किया है कि: कोई भी व्यक्ति महज इसलिए पर्याप्त चिकित्सा देखभाल पाने से वंचित नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह इसके लिए भुगतान करने में सक्षम नहीं है।

2021 में, वियतनाम, दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने कोविड-19 को सफलता के साथ कुछ मौतों तक सीमित कर दिया है, जबकि भारत में सैकड़ों-हजारों लोग उचित इलाज के बगैर वायरस से पीड़ित हैं।

वादे के मुताबिक ऑक्सीजन जेनरेशन प्लांट्स नहीं लगाए गए हैं और आए दिन मुझे भारत में अपने सहकर्मियों के गंभीर कोविड-19 संक्रमण से हांफते अपने प्रियजनों के लिए अस्पताल में बिस्तर और ऑक्सीजन सिलेंडर की मांग करने वाले मैसेज मिलते रहते हैं।

स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च बहुत से लोगों को घनघोर गरीबी की तरफ धकेल देता है। दुनिया भर में इलाज की वजह से जेब पर आने वाला बोझ (आउट-ऑफ-पॉकेट हेल्थकेयर कॉस्ट) की बात करें तो यह औसतन 18.2 प्रतिशत है, लेकिन भारत में यह 62.7 प्रतिशत है।

भले ही भारत ने पिछले तीन दशकों के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 प्रतिशत या इससे ज्यादा की रफ्तार हासिल की है, लेकिन 2018 में भारत सरकार ने  स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का 1.3 प्रतिशत निवेश किया था। पूरे दक्षिण एशिया में स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाला औसत निवेश दोगुना यानी 3.5 प्रतिशत है, जबकि न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अपनी स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 9.0 प्रतिशत से ज्यादा बजट खर्च करते हैं।

बीते दो दशकों में, भारत में सरकारी अस्पतालों का इस्तेमाल घटा है। यह 1993-94 में 43 प्रतिशत था, जो अब घटकर 32 प्रतिशत पर आ गया है। 2011 में, 70 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र आपातकालीन प्रसूति सेवाएं नहीं दे सके थे।

भरोसा करने लायक नहीं है और भरोसा भी नहीं है

सामुदायिक स्वास्थ्य प्रणालियों के बारे में मेरा अध्ययन यह भी बताता है कि भारत जैसे विविध और विशाल देश में, एक नियम सभी के लिए सही साबित नहीं हो सकता है।

न्यूरोलॉजिकल और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करने वाले लोगों के इलाज में मौजूद अंतर की एक प्रमुख वजह यह है कि व्यवस्था, स्थानीय समुदायों की प्राथिमिकताओं से नहीं जुड़ती है। स्वास्थ्य प्रणाली भरोसा करने लायक नहीं है और भरोसा भी नहीं है।

भारत की त्रुटिपूर्ण स्वास्थ्य प्रणाली के नतीजे आज सबसे सामने हैं। पोषण (जो स्वास्थ्य निर्माण का सबसे बुनियादी हिस्सा है) के क्षेत्र में भारत बच्चों में बौनेपन (स्टंटिंग) की समस्या वाले दुनिया के शीर्ष 20 देशों में से एक है (पांच साल से कम आयु के बच्चों के लिए 38.7 प्रतिशत)।

एक तिहाई बच्चों का टीकाकरण नहीं हुआ है और पड़ोसी देशों की तुलना में बुनियादी स्वास्थ्य संकेतकों में भारत की रैंकिंग में गिराटव आई है। भारत 195 देशों की सूची, जो स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और गुणवत्ता सूचकांक के आधार पर बनती है, में भूटान और श्रीलंका से भी पीछे है।

छोटे लेकिन बेहद मजबूत देश नेपाल और बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी बहुत कम है, लेकिन दोनों देशों ने 2020 में प्रति 1000 बच्चों के जन्म पर 26 से कम मृत्यु दर को हासिल कर लिया था। भारत में प्रति 1000 बच्चों के जन्म पर 28 से ज्यादा बच्चों की मौत हुई

शिशु और मातृ मृत्यु में इजाफा

भारत में कोविड-19 के मामलों में आए उछाल ने स्वास्थ्य व्यवस्था में मौजूद गड़बड़ी को सामने ला दिया है। पिछले साल मार्च और अप्रैल में देश में लगाए गए सख्त लॉकडाउन के दौरान, स्वास्थ्य सेवाएं कम सस्ती, कम सुलभ और बेहद खराब गुणवत्ता वाली थी।

चूंकि, निजी स्वास्थ्य क्षेत्र सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की तुलना में ज्यादा बड़ा है, फिर भी इसने कोविड-19 की पहली लहर के दौरान 10 प्रतिशत से भी कम मरीजों का इलाज मुहैया कराया था। कई निजी अस्पताल तो हफ्तों तक बंद रहे थे।

सार्वजनिक सेवाओं पर सीमाएं लगाने का मतलब कोविड-19 की रोजाना होने वाली जांच की संख्या पर अंकुश लगाना था। कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई के लिए संसाधनों (कार्मिक, संसाधन, अस्पताल के बिस्तर, नीति-निर्माता का ध्यान) को लगाने का मतलब, बीते 12 महीनों में टीकाकरण की दर गिरना और मातृ मृत्यु दर का बदतर होना है।

नवजात शिशु और बाल स्वास्थ्य सेवाओं में आई गड़बड़ी के चलते, भारत में साल 2020 के लिए  पांच साल से कम आयु के बच्चों की मौत 15 प्रतिशत (154,000 मौतें) बढ़ने की आशंका है। भारतीय अर्थव्यवस्था के 10 प्रतिशत या इससे ज्यादा सिकुडने का अनुमान है, जिसका अर्थ ज्यादा लोगों का गरीबी की चपेट में जाना और स्वास्थ्य ढांचे व कर्मचारियों के लिए भुगतान करने के लिए नकदी की कमी है।

स्वास्थ्य व्यवस्थाएं जटिल तो जरूर हैं लेकिन वे कठोर नहीं हैं। वे कोविड-19 जैसी नई चुनौतियों के लिए लचीली और जवाबदेह बन सकती है। कुछ सरल कदम हैं, जिन्हें भारत अपनी विफल होती स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए उठा सकता है।

यह (भारत) सार्वजनिक क्षेत्र में - स्टाफ, बुनियादी ढांचे, दवाएं और उपकरणों में निवेश कर सकता है। यह जवाबदेह शासन के ढांचे बना सकता है और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच और इलाज पाने में असमानताओं को झेलने वालों की देखभाल को प्राथमिकता दे सकता है। संभव है कि कोविड-19 से उजागर हुआ स्वास्थ्य प्रणाली का बिखराव भारत को आमूल-चूल पुनर्निर्माण की तरफ बढ़ा दे।

कारेन मैथियास, लेक्चरर, हेल्थ सिस्टम एंड पॉलिसीज, यूनिवर्सिटी ऑफ कैंटरबर

Subscribe to our daily hindi newsletter