कोरोनावायरस: क्या पहाड़ तैयार है नई चुनौतियों के लिए

उत्तरकाशी जिले में सूरत से आए एक युवक में कोविड-19 पाॅजिटिव मिलने के बाद चिंता बढ़ी

By Trilochan Bhatt

On: Sunday 10 May 2020
 
उत्तराखंड के एक गांव में प्रवासियों को ठहराने के लिए बनाया गया क्वरांटीन सेंटर। फोटो: त्रिलोचन भट्ट


कोविड-19 के मामले में शुरुआती दो महीने उत्तराखंड और खासकर इस राज्य के पहाड़ी जिलों के लिए आशा भरे रहे। इस दौरान राज्य के सिर्फ दो पहाड़ी जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में एक-एक पाॅजिटिव केस सामने आया। ये दोनों भी विदेश से लौटे थे। इसके बाद कोई नया केस न आने के कारण ये दोनों जिले भी अब ग्रीन जोन में शामिल कर दिए हैं।

देश में कोविड-19 के जबरदस्त फैलाव में बीच उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में कोई केस सामने न आने के बाद माना जाने लगा था कि ये जिले पूरी तरह से सुरक्षित हैं। लेकिन, 10 मई की सुबह उत्तरकाशी जिले के सुदूर क्षेत्र में सामने आए एक कोरोना पाॅजिटिव मामले में राज्य सरकार और आम लोगों की चिन्ता बढ़ा दी है। पाॅजिटिव पाया गया युवक और उसके तीन साथी दो मोटर साइकिलों पर गुजरात से लौटे थे। युवक के तीन साथियों के सैंपल की रिपोर्ट अभी आनी बाकी है।

लाॅकडाउन के शुरुआती दौर में देशभर के विभिन्न शहरों से लगभग 60 हजार प्रवासी उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में लौटे थे। उस समय देशभर में करीब 600 मामले ही थे और उत्तराखंड लौटे लोगों में कोई भी पाॅजिटिव नहीं मिला। लेकिन, लाॅकडाउन के तीसरे चरण में जब आवाजाही में कुछ छूट दी गई है तो देश में 60 हजार से ज्यादा पाॅजिटिव मामले हैं और शनिवार तक करीब 25 हजार लोग उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में लौट चुके हैं। यानी कि घर वापसी का यह दूसरा दौर पहले दौर की तुलना में 600 गुणा ज्यादा खतरनाक है।

सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्यूनिटी (सीडीएस) फाउंडेशन के अनूप नौटियाल कहते हैं कि इस गंभीर दौर में लोग घरों को लौटेंगे तो पाॅजिटिव मामले तो बढ़ेंगे ही, लेकिन सवाल यह है कि पर्वतीय जिलों में कोविड-19 के साथ लौटे और उनसे संक्रमित होने वाले संभावित लोगों के इलाज की क्या व्यवस्था है? उनका कहना है कि अब राज्य सरकार के सामने चुनौती ज्यादा गंभीर हैं। समय बहुत कम हैं और पर्वतीय क्षेत्रों में मरीजों के इलाज की पुख्ता व्यवस्था करने की सख्त जरूरत है।

उल्लेखनीय है कि राज्य में हल्द्वानी, ऋषिकेश और देहरादून के अलावा कहीं भी कोविड-19 के मरीजों के इलाज की व्यवस्था नहीं है। हालांकि पर्वतीय क्षेत्रों में कुछ अस्पतालों में कोरोना वार्ड बनाए गए हैं, लेकिन इनमें से कई अस्पतालों में फिजिशियन तक नहीं है।

अस्पताल के कर्मचारियों के लिए पीपीई किट भी ज्यादातर कोरोना वार्ड वाले अस्पतालों में उपलब्ध नही है। एक अन्य चिन्ताजनक स्थिति यह भी है कि 3 मई बाद से जबकि हर दिन हजारों की संख्या में लोग दूसरे शहरों से लौट रहे हैं, उत्तराखंड के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने सैंपलिंग की संख्या बढ़ाने के बजाय कम कर दी है। राज्य में 28 अप्रैल से 4 मई तक के एक सप्ताह के दौरान 2374 सैम्पल टेस्ट किये गये, जबकि 3 मई से 9 मई के सप्ताह में मात्र 1881 सैंपल की ही जांच करवाई गई।

हालांकि दूसरे शहरों से राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में अपने घरों को लौटने वाले ज्यादातर लोगों को क्वारंटीन सेंटरों में रखा जा रहा है। सरकारी स्कूलों को क्वारंटीन सेंटर बनाया गया है। गांवों के स्तर में ग्राम प्रधान की अध्यक्षता में समितियां बनाकर बाहर से आने वाले लोगों को क्वारंटीन करके उनकी व्यवस्थाएं देखने के आदेश दिये गये हैं। लेकिन, इस काम के लिए ग्राम सभाओं को कोई बजट नहीं दिया गया है। क्वारंटीन किए गए लोगों की खाने की व्यवस्था तो दूर सेनिटाइजर तक नहीं है। खाने की व्यवस्था क्वारंटीन किये गये लोगों के घर से की जा रही है, जबकि सेनिटाइजर जैसी चीजें ग्राम प्रधान अपने पैसे से खरीदकर उपलब्ध करवा रहे हैं।

कुछ गांवों में तो लकड़ी के बाड़े बनाकर क्वारंटीन सेंटर बनाये गये हैं। ज्यादातर गांवों में क्वारंटीन सेंटर में एक या दो कमरों में व्यवस्था है, ऐसे में अलग-अलग जगहों से लौटे लोगों को एक ही कमरे में रखा गया है। इससे क्वारंटीन के पूरे उद्देश्य पर ही पानी फिर रहा है।

केदारनाथ विधानसभा क्षेत्र के विधायक मनोज रावत कहते हैं कि राज्य सरकार ने सब कुछ अधिकारियों पर छोड़ दिया है। इतने लंबे दौर में अब अधिकारी भी थक चुके हैं, उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है क्या करें। उनका कहना है कि ग्राम प्रधानों को सिर्फ अधिकार नहीं, संसाधन भी चाहिए। बिना संसाधनों के क्वारंटीन की गाइड लाइंस का पालन करना संभव नहीं है।

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