कोविड-19: कहां हैं प्राइवेट अस्पतालों की वकालत करने वाले लोग?

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की हमेशा वकालत करने वाला नीति आयोग ने हाल में चुप्पी साध ली है

By Kundan Pandey

On: Friday 24 April 2020
 
फोटो: विकास चौधरी

नोवेल कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी ने भारतीय चिकित्सा सेवाओं की कमजोरियां उजागर की हैं। खासकर, सरकारी और प्राइवेट हेल्थ सिस्टम के बीच के विरोधाभास की तो इसने अच्छे से कलई खोली है। पहले से स्वास्थ्य सेवाओं की भारी कमी का सामना कर रहे सरकारी हेल्थकेयर सिस्टम के समक्ष जैसे ही कोरोना संकट से लड़ने की चुनौती आई, वैसे ही प्राइवेट हेल्थकेयर सेवाओं की वकालत करने वाले मूकदर्शक बन गए या फिर एक बैलआउट पैकेज की मांग में जुट गए।

ऐसे समय जब अस्पतालों द्वारा मरीजों को या तो भर्ती करने से इंकार किया जा रहा है, या फिर उनसे कोविड-19 से मुक्त होने का सर्टिफिकेट मांगा जा रहा है, फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री का दावा है कि प्राइवेट हेल्थकेयर सेक्टर को सरकार से तरलता यानी पैसे चाहिए। इसके अलावा, उसे अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष करों से राहत के साथ ही कॉस्ट सब्सिडी भी चाहिए। कॉस्ट सब्सिडी का मतलब यह है कि हेल्थकेयर से जुड़ी चीजों की उत्पादन लागत का एक हिस्सा सरकार वहन करे।

यह विडंबना ही है कि संगठन ने यह भी कहा है कि इस महामारी के कारण प्राइवेट हेल्थकेयर सिस्टम की सेहत पर बुरा असर हुआ है।

उधर, सरकारी हेल्थ सिस्टम की वकालत करने वाले भी चुप्पी साधे हुए हैं। जब से नीति आयोग अस्तित्व में आया, तब से वह स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी सुविधाओं यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर के निजीकरण की जोरदार वकालत करता आ रहा है। सिर्फ हाल में इसने इस मामले में पूरी तरह से चुप्पी साधी है।

2017 के जून में आयोग ने देश के जिला अस्पतालों में गैर-संक्रामक बीमारियों के इलाज में सुधार के लिए जरूरी बुनियादी संरचना सुविधाओं की स्थिति सुधारने के लिए निजी-सरकारी साझेदारी (पीपीपी मॉडल) का प्रस्ताव दिया था। हालांकि, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की वकालत करने वाले एक्सपर्ट्स के विरोध के कारण उनका यह प्रस्ताव खटाई में पड़ गया।

इसके बावजूद, उसी साल अक्टूबर में आयोग जिला अस्पतालों में प्राइवेट कंपनियों के प्रवेश का एक तरीका लेकर आया। इसी तरह, 2020 के जनवरी में आयोग 250 पन्नों का डाक्यूमेंट लेकर आया, जिसमें उसने एक पीपीपी मॉडल का सुझाव दिया। इसमें बताया गया कि किस तरह से प्राइवेट मेडिकल कॉलेज देश के जिला अस्पतालों को कंट्रोल कर सकते हैं।

इन उदाहरणों से साफ है कि नीति आयोग पिछले कुछ सालों से सरकारी हेल्थकेयर सिस्टम में प्राइवेट प्लेयर्स को प्रवेश दिलाने की भरसक कोशिश करता रहा है। लेकिन इसके लिए सिर्फ आयोग को ही दोष क्यों दें? मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कोविड-19 के मरीजों के इलाज के लिए प्राइवेट अस्पतालों को भी सरकार ने अपने हाथों में ले लिया है।

19 अप्रैल को बिहार सरकार के नौकरशाह संजय कुमार ने ट्वीट कर बताया कि किस तरह राज्य में प्राइवेट अस्पताल चिकित्सा मामलों में पूरी तरह से बाहर हो गया है। यह वास्तव में चिंता में डालने वाली बात भी है, क्योंकि सरकारी अस्पतालों के 22,000 बेड की तुलना में प्राइवेट अस्पतालों के पास 48,000 बेड हैं।

मनमोहन सिंह कहां हैं?

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 1990 के दशक के शुरू में अर्थव्यवस्था को उदार बनाने का श्रेय जाता है। अब उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने कभी कल्पना की थी कि भारतीय हेल्थ सिस्टम का यह हाल हो जाएगा, जो इस समय है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें समाज के सबसे कमजोर लोग स्वास्थ्य सेवा देने वालों से मोलभाव करने के लिए बाध्य हैं।

प्राइवेट सेक्टर का विकास

 

इस ग्राफ से पिछले कुछ दशक के दौरान भारत में प्राइवेट अस्पतालों के विकास की साफ तौर पर एक झलक मिलती है। इसमें एनएसएसओ के आंकड़ों का उपयोग करते हुए दिखाया गया है कि किस तरह 1990-91 के बाद, जब भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण शुरू हुआ, तब से निजी स्वास्थ्य सेवा देने वाली कंपनियों की संख्या में तेज इजाफा हुआ है।

हालांकि, इस ग्राफ में 2008 तक के ही आंकड़े हैं, लेकिन इनसे निजी स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाली कंपनियों की ग्रोथ की रफ्तार जरूर सामने आ जाती है।

यहां यह भी साफ है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की जोरदार कोशिश तो हो रही है, लेकिऩ इस सेक्टर को रेगुलेट यानी नियमानुसार चलाने का कोई प्रयास नहीं हुआ। लेखक शैलेंद्र कुमार ने लिखा है कि जिन देशों में स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में निजी कंपनियों को प्रश्रय दिया जाता है, वहां प्राइवेट सेक्टर के नियमन और नियंत्रण के लिए ठोस गाइडलाइंस भी हैं। लेकिन भारत में प्राइवेट सेक्टर के मामले में सरकार ने मजबूत रेगुलेटर यानी नियंत्रक-नियामक के बदले सहायक की भूमिका अदा की है।

दूसरी तरफ, गरीबी के दलदल में फंसे बड़ी संख्या में भारतीय सस्ती और अच्छी गुणवत्ता वाली चिकित्सा सेवाओं के अभाव में खुद ही मौत के मुंह में जा रहे हैं।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2001 से 2015 के बीच भारत में 3.8 लाख लोगों ने आत्महत्या की, क्योंकि उनके पास चिकित्सा सुविधाएं नहीं थीं। आत्महत्या करने वालों की यह संख्या उस दौरान आत्महत्या करने वालों की कुल संख्या का लगभग 21 फीसदी थी। 

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