कोविड-19 संक्रमण से बचाव: एस्ट्राजेनेका की दूसरी खुराक का असर कम होते ही बढ़ जाता है गंभीर बीमारियों का खतरा

चिकित्सा पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक वैक्सीन 18-19 सप्ताह बाद बेकार होने लगती है। इसलिए बूस्टर डोज देने पर जोर दिया जा रहा है। 

By Taran Deol

On: Thursday 23 September 2021
 

कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी, कोविड-19 से बचाव के लिए वैक्सीन को सबसे कारगर उपाय माना जाता रहा है, हालांकि इसकी जांच के लिए बनी निर्णायक समिति अब यह देख रही है कि इसका असर कितने लंबे समय तक रहता है। हाल के एक अध्ययन से संकेत मिला है कि एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन, दूसरी खुराक के तीन महीने बाद ही निष्प्रभावी होने लगती है।

भारत में यह वैक्सीन, कोविशील्ड के नाम से जानी जाती है, जिसका निर्माण सीरम इंस्टीट्यूट ने किया है। देश में यही सबसे ज्यादा लागों को दी जाने वाली वैक्सीन है। स्कॉटलैंड में दो मिलियन और ब्राजील में 42 मिलियन लोगों पर एक बेतरतीब परीक्षण किया गया। द लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन, दोनों वैक्सीन ले चुकी आबादी के लिए बूस्टर खुराक की आवश्यकता पर जोर दे रहा है।
 
इसमें पाया गया कि वैक्सीन से मिलने वाली प्रतिरोधक क्षमता इसकी दूसरी खुराक के दो से तीन सप्ताह बाद तक सबस ज्यादा प्रभावी रहती है, हालांकि उसके बाद समय बीतने पर 18-19 सप्ताह बाद यह निष्प्रभावी होना शुरू हो जाती है।

अध्ययन में कहा गया:
 
दोनों देशों में अलग-अलग वैरिएंट्स के मिले नतीजों और संक्रमण दरों के अस्थयी रुझानों से संकेत मिलता है कि एस्ट्राजेनेका की दूसरी खुराक के बाद भी लोगों में गंभीर बीमारियों की मुख्य वजह वैक्सीन का निष्प्रभावी होते जाना है। इसमें पाया गया कि वैक्सीन के निष्प्रभावी होने का असर स्कॉटलैंड और ब्राजील में अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या और उनकी मौत होने की आशंका बढ़ने के तौर पर नजर आया। इसके साथ ही, दूसरी खुराक लेने के तीन महीने बाद, जब वैक्सीन का असर कम हो जाता है तब यह आशंका काफी बढ़ जाती है।
 
हालांकि इसमें यह भी कहा गया कि वैक्सीन कितनी निष्प्रभावी होती है, इसकी मात्रा का पता लगाना चुनौतीपूर्ण है। इसके साथ ही वैक्सीन की प्रभावशीलता के अनुमानों पर सावधानी के साथ विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे वैक्सीन न लेने वाले लोगों के बीच जोखिम का अनुमान लगाने में कठिनाई होती है। अध्ययन के मुताबिक, ‘फिर भी हमारे नतीजे ये दिखाते हैं कि इन दोनों देशों में दूसरी खुराक के तीन महीने बाद पर्याप्त वैक्सीन बेकार हो रही है।’
 
यह अध्ययन स्कॉटलैंड में मई 2021 में किया गया था, जब कोरोना वायरस का डेल्टा वैरिएंट फैल रहा था और ब्राजील में यह इस साल जनवरी से अक्टूबर के बीच गामा वैरिएंट के प्रसार के बीच किया गया।

अध्ययन के मुताबिक, ‘अस्पताल में भर्ती कोविड-19 के मरीजों की संख्या और उनकी मौतों की आशंका के खतरे के तौर पर देखें तो यह एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड वैक्सीन की दूसरी खुराक के तीन महीने बाद बढ़ने लगता है। ’

एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड वैक्सीन, पूरी दुनिया में सबस ज्यादा बांटी गई है और कम से कम 170 देशों में इसका इस्तेमाल किया गया है। कोवैक्स अभियान के तहत वितरित की गई वैक्सीन में इसकी तादाद आधी से ज्यादा है। यह इकलौती अधिकृत वैक्सीन है, जिसे ठंडे तापमान में रखने की जरूरत नहीं है और यह सस्ती भी है।

पिछले कुछ सप्ताहों में वैक्सीन से बनने वाली प्रतिरोधक क्षमता के बेकार होने पर चिंताएं बढ़ी हैं। कोरोना के पांचवे वैरिएंट, ओमिक्रॉन के दौर में स्थिति को संभालने के लिए इस पर ध्यान देना और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बताया जा रहा है कि ओमिक्रॉन, वैक्सीन की प्रतिरोधी क्षमता को नष्ट करने में सक्षम हैै।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आधिकारिक तौर पर संक्रमण का जोखिम फिर से बढ़ने की चेतावनी दी है। बूस्टर खुराक समय की मांग है, लेकिन इसे लेकर एक नैतिक बहस बनी हुई है।

यूनाइटेड किंगडम स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी ने हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें दर्ज किया गया कि फाइजर इंक और एस्ट्राजेनेका वैक्सीन, ओमिक्रॉन के संक्रमण को रोकने में कम प्रभावी हैं। एस्ट्राजेनेका के मामले में यह प्रभावशीलता ज्यादा कम पाई गई।

भारत में वैक्सीन लेने वालों में 90 फीसद लोगों ने कोविशील्ड ही लगवाई है। अवर वर्ल्ड इन डाटा के मुताबिक, फिलहाल देश की 40 फीसद आबादी ने वैक्सीन की दोनों खुराक ले ली हैं। हालांकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि 50 फीसद लोगों को दोनों वैक्सीन लग चुकी हैं। 

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