सीएसई लैब रिपोर्ट: फूड इंडस्ट्री के हक में बन रहे हैं नियम

#Everybitekills सीएसई के अध्ययन में पाया गया कि फूड इंडस्ट्री के फायदे के लिए नियमों में बार-बार बदलाव किए जा रहे हैं और जनता की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है

By Amit Khurana, Sonal Dhingra

On: Tuesday 17 December 2019
 
Photo: Vikas Choudhary / CSE

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के ताजा अध्ययन में खुलासा हुआ है कि जंक फूड और पैकेटबंद भोजन खाकर हम जाने-अनजाने खुद को बीमारियों के भंवरजाल में धकेल रहे हैं। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जंक फूड में नमक, वसा, ट्रांस फैट की अत्यधिक मात्रा है जो मोटापा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय की बीमारियों के लिए जिम्मेदार है। ताकतवर प्रोसेस्ड फूड इंडस्ट्री और सरकार की मिलीभगत से जंक फूड 6 साल से चल रहे तमाम प्रयासों के बावजूद कानूनी दायरे में नहीं आ पाया है। जंक फूड बनाने वाली कंपनियां उपभोक्ताओं को गलत जानकारी देकर भ्रमित कर रही हैं और खाद्य नियामक मूकदर्शक बनकर बैठा हुआ है। पढ़ें, इस रिपोर्ट की अगली किस्त... 

 

फ्रंट ऑफ पैक (एफओपी) सुनिश्चित हो, इसके लिए कानून बनाने में कमेटी दर कमेटी बनाने की कहानी भले ही दुःखद न हो, लेकिन हास्यास्पद जरूर है। मिसाल के लिए, फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड (लेबलिंग एंड डिस्प्ले) रेगुलेशंस, 2019 में एफओपी लेबल पर प्रस्तावित तीन को पांच तरह के न्यूट्रिएंट्स के बदलाव प्रस्ताव रखा था। इसमें नमक की जगह सोडियम, टोटल फैट के साथ सैचुरेटेड फैट और कुल शुगर के साथ एडेड शुगर को शामिल किया गया है।

नमक हाइपरटेंशन को बढ़ावा देता है। इस साल तैयार किए गए ड्राफ्ट में नमक की जगह सोडियम लिखने का प्रस्ताव दिया गया है, जो फूड इंडस्ट्री के पक्ष में जाता है। लोगों को सोडियम और नमक के साथ उसके संबंध के बारे में बहुत कम जानकारी है। सोडियम में नमक की मात्रा कितनी है, इसका हिसाब कैसे लगाया जाए, इसकी जानकारी भी लोगों को कम ही है। मगर एफएसएसएआई ने ड्राफ्ट में पैकेट के पीछे और सामने सोडियम लिखने का ही प्रस्ताव दिया है।

एफओपी में कुल वसा की जगह सैचुरेटेड फैट का जिक्र करने को कहा गया है, ये भी फूड इंडस्ट्री के हक में ही है। पैकेटबंद खाने में वसा बहुत होता है, लेकिन उसमें अत्यधिक सैचुरेटेड फैट हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। ये समग्रता में समस्या का हल नहीं देता है बल्कि इससे ग्राहकों में भ्रम फैलेगा और उन्हें लगेगा कि सैचुरेटेड फैट के अलावा जो फैट है, वह नुकसानदेह नहीं है।

सैचुरेटेड फैट का हृदय रोग से गहरा संबंध है, जो वयस्क होने पर सामने आता है। लेकिन, टोटल फैट की अधिकता वाला खाद्य बहुत कम उम्र में ही समस्या की जड़ बन सकता है। दिल्ली के हमदर्द अस्पताल की शिशुरोग विभाग की प्रमुख रेखा हरीश कहती हैं, “इससे बच्चों में मोटापे का रोग हो सकता है। इसलिए फूड पैक्स में टोटल फैट के साथ सैचुरेटेड फैट का भी जिक्र किया जाना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा, “बचपन में मोटापा एक बड़ी चिंता बन गया है। एफएसएसएआई द्वारा स्वीकृत 2000 कैलोरी बच्चों के लिए बहुत ज्यादा है। इससे बच्चे काफी ज्यादा फैट और शुगर ग्रहण कर सकते हैं।”

अतः एफओपी में फैट के बारे में आधी जानकारी से बहुत फायदा नहीं होने वाला है। एफओपी से टोटल फैट हटाने से पहले एफएसएसएआई को यूके व दक्षिण कोरिया की तरह सैचुरेटेड फैट के बगल में इसे छापने की संभावनाएं तलाशनी चाहिए थी। सच कहें, तो ट्रांस फैट की जगह टोटल फैट लाना चाहिए क्योंकि ये पैक्ड व फास्ट फूड से बाहर हो रहा है। एफएसएसएआई ने घोषणा की है कि वर्ष 2022 तक औद्योगिक स्तर पर उत्पादित ट्रांस फैट को खत्म करेगा। अगर ड्राफ्ट की अधिसूचना जारी हो जाए, तो वर्ष 2020 तक एफओपी पर लाल निशान लगाने का नियम लागू हो जाएगा।

संशोधित ड्राफ्ट में दूसरी चीज जो खत्म की जा रही है वह है टोटल शुगर को एडेड शुगर में बदलना। इसका मतलब है कि एफओपी लेबल में खाद्य पदार्थ में प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले शुगर की जानकारी नहीं रहेगी। लेबल में उसी शुगर के बारे में जानकारी दी जाएगी, जिसका इस्तेमाल फूड प्रोसेसिंग के वक्त किया जाएगा। बात यहीं खत्म नहीं होती है। टोटल शुगर की जगह एडेड शुगर लिखा जाएगा, तो शुगर के लिए तय आरडीए में बदलाव नहीं होगा। वर्ष 2018 के ड्राफ्ट कुल शुगर की स्वीकृत मात्रा 50 ग्राम तय की गई थी। अब जो ड्राफ्ट तैयार किया गया है उसमें टोटल शुगर की मात्रा भी 50 ग्राम ही तय की गई है। यह टोटल शुगर के मुकाबले दोगुना है। दूसरे शब्दों में, केवल लाभ के लिए चल रहे खाद्य कारोबार का पूरा खेल गुमराह करने वाला और गलत जानकारी पर आधारित है।

दूसरी तरफ, संशोधित ड्राफ्ट में पेय पदार्थों को इससे छूट दी गई है जबकि पुराने ड्राफ्ट में 80 किलो कैलोरी से कम शुगर डालने का प्रावधान रखा गया था और इससे अधिक शुगर डालने पर एफओपी में लाल निशान लगाने की बात थी। 10-11 ग्राम एडेड शुगर वाला 100 मिलीलीटर का एक सॉफ्ट ड्रिंक, जिसमें 40 से 45 प्रतिशत एम्टी कैलोरी हो, अगर उसे छोटे आकार में बेचा जाए, तो लाल कोड से बचा जा सकता है। यह महज संयोग नहीं है कि इसी तर्ज पर 150-200 मिलीलीटर आकार का सॉफ्ट ड्रिंक्स भी अब बाजार में उपलब्ध है। नियामक संस्थाएं ये समझने में विफल रहीं कि अस्वास्थ्यकर पेय पदार्थ का सेवन अगर कम मात्रा में किया जाए, तो वो स्वास्थ्यकर नहीं हो जाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (साउथ-ईस्ट एशिया) के मुताबिक, प्रति 100 मिलीलीटर पानी-आधारित मसालेदार पेय पदार्थ में एडेड शुगर की मात्रा 2 ग्राम होनी चाहिए, मगर एफएसएसएआई सॉफ्ट ड्रिंक में इस सीमा से पांच गुना ज्यादा एडेड शुगर डालने की अनुमति देने को तैयार है। अतिरिक्त शुगर होने के बावजूद एफओपी लेबल में लाल निशान नहीं लगाया जाएगा।

नए ड्राफ्ट में हालांकि कैलोरी की भी सामान्य मात्रा निर्धारित नहीं की है। अगर एक उत्पाद में केवल टोटल फैट और टोटल शुगर की तयशुदा मात्रा है व उसमें टोटल कैलोरी बहुत अधिक है, तो भी एफओपी पर लाल निशान लगाने से बच जाएगा। यह ड्राफ्ट कंपनियों को नियम लागू करने के लिए तीन साल का वक्त देता है। पहले दो वर्षों तक कंपनियां अपने उत्पादों में पोषक तत्व स्वीकृत मात्रा से 30 प्रतिशत अधिक रख सकती हैं और तीसरे साल में इन तत्वों को स्वीकृत मात्रा के स्तर पर लाएंगी। यानी अगर ये पता भी चल जाए कि पैकेटबंद भोजन खराब है और रेड कैटेगरी का है, तो भी फूड इंडस्ट्री के पास चीजों को ठीक करने का वक्त रहेगा। वहीं, अगर ये ड्राफ्ट, ड्राफ्ट ही रह जाता है, तब तो अपना वक्त खुद तय करेंगे और हमें बुरा स्वास्थ्य व बुरा कानून मिलेगा। (अध्ययन : मृणाल मलिक, अरविंद सिंह सेंगर और राकेश कुमार सोंधिया विश्लेषण : अमित खुराना और सोनल ढींगरा)

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