ग्राउंड रिपोर्ट: जलवायु परिवर्तन के नए शिकार, देश में बढ़ रहा है कुष्ठ रोग

देश के जलवायु आपदा प्रभावित जिलों में कुष्ठ रोग के मामले बड़ी संख्या में पाए जाते हैं

By Subhojit Goswami, Nikita Sarah

On: Sunday 14 April 2024
 
चक्रवात और बारिश ने पश्चिम बंगाल के सुंदरवन स्थित बामनपुकुर गांव निवासी सुरेश सरकार और उनके परिवार पर काफी असर डाला है। इसने परिवार की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित किया है, जो पूर्व में कुष्ठ रोग से पीड़ित रहे सुरेश के लिए जोखिम भरा है

पश्चिम बंगाल के सुंदरवन स्थित बामनपुकुर के रहने वाले सुरेश सरकार के सात सदस्यों वाले परिवार को मई 2020 से ही पौष्टिक आहार के लाले हैं। पहले तो अम्फान चक्रवात ने उनके गांव में तबाही मचाई। चक्रवात ने बांस और मिट्टी से बने उनके घर को तहस-नहस कर दिया और तटबंध तोड़कर घुस आए खारे और प्रदूषित पानी के चलते उनके तालाब की सारी मछलियां मर गईं।

यह नुकसान सुरेश के भतीजे शंकर (जो परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य है) के लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि इसी तालाब की मछलियां बेचकर वह हर महीने 15 हजार रुपए की कमाई कर लेते थे। अम्फान चक्रवात के अगले साल यास चक्रवात ऐन ज्वार के समय आया और खारा पानी खेतों में फैल गया, जिससे क्षेत्र की फसलें बर्बाद हो गईं। इस क्षेत्र के अधिकांश परिवार जीवन यापन के लिए सिर्फ कृषि और मछली पालन पर निर्भर हैं।

शंकर अब परिवार चलाने के लिए साइकिल वैन पर माल ढोते हैं और निर्माण स्थलों पर मजदूरी करते हैं जिससे महीने में महज 7 हजार रुपए ही कमा पाते हैं। अम्फान के बाद नए सिरे से उन्हें घर बनाने के लिए कर्ज लेना पड़ा, जिसे चुकता करना अभी बाकी है। पैसे की इस किल्लत ने उनके भोजन के स्तर को बदल दिया है। अब चावल और गेहूं की रोटियां परिवार का मुख्य खाद्य हो गए हैं और जंगली साग ने अंडे, मछली तथा चिकन की जगह ले ली है।

भोजन में यह बदलाव 59 वर्षीय सुरेश के लिए जोखिम भरा है क्योंकि पूर्व में उन्हें कुष्ठ रोग हो चुका है। कुष्ठ रोग, एक तरह के जीवाणु से फैलता है, जो शरीर के संवेदी अंगों पर असर डालता है। इससे अंग सुन्न हो जाते हैं और उनमें कुरूपता आ जाती है। यह संक्रमण उन लोगों पर ज्यादा असर डालता है, जिन्हे प्रोटीन-ऊर्जा से भरपूर खाद्य नहीं मिलता है और जिनके आसपास साफ-सफाई और घर की उपलब्धता नहीं है। साल 2003 और साल 2011 में सुरेश कुष्ठ रोग का इलाज करा चुके हैं।

हालांकि, वह कुष्ठ रोग से पूरी तरह ठीक हो चुके हैं, लेकिन उनकी मांसपेशियों में अब भी कमजोरी है और उन्हें थकावट महसूस होती है। उन्हें हाथों के सुन्न हो जाने और पैर में अल्सर का डर सताता है और वह ठेका मजदूर के रूप में भी काम नहीं कर पाते हैं। उनकी 18 साल की बेटी और 16 साल के बेटे को भी कुष्ठ रोग का खतरा है, लेकिन इसके बावजूद वह हर दिन केवल एक बार ही पौष्टिक आहार ले पाते हैं।

भारत की चक्रवात राजधानी कहे जाने वाले सुंदरवन में इस तरह की दर्द भरी कहानियां आम हैं। लेकिन यह इकलौता क्षेत्र नहीं है। देश के बहुत सारे जिले कुष्ठ रोग, चरम मौसमी गतिविधियां और सामाजिक-आर्थिक संवेदनशीलता से गुजर रहे हैं।

जोखिम

दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले भारत में कुष्ठ रोग के मरीज सबसे ज्यादा हैं और विश्व भर में सालाना कुष्ठ रोग के जो मामले सामने आते हैं, उसमें भारत की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत है। भारत में भी ऐतिहासिक तौर पर सात राज्यों (बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) में कुष्ठ रोग के मामले सबसे अधिक हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य सेवाओं के निदेशालय के मुताबिक, देश में हर साल जितने मामले सामने आते हैं, उनमें 70-80 प्रतिशत हिस्सेदारी इन सात राज्यों की होती है।

साल 2021 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की तरफ से जारी एक रिपोर्ट (क्लाइमेट वल्नरबिलिटी असेसमेंट फॉर एडॉप्शन प्लानिंग इन इंडिया यूजिंग ए कॉमन फ्रेमवर्क) में ऐसे जिलों की शिनाख्त की गई है, जहां जलवायु परिवर्तन का खतरा अधिक है। वहीं, द लेप्रोसी मिशन ट्रस्ट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन का खतरा झेलने वाले जिलों में ही कुष्ठ रोग व अन्य उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों (एनटीडीएस) जैसे हाथी पांव रोग (फाइलेरिया) का अधिक फैलाव होता है। हाथी पांव एक विषाणु-जनित संक्रमण है, जिससे पैर, बांह और जननांगों में सूजन हो जाता है।

नीति आयोग की रिपोर्ट “इंडिया नेशनल मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स 2021” (जो स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के मानदंडों को आंकती है) से भी पता चलता है कि जो जिले पौष्टिक आहार व अन्य संकेतकों में खराब हैं, उन्हीं जिलों में कुष्ठरोग और अन्य उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग ज्यादा होते हैं।

मिसाल के तौर पर बिहार को लिया जा सकता है। केंद्रीय कुष्ठ रोग विभाग के मुताबिक, भारत में हर साल कुष्ठ रोग के जितने नए मामले सामने आते हैं, उनमें से 15 प्रतिशत मामले बिहार से होते हैं। राज्य की आधी आबादी (51.9 प्रतिशत) बहुआयामी गरीब है। यहां के तीन उत्तरी जिलों सीतामढ़ी, सुपौल और किशनगंज में प्रति 10,000 की आबादी में से 2.32 लोगों में कुष्ठ रोग है, जबकि राष्ट्रीय औसत 0.57 है। यहां यह भी गौरतलब है कि इन तीन जिलों की 63-65 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीब है।

राज्य के कुछ जिलों में कुष्ठ रोग के 75 प्रतिशत मामले स्मीयर-पॉजिटिव (मल्टीबैसिलरी यानी एमबी) हैं। इस तरह के मामलों में मरीजों में विषाणुओं की मौजूदगी काफी ज्यादा होती है, जिससे और अधिक संक्रमण हो सकता है। प्रतिक्रिया विकसित होने के परिणामस्वरूप इस रोग से ग्रसित लोगों की नस क्षतिग्रस्त हो सकती है। प्लोस नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज में साल 2017 में प्रकाशित एक अध्ययन (जिसे ब्राजील और अमेरिका के शोधकर्ताओं ने तैयार किया था) में कहा गया है कि एमबी कुष्ठ रोग के मामले कम या कमजोर कोशिका-मध्यस्थ प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया वाले रोगियों में विकसित होते हैं, जिसका कारण प्रोटीन-ऊर्जा कुपोषण होता है।

स्रोत: भारत में अनुकूलन संबंधी योजना के लिए एक साझा फ्रेमवर्क का उपयोग करते हुए जलवायु भेद्यता आकलन-2021, इंडिया नेशनल मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स-2021 और सेंट्रल लेप्रोसी डिवीजन से मिले आंकड़ों का द लेप्रोसी मिशन ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा विश्लेषणयह देखते हुए बिहार में खाद्य सुरक्षा पर ध्यान देने की जरूरत है। देशभर के शीर्ष 25 प्रतिशत जलवायु-संवेदनशीलता जिलों में बिहार के 31 जिले (राज्य में 38 जिले) शामिल हैं। बिहार के 94 लाख हेक्टेयर में से 68 लाख हेक्टेयर (उत्तर बिहार के 76 प्रतिशत और दक्षिण बिहार के 73 प्रतिशत) क्षेत्र बाढ़ प्रभावित है।

गर्मी के मौसम में सुखाड़ की लंबी अवधि, अनियमित माॅनसून बारिश और सर्दी के मौसम में रबी सीजन की बुआई के वक्त तापमान में असामान्य गिरावट व बढ़ोतरी से खाद्यान्न उत्पादन खासकर विविधतापूर्ण व पौष्टिक फसलों के उत्पादन के मामले में विषमता आती है, जो लोगों की आवश्यक पौष्टिक खुराक को प्रभावित कर सकता है।

बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश (यूपी) में भी इसी तरह के कारण और प्रभाव नजर आते हैं। साल 2020 में उत्तर प्रदेश में कुष्ठ रोग के 15,848 नए मामले सामने आए और राज्य तीसरे स्थान पर रहा। यूपी के श्रावस्ती और बहराइच जिलों में कुष्ठ रोग की मौजूदगी काफी ज्यादा है और इन जिलों की 70 प्रतिशत आबादी बहुआयामी गरीबी में जी रही है। इन जिलों में उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग के दूसरे मामले भी सामने आते हैं।

साल 2019-2020 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की 31.2 प्रतिशत आबादी के पास पर्याप्त साफ-सफाई की व्यवस्था नहीं है। राज्य में स्वास्थ्य पर जितना खर्च होता है, उनमें से 72.6 प्रतिशत खर्च लोग अपनी जेब से करते हैं। यह राष्ट्रीय औसत (राष्ट्रीय औसत 48.8 प्रतिशत) की तुलना में काफी अधिक है। और इसके चलते लोगों को खाद्य सुरक्षा से समझौता करना पड़ता है।

जलवायु संवेदनशीलता की बात करें तो ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के 67 प्रतिशत जिले बाढ़ और सुखाड़ जैसी घटना से प्रभावित हैं। पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश में उच्च तापमान और अनियमित बारिश की घटनाओं में इजाफा हुआ है। “उत्तर प्रदेश स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज, 2017” में राज्य के सिंचित क्षेत्र में कृषि उत्पादन में 25 प्रतिशत और बारिश वाले इलाके में कृषि उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की गिरावट का अनुमान लगाया गया है।

ऐसा ही कुछ छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र में भी देखने को मिल रहा है। अधिक कुष्ठ रोग और आदिवासियों की अधिक आबादी वाले जिले सुखाड़ और बाढ़ के बीच झूलते हैं। ये कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों पर असर डालते हैं और बारिश पर निर्भर एकल फसल उगाने वाले सीमांत किसानों या वनोपज पर आश्रित आदिवासियों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लेकर असुरक्षित बनाते हैं।

स्वास्थ्य पर फोकस

राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन कार्यक्रम में साल 2027 तक के लिए दो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। पहला लक्ष्य संक्रमण को जिले स्तर पर ही रोकना या लगातार कम से कम पांच वर्षों तक बच्चों में कुष्ठ रोग के शून्य नए मामले लाना है और दूसरा लक्ष्य कुष्ठ रोग का बीमारी के तौर पर उन्मूलन या लगातार कम से कम तीन सालों तक कुष्ठरोग के नए मामले नहीं आए, यह सुनिश्चित करना है। इसके लिए हमें स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में मांग और पूर्ति में हस्तक्षेप करने की जरूरत है।

यह बहुत जरूरी है कि जिस आबादी पर जोखिम है, वह स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने में समर्थ बने। लेकिन जलवायु विसंगतियों से प्रभावित होने के चलते खाद्य असुरक्षा और कर्ज की चिंता बढ़ जाए, तो यह संभव नहीं। अतः अब राष्ट्रीय स्तर पर सोचने की जगह अति स्थानीय महामारी विज्ञान और मौसम संबंधी आंकड़ों के जरिए ब्लॉक स्तर पर भेद्यता मूल्यांकन पर फोकस करने की जरूरत है।

वहीं, आपूर्ति की तरफ देखें, तो जलवायु व स्वास्थ्य में संबंध को लेकर फ्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स को संवेदनशील बनाने के साथ-साथ उनमें जोखिम की शिनाख्त और रोकथाम के लिए हस्तक्षेप करने की योजना बनाने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। कुष्ठरोग को खत्म करने के लिए समग्र वन हेल्थ दृष्टिकोण को लागू करने की जरूरत है, जो बीमारी के नैदानिक पहलुओं से आगे जाकर स्वास्थ्य, आदिवासी मामलों, कृषि और पर्यावरण विभागों के बीच आपसी सहयोग पर फोकस करता है।

(शुभोजीत गोस्वामी, द लेप्रोसी मिशन ट्रस्ट इंडिया के वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक और निकिता सारा वकालत और संचार की प्रमुख हैं)

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