अकेलेपन के खतरों से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की क्या है तैयारी?

अकेलेपन की माप को लेकर एक वैश्विक सूचकांक स्थापित करने की दिशा में इसके प्रयासों के बारे में जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने डब्ल्यूएचओ के तकनीकी अधिकारी क्रिस्टोफर मिक्टन से बात की

By Rohini K Murthy

On: Wednesday 24 April 2024
 
Photo: Istock

इससे पहले आपने पढ़ा कि किस तरह अकेलापन पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बन चुका है और अकेलेपन को गंभीर स्वास्थ्य खतरा मानते हुए डब्ल्यूएचओ ने नवंबर 2023 में सामाजिक संपर्क पर एक नए आयोग के गठन की घोषणा की। आयोग का लक्ष्य क्या है, इस दिशा में अब तक कितनी प्रगति हुई है और अकेलेपन की माप को लेकर एक वैश्विक सूचकांक स्थापित करने की दिशा में इसके प्रयासों के बारे में जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने डब्ल्यूएचओ के तकनीकी अधिकारी क्रिस्टोफर मिक्टन से बात की

सामाजिक संपर्क पर आयोग की स्थापना के पीछे की सोच क्या थी?

मुझे लगता है इसके अनेक कारण हैं। एक वजह तो इसको लेकर उभरता प्रमाण है। पिछले करीब 15 वर्षों में मृत्यु, रुग्णता और ऐसी तमाम अवस्थाओं पर अकेलेपन के स्वास्थ्य प्रभावों के बीच संपर्क के बारे में वैज्ञानिक डेटा में तीव्र वृद्धि हुई है। दूसरा कारण है महामारी। सामाजिक दूरी के उपायों का मतलब था कि लोग अपने घरों में बंद थे। इससे कई लोगों को सामाजिक संपर्क का महत्व समझ में आया और उन्हें एहसास हुआ कि न सिर्फ बुजुर्ग लोगों बल्कि सभी आयु समूहों के लिए अकेलापन कितना बड़ा मसला हो सकता है। तीसरी वजह सोशल मीडिया है। लोग मानसिक स्वास्थ्य पर सोशल मीडिया के असर को लेकर चिंतित हैं। क्या सोशल मीडिया अकेलेपन को बढ़ा रहा है या यह लोगों को संपर्क बनाने के मौके दे रहा है? इस पर एक बड़ी बहस चल रही है। डब्ल्यूएचओ के लिए चौथी वजह यह है कि मुख्य रूप से ऊंची आय वाले अधिक से अधिक देश, खासतौर से यूनाइटेड किंगडम और जापान ने राष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। दूसरे देश भी नीतियां बनाते रहे हैं। इस प्रकार यह मसला सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक नीति एजेंडे को आगे बढ़ाता रहा है। हमने बुजुर्ग जनसंख्या के जरिए अकेलेपन के विषय में दिलचस्पी लेनी शुरू की। करीब तीन साल पहले हमें एहसास हुआ कि यह दुनिया के सभी देशों में सभी समूहों के लिए एक मुद्दा है। इसलिए हमने अपने दायरे को इस तरह विस्तार दिया जो पहले से अधिक वैश्विक है और सभी आयु समूहों में फैला हुआ है।

दुनिया भर में अकेलेपन के पैमाने को समझने के लिए उपलब्ध शोध में वे कौन सी कमियां हैं जिनकी आपने पहचान की है?

जहां तक समस्या के पैमाने का सवाल है, तो इस पर पर्याप्त शोध उपलब्ध है। हमारे पास अनेक देशों से आंकड़े हैं, जैसे हाल ही में गैलप और मेटा द्वारा एक सर्वेक्षण किया गया जिसमें 142 देशों को शामिल किया गया था। इसके अलावा भी अनेक बहु-देशीय सर्वेक्षण हुए हैं और हम फिलहाल इन सबको इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे तो हमारे पास डेटा है, लेकिन इनमें कमियां हैं। समस्या यह है कि अलग-अलग देश अक्सर तुलनीय मापकों का उपयोग नहीं करते। हमें नहीं मालूम कि हम इनकी तुलना कर सकते हैं या नहीं। कोई कह सकता है कि प्रसार 25 प्रतिशत है जबकि दूसरों के विचार में यह 10 प्रतिशत ही हो सकता है। क्या यह अंतर इसलिए है क्योंकि उपयोग में लाए गए मापक अलग हैं या सैंपल अलग रहने के चलते ऐसा देखने को मिलता है। इसलिए हमें अनेक देशों में सुसंगत रूप से उपयोग किए जाने वाले एक मानकीकृत और मान्य उपाय की जरूरत है ताकि हम चीजों की तुलना शुरू कर सकें। इससे हम ये देख सकेंगे कि क्रियान्वित की जा रही विभिन्न नीतियों और विभिन्न हस्तक्षेपों का ऐसे प्रभावों को कम करने में असर हो रहा है या नहीं।

सामयिक रुझानों यानी विभिन्न देशों में दरें बढ़ रही हैं या घट रही हैं, इस पर भी हमारे पास उपयुक्त डेटा नहीं है। लिहाजा हमें एक लंबी अवधि में बार-बार प्रयोग में लाए जा सकने वाले बेहतर और अधिक तर्कसंगत उपायों की आवश्यकता है ताकि इस बात की बेहतर समझ मिल सके कि यह समस्या बढ़ रही है या इसमें कमी आ रही है। लोग इसमें बढ़ोतरी होने की बात कर रहे हैं लेकिन इस बात के भी संकेत हैं कि कुछ देशों में यह दर नीचे जा रही है। फिलहाल, हम जानते हैं कि अकेलापन एक बड़ी समस्या है। यह वाकई कितनी बड़ी है, इसकी तुलना किए जा सकने की हद इस समय ज्यादा दिक्कतों से भरी है। एक अन्य मसला यह है कि ज्यादातर अध्ययन ऊंची आय वाले देशों में किए गए हैं। उपलब्ध डेटा में से अधिकतर बुजुर्ग लोगों के हैं। निम्न और मध्यम-आय वाले देशों के काफी कम अध्ययन हैं और इनमें भी युवाओं, खासतौर से नौजवानों के लिए तो बहुत ही कम हैं। हमें लगता है कि समस्या के माप को समझने की दिशा में यह एक बड़ी अड़चन है।

अकेलेपन को जिस तरह से देखा जाता है, उसमें आप किस तरह के बदलाव की उम्मीद करते हैं?

अकेलापन व्यापक रूप ले चुका है और मृत्यु दर, शारीरिक स्वास्थ्य, हृदय रोग, पक्षाघात, मानसिक स्वास्थ्य, आत्महत्या, अवसाद, मनोरोग जैसी अवस्थाओं पर इसके बेहद गंभीर प्रभाव हैं। ऐसे में लोगों, नीति-निर्माताओं, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों और अन्य लोगों को इस बारे में जागरूक करना ही इस पूरी कवायद का मकसद है। साथ ही हम तमाम हितधारकों को यह भी बताना चाहते हैं कि वे इसके बारे में क्या कर सकते हैं और अकेलेपन को कैसे घटा सकते हैं। इस उद्देश्य से हमने तमाम हस्तक्षेपों का मूल्यांकन करने वाले सैकड़ों अध्ययनों को चिन्हित किया है।

पिछले साल दिसंबर में नेतृत्व-स्तरीय बैठक हुई थी। उसमें क्या चर्चा हुई?

यह 11 आयुक्तों की पहली बैठक थी, जिसमें कुछ देशों के मंत्री और सिविल सोसाइटी शामिल थी। ये आयोग को रणनीतिक दिशा प्रदान करेंगे। ये आयोग आयुक्तों, डब्ल्यूएचओ सचिवालय और दुनिया भर में इस विषय के 20 शीर्षस्थ विशेषज्ञों के तकनीकी सलाहकारी समूह से बना है। हमें दुनिया के हर क्षेत्र से लोग मिले हैं। बैठक में हमने आयोग के लिए एक परिकल्पना पर सहमत होने का प्रयास किया और तीन लक्ष्यों की पहचान की। पहला लक्ष्य इस विषय की दृश्यता और राजनीतिक प्राथमिकता में बढ़ोतरी करना है। दूसरा लक्ष्य इस मसले को महज ऊंची आय वाले देशों या वृद्ध लोगों को प्रभावित करने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या की बजाए सही मायनों में वैश्विक और सार्वजनिक स्वास्थ्य की वास्तविक समस्या के रूप में पुनर्स्थापित करना है। यह सभी आयु समूहों और दुनिया के सभी देशों को प्रभावित करता है। तीसरा लक्ष्य समाधानों में तेजी लाने की कोशिश करना और उन समाधानों की पहचान करने का प्रयास करना है जिन्हें विस्तार दिया जा सकता है। आयोग तीन साल की अवधि के लिए कार्य योजना पर सहमत हुआ। इसका पहला विषय आयोग की रिपोर्ट तैयार करना होगा, जिसमें प्रमाण का सार देते हुए इस पर और अधिक ध्यान देने की वकालत की जाएगी, साथ ही अगले तीन दशक के लिए कार्य एजेंडा भी प्रस्तुत किया जाएगा। हमने सामाजिक संपर्क पर एक वैश्विक सूचकांक तैयार करने की संभावना पर भी चर्चा की जिससे अकेलेपन की बेहतर ढंग से माप हो सकेगी।

आयोग की पहली रिपोर्ट 2025 में संभावित है। इसमें क्या शामिल होगा?

मुझे लगता है यह तीन कार्य करेगा। एक है, ज्ञात तथ्यों का सारांश निकालना। दूसरा हमारे सारांश से चिन्हित किए गए हिस्सों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना। तीसरा, यह तमाम देशों के लिए अगले 10 वर्षों के कार्य को लेकर एक एजेंडा प्रस्तुत करेगा। हमारे कुछ अन्य प्रकाशन भी हो सकते हैं और हम अकेलेपन को मापने के लिए वैश्विक सूचकांक भी जारी कर सकते हैं।

ऐसे मसले उठाए गए हैं कि भाषा और संस्कृति में अंतरों के चलते अकेलेपन का मूल्यांकन करने वाले मौजूदा उपकरणों को पूरी दुनिया में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। उदाहरण के तौर पर, कुछ भाषाओं में अकेलेपन के वर्णन के लिए कोई शब्द नहीं है। वैश्विक सूचकांक तैयार करते समय इन चिंताओं से निपटने को लेकर डब्ल्यूएचओ की क्या योजना है?

वैश्विक सूचकांक तैयार करने के लिए हम विभिन्न देशों और विभिन्न संस्कृतियों में काम करेंगे। यहां विचार विभिन्न संस्कृतियों में मान्य उपकरण के उपयोग से जहां तक संभव हो अधिक से अधिक देशों में प्रतिनिधिक नमूनों के सर्वेक्षण तैयार करने का है ताकि अकेलेपन, सामाजिक अलगाव के साथ-साथ संभावित रूप से सामाजिक संपर्क की दर का भी पता लग जाए।

डब्ल्यूएचओ एक वैश्विक संगठन है और हम इस वैश्विक सूचकांक को विभिन्न संस्कृतियों में मान्यता दिलाने के लिए ठोस प्रयास करने वाले हैं ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि ये सभी देशों या ज्यादा से ज्यादा देशों में कारगर बने। वैश्विक सूचकांक मौजूदा उपकरणों से ही आगे बढ़ेगा। हमने अभी इस पर काम करना शुरू ही किया है और इस वक्त ये शुरुआती दौर में और खोजपूर्ण अवस्था में है।

हस्तक्षेपों की बात करें तो क्या हमें कारगर तौर-तरीकों की पर्याप्त जानकारी है?

पिछले कुछ वर्षों में वास्तविक रूप से विस्फोटक प्रमाण सामने आए हैं और हम उन सबको इकट्ठा करने और दुनिया के देशों के लिए अमल में लाने योग्य स्पष्ट प्रस्ताव तैयार करने की योजना बना रहे हैं। क्या उन्हें कृत्रिम बुद्धिमत्ता गुड़ियों (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस डॉल्स), खाना पकाने की कक्षाओं की संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा जैसे तकनीकी हस्तक्षेपों या उनमें से हरेक का उपयोग करना चाहिए? हमें स्पष्ट प्रस्तावों की आवश्यकता है। फिलहाल, प्रभावशीलता के अधिकतर प्रमाण मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेपों के लिए उपलब्ध हैं, जिनमें संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा, सामाजिक कौशल प्रशिक्षण, सचेतन-आधारित चिकित्सा समेत ऐसे ही कुछ अन्य उपाय शामिल हैं। और इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि ये कारगर रहते हैं। हम दो चीजों का अभाव झेल रहे हैं। सामुदायिक और सामाजिक स्तर के ज्यादा हस्तक्षेपों का प्रमाण पहली कमी है। जबकि दूसरी कमी सभी सबूतों के संकलन से जुड़ी है। इन हस्तक्षेपों में से एक, बहुसंख्यक उपायों को महज पिछले कुछ वर्षों में ही कार्यान्वित किया गया है। हमें इन्हें एकजुट करने, उनसे सबक सीखने और यहां अनुपस्थित कारकों की पहचान करनी होगी।

हाल ही में दक्षिण कोरिया ने अकेलेपन का दंश झेल रहे लोगों की सहायता के लिए एआई गुड़िया लॉन्च की है। ऐसे हस्तक्षेप कितने प्रभावी हैं? ऐसी तकनीकों ने डेटा गोपनीयता और सुरक्षा को लेकर भी चिंताएं बढ़ा दी हैं। इनका समाधान कैसे हो सकता है?

लोगों को जोड़ने के लिए पालतू रोबोट और जूम या अन्य प्रौद्योगिकियों के उपयोग पर लगातार काम होता रहा है। खासतौर से कोविड-19 के बाद इनके उपयोग में वास्तविक वृद्धि हुई है। इनमें से कुछ कारगर हैं, जिनके प्रमाण भी हैं। हालांकि मुझे लगता है कि ऐसे तकनीकी हस्तक्षेप काम करते हैं या नहीं, यह बताने के लिए हमारे पास पर्याप्त डेटा मौजूद नहीं है। जहां तक गोपनीयता से जुड़ी चिंताओं का सवाल है तो यह महत्वपूर्ण मसले हैं। इनसे निपटने के लिए हर देश के अपने कानून और तौर-तरीके हैं।

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