बिहार: कोसी क्षेत्र में क्यों बढ़ रही है किडनी पीड़ित मरीज की संख्या?

किडनी लीवर की बीमारी दिनों दिन तेजी से बढ़ रही है। जिस वजह से अधिकांश लोग खरीद कर पानी पीते हैं

By Rahul Kumar Gaurav

On: Friday 23 February 2024
 
सहरसा सदर अस्पताल के डायलिसिस सेंटर में भर्ती मरीज

बिहार के कोसी क्षेत्र स्थित सुपौल जिला के त्रिवेणीगंज के रहने वाले दिलीप कुमार यादव की पत्नी नीतू कुमारी की किडनी का डायलिसिस सदर अस्पताल सुपौल में 7 अक्टूबर 2023 से चल रहा है। उनका अभी तक तीन लाख रुपया खर्च हो चुका है। दिलीप बताते हैं कि डॉक्टर ने किडनी खराब होने की कोई वजह नहीं बताई। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा था कि चापाकल (हैंडपंप) का पानी पीने की बजाय फिल्टर वाला पानी पीजिए, ज्यादा बेहतर रहेगा।

सुपौल के ही पिपरा की रहने वाली अनुमा देवी पिछले एक साल से किडनी डायलिसिस करवा रही है। अनुमा को भी डॉक्टर ने किडनी खराब होने की कोई खास वजह नहीं बताई। लेकिन इतना जरूर है कि नीतू और अनुमा की तरह क्षेत्र में किडनी रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। सदर अस्पताल, सुपौल में डायलिसिस सेंटर में काम करने वाले राजकुमार के मुताबिक अस्पताल में जब 2021 में डायलिसिस सेंटर की शुरुआत हुई थी तब किडनी रोगियों की संख्या पांच थी, 2022 में बढ़कर 33 हो गई थी। अभी यहां लगभग 60 किडनी रोगियों का डायलिसिस होता है। 

वहीं सुपौल से नजदीकी जिला सहरसा सदर अस्पताल में दिसंबर 2022 में किडनी डायलिसिस सेंटर खोला गया था। प्रबंधक के मुताबिक 14 दिसंबर 2022 से अभी तक 64 किडनी मरीज का डायलिसिस हो चुका है। सहरसा सदर अस्पताल में एक साल पहले यहां तीन डायलिसिस मशीन की शुरुआत की गई थी। किडनी मरीज की संख्या को देखते हुए डायलिसिस मशीन की संख्या 5 कर दी गई है। 

यह सिर्फ सरकारी अस्पताल के किडनी डायलिसिस मरीज का आंकड़ा है। पूरे कोसी क्षेत्र या एक जिला के किडनी मरीज का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं हैं। सहरसा सदर अस्पताल के सीनियर टेक्निशियन मंजीत कुमार बताते हैं कि, "अभी सदर अस्पताल में 28 ऐसे मरीज का इलाज चल रहा हैं, जिसका किडनी फेल हो चुका है। 2022 के दिसंबर से पहले शहर के निजी अस्पताल में ही डायलिसिस ज्यादा होता था।"

सहरसा में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर काम करने वाले रोहित बताते हैं कि,"सदर अस्पताल से ज्यादा किडनी मरीज की संख्या निजी अस्पताल में है। सदर अस्पताल में गरीब वर्ग ही जल्दी इलाज करने जाते हैं।" वहीं सुपौल में डॉक्टर के पास काम कर रहें पवन कुमार बताते हैं कि, "क्षेत्र में अगर किसी को थोड़ा भी पैसा हैं तो पटना, दिल्ली या बंगाल के सिलीगुड़ी इलाज के लिए चले जाते है। सरकारी अस्पताल में इलाज की व्यवस्था सभी को पता है।"

कोरोना के वक्त पटना हाई कोर्ट के दिए गए एक निर्देश के मुताबिक अस्पताल में 10 लाख की आबादी पर एक बेड होना चाहिए। ऐसी स्थिति में बिहार के 12 करोड लोगों की आबादी के मुताबिक प्रत्येक जिला अस्पताल में काम से कम 220 बेड होना चाहिए। कोसी इलाके में सरकारी अस्पताल की और भी जरूरत है क्योंकि नीति आयोग के रिपोर्ट के मुताबिक सबसे 10 गरीब जिला में सुपौल और सहरसा शामिल है। ऐसे में पैसे की किल्लत की वजह से निजी अस्पताल अधिकांश लोग नहीं जा पाते है।

बढ़ती किडनी पेशेंट की संख्या से इस रिपोर्ट का कनेक्शन तो नहीं?

राजधानी पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान, द यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर और आईआईटी खड़कपुर के द्वारा किए गए संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में सबसे ज्यादा 80 माइक्रोग्राम यूरेनियम प्रति लीटर पानी सुपौल जिले में मिला है। जो साधारणतः स्वीकृत 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर की मात्रा से करीब तीन गुना है। 

कोसी क्षेत्र स्थित सहरसा और सुपौल जिला के पानी में पहले से ही आर्सेनिक, फ्लोराइड और आयरन की मात्रा पानी में बहुत ज्यादा पाई जाती है। वहीं 2014 में बिहार सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक सुपौल की 11 तो सहरसा के 10 प्रखंड के पानी में आयरन की मात्रा पाई गई थी। 

इस शोध में बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष डा. अशोक कुमार घोष भी शामिल थे। डाक्टर घोष के मुताबिक पानी में यूरेनियम की मात्रा अधिक होने से आदमी को हड्डी और किडनी से जुड़ी बीमारियों के साथ कैंसर का भी खतरा रहता है।

क्षेत्र में पानी का तेजी से बढ़ता व्यापार

सुपौल जिला के गांव बभनगामा में लगभग 400 परिवार होंगे। जिसमें 200 परिवार खरीद कर पानी पीता है। 100 परिवार के घर में वाटर फिल्टर मशीन लगा हुआ है। बाकी सब परिवार चापाकल या नल जल योजना का पानी पीता है। गांव के 25 वर्षीय मोहित बताते हैं कि, "गांव में जिसकी भी स्थिति ठीक-ठाक है वह खरीद कर पानी पीता है। लगभग एक साल पहले तक कई लोग नल जल योजना के तहत पानी पीते थे।

लेकिन बाद में पानी पीला और गंदा निकालने के बाद कई लोग वाटर फिल्टर लगा चुके हैं। जो गरीब हैं ,वह चापाकल का पानी पीने को मजबूर है। किडनी लीवर की बीमारी दिनों दिन तेजी से बढ़ रही है। जिस वजह से अधिकांश लोग खरीद कर पानी पीते हैं।" सिर्फ बभनगामा गांव में 2 से 3 लोग पीने के पानी को व्यवसाय के तौर पर बेचते है। गांव के ही टिल्लू कुमार के मुताबिक पानी का व्यवसाय सिर्फ ब्राह्मण और कामत टोला में होता है। दलित मजबूरन नल जल का गंदा पानी पीने को आज भी मजबूर है। 

एक तरफ कई रिपोर्ट के मुताबिक क्षेत्र के पानी में आर्सेनिक यूरेनियम और आयरन भरपूर मात्रा में पाया जाता है वहीं दूसरी तरफ बिहार सरकार हर घर नल का जल जैसी महत्वाकांक्षी योजना के बूते लोगों को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने की हरसंभव कोशिश कर रही है, जो अधिक सफल नहीं हो पाई है। बीना पंचायत 75 वर्षीय अरुण झा बताते हैं कि,"जब से मैं होश संभाला हूं तब से आर्सेनिक और यूरेनियम जैसे घातक पदार्थ की पानी में मौजूदगी को लेकर सरकार की तरफ से जागरूकता को लेकर कोई प्रचार प्रसार नहीं किया गया है।

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