पश्चिमी दुनिया की बीमारी मानी जाने वाली 'आईबीडी' पहुंची भारत

30,000 से अधिक रोगियों के कॉलोनोस्कोपिक मूल्यांकन के आधार पर ग्रामीण और शहरी भारत में आईबीडी के सापेक्ष अनुपात की तुलना करने वाला यह पहला अध्ययन है

By Dayanidhi

On: Friday 04 August 2023
 
फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, वोल्फपैक बीएमई

भारत की आबादी का लगभग 70 फीसदी हिस्सा गांवों में बस्ता है। भारत में, सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार के चलते गांवों में भी आहार और जीवन शैली में बदलाव हुआ है। बदलाव के चलते, यहां सूजन आंत्र रोग (आईबीडी) में वृद्धि होने की आशंका जताई जा रही है। हालांकि, ग्रामीण भारत में आईबीडी का मूल्यांकन नहीं किया गया है।

आईबीडी रोग क्या है?

सूजन आंत्र रोग (आईबीडी) दो स्थितियों (क्रोहन रोग और अल्सरेटिव कोलाइटिस) के लिए एक शब्द है जो गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल (जीआई) के रास्ते की पुरानी सूजन हो सकती है। लंबे समय तक सूजन रहने से जठरांत्र के रास्ते को नुकसान पहुंचता है।

यदि आप अपनी आंत्र आदतों में लगातार बदलाव महसूस कर रहे हैं, या आपको सूजन आंत्र रोग के कोई लक्षण दिखाई देते हैं तो डॉक्टर से जरूर परामर्श करें। हालांकि सूजन आंत्र रोग (आईबीडी) आमतौर पर घातक नहीं होता है, यह एक गंभीर बीमारी है, जो कुछ मामलों में, घातक बीमारियों  का कारण बन सकती है।

एक समय में, सूजन आंत्र रोग (आईबीडी) परंपरागत रूप से पश्चिमी दुनिया की एक बीमारी थी। पिछले दो दशकों में एशियाई देशों में आईबीडी की घटनाओं और व्यापकता में तेजी से वृद्धि हुई है। इस बीमारी के लिए पश्चिमी जीवन शैली सहित पर्यावरणीय कारणों को  जिम्मेदार ठहराया गया है। इसी कारण से, आईबीडी को हमेशा शहरी वातावरण की एक बीमारी माना गया है।

पिछले दो दशकों में भारत सहित एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आईबीडी की बढ़ती घटना और इसकी व्यापकता को अच्छी तरह से दर्ज किया गया है। अध्ययनकर्ताओं ने भारत के ग्रामीण और शहरियों में सूजन आंत्र रोग (आईबीडी) का पता लगाया। उन्होंने बताया कि, ग्रामीण आबादी में आईबीडी की व्यापकता पर बहुत कम आंकड़े मिले। 1990 में चार लाख से अधिक की आबादी पर किए गए अध्ययन में संक्रामक डायरिया के उच्च प्रसार के साथ आईबीडी के केवल 74 मामले सामने आए थे।

अध्ययन में बताया गया है कि, मार्च 2020 से मई 2022 तक तेलंगाना के ग्रामीण क्षेत्रों के 32 गांवों को कवर करते हुए साप्ताहिक मोबाइल एंडोस्कोपी और अल्ट्रासाउंड शिविरों के साथ हर दिन ग्रामीण शिविर आयोजित किए गए।

अस्पताल में आने वाले सभी रोगियों के साथ-साथ विशेष रूप से आयोजित ग्रामीण शिविरों में आईबीडी की जांच के लिए कार्यक्रम आयोजित किए। ये सेवाएं गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले रोगियों और जिनके पास चिकित्सा बीमा नहीं था, उनके लिए निःशुल्क उपलब्ध थीं। ग्रामीण स्तर पर  जागरूकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाए गए, ताकि ज्यादा से ज्यादा रोगियों का उपचार किया जा सके।

लैंसेट रीजनल हेल्थ में प्रकाशित अध्ययन का पहला उद्देश्य यह समझना था कि, आबादी में अन्य कॉलोनिक रोगों की तुलना में लंबे समय से चली आ रहीं बीमारी या क्रॉनिक डिजीज (सीडी) और आईबीडी का सापेक्ष अनुपात क्या है।

रोगियों में आईबीडी के सापेक्ष अनुपात में ग्रामीण और शहरी अंतर है क्या। अध्ययनकर्ता मौजूदा आंकड़ों की तुलना एक दशक से भी पहले, 2006 में किए गए अपने पिछले ग्रामीण सर्वेक्षण से भी करना चाहते थे।

अध्ययन में कहा गया है कि, 30,000 से अधिक रोगियों के कॉलोनोस्कोपिक मूल्यांकन के आधार पर ग्रामीण और शहरी भारत में आईबीडी के सापेक्ष अनुपात की तुलना करने वाला यह पहला अध्ययन है। निचले जठरांत्र (जीआई) लक्षणों वाले 5 फीसदी से अधिक मरीजों में आईबीडी शामिल है, यह दर संक्रामक डायरिया की तुलना में अधिक थी। ग्रामीण और शहरी आबादी के बीच आईबीडी मामलों का सापेक्ष अनुपात अलग नहीं पाया गया।

अध्ययन के मुताबिक, 32,021 रोगियों की जांच की गई, 30,835 के पूरे आंकड़ों के साथ 67 फीसदी पुरुष, 21 फीसदी ग्रामीण जिनकी औसत आयु 44 वर्ष थी, जिसमें 6 से 78 वर्ष आयु वर्ग के लोग शामिल थे।

55 फीसदी लोगों में मुख्य रूप से पेट दर्द की पुरानी बीमारी से संबंधित लक्षण थे, आंत्र में बदलाव के 45 फीसदी मामले पाए गए, जबकि मलाशय से रक्तस्राव के 16 फीसदी रोगी पाए गए।

क्रोनिक डायरिया के 13 फीसदी, अनपेक्षित वजन घटने वाले 9 फीसदी और एनीमिया के 3 फीसदी रोगी पाए गए।

अंतिम जांच में आईबीडी के मामले 1687 में 5.4 फीसदी ग्रामीण व 2.2 फीसदी शहरी लोग पाए गए, अल्सरेटिव कोलाइटिस (यूसी), 3.2 फीसदी क्रोहन रोग, आंतों की टीबी के 364 लोगों में 1.2 फीसदी  मामले शामिल थे, संक्रामक कोलाइटिस के 1427 लोगों में 4.6 फीसदी रोगी थे, कोलोरेक्टल कैंसर के 488 लोगों में 1.6 फीसदी रोगी पाए गए और 2372 लोगों 7.7 फीसदी पॉलीप्स के रोगी पाए गए।  

दोनों समूहों में अल्सरेटिव कोलाइटिस यूसी (2.1 फीसदी ग्रामीण, 2.3 फीसदी शहरी, जिसका अनुपात 0.66) और क्रॉनिक डिजीज (सीडी) (3.5 फीसदी ग्रामीण, 3.1 फीसदी, शहरी, जिनका अनुपात 0.12) का अनुपात समान था। अन्य आंत्र रोगों के सापेक्ष अनुपात में ग्रामीण-शहरी में कोई अंतर नहीं पाया गया।

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