वैज्ञानिकों पर लम्बे समय तक पड़ सकता है कोविड-19 का प्रभाव, शोध में हुआ खुलासा

कोविड के अलावा अन्य विषयों पर शोध कर रहे वैज्ञानिक अपने शोध पर करीब 5 फीसदी कम समय दे पा रहे थे। वहीं नए प्रकाशनों में 9 फीसदी और नए सबमिशन में 15 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई

By Lalit Maurya

On: Wednesday 27 October 2021
 

कोविड-19 महामारी को शुरु हुए करीब डेढ़ साल से अधिक का समय गुजर चुका है। पर आज भी वैज्ञानिक समुदाय इसके प्रभावों से पूरी तरह उबर नहीं पाया है। यही नहीं शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह प्रभाव आने वाले कई वर्षों तक वैज्ञानिकों द्वारा महसूस किया जाएगा। यह जानकारी हाल ही में नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी द्वारा किए शोध में सामने आई है जोकि अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुआ है। 

हालांकि शोधकर्ताओं की उत्पादकता का अधिकांश हिस्सा महामारी के पहले वाले स्तर पर लौट आया है, लेकिन शोध से यह भी पता चला है कि जो वैज्ञानिक कोविड-19 या उससे सम्बंधित विषय पर शोध नहीं कर रहे थे, उन्होंने 2019 की तुलना में 2020 के दौरान 36 फीसदी कम नई परियोजनाओं की शुरुआत की थी। नई परियोजनाओं में आई यह नाटकीय गिरावट दर्शाती है कि विज्ञान पर महामारी का प्रभाव कल्पना से कहीं अधिक लंबा हो सकता है।

यह शोध अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 के बीच किए गए दो सर्वेक्षणों पर आधारित है। जो अमेरिका और यूरोप में कोविड-19 के वैज्ञानिकों पर पड़ने वाले असर को समझने के लिए किए गए थे। इन सर्वेक्षणों में 6,982 जवाब प्राप्त हुए थे। सर्वेक्षणों के अलावा वैज्ञानिकों ने प्रकाशित शोध से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण भी किया है, जिसमें 2021 की शुरुआत तक प्रकाशित और प्रीप्रिंट दोनों तरह के शोधपत्रों को सम्मिलित किया गया था।

इस सर्वेक्षण के करीब एक तिहाई उत्तर देने वाले वैज्ञानिकों ने माना था कि वो 2020 में कोविड-19 सम्बंधित रिसर्च में लगे हुए थे, जो दर्शाता है कि वैज्ञानिक इस महामारी से निपटने के लिए कितना जी जान से काम कर रहे थे। गौरतलब है कि कोविड-19 से जुड़े प्रकाशित और प्रीप्रिंट दोनों प्रकार के शोधपत्रों में सह लेखन के मामलों में 2019 की तुलना में 2020 के दौरान लगभग 40 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी। वहीं कोविड से सम्बन्ध न रखने वाले शोधपत्रों में सह-लेखन की दर में करीब 5 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी।

2020 में रिसर्च पर वैज्ञानिक प्रति सप्ताह औसतन 7.1 घंटे कम कर रहे थे खर्च

शोध से पता चला है कि महामारी के शुरुआती चरण में वैज्ञानिकों ने जो समय शोध पर खर्च किया था उसमें भारी गिरावट दर्ज की गई थी। उदाहरण के लिए अप्रैल 2020 में वैज्ञानिक महामारी से पहले की तुलना में शोध पर प्रति सप्ताह औसतन 7.1 घंटे कम खर्च कर रहे थे। हालांकि जनवरी 2021 में शोधकर्ता रिसर्च को लगभग उतना ही समय दे रहे थे जितना वो महामारी से पहले देते आए थे। हालांकि उनके द्वारा किए जा रहे काम के कुल घंटे अभी भी महामारी से पहले की तुलना में काफी कम थे, लेकिन यह अंतर औसतन 2.2 घंटा प्रति सप्ताह ही था।  

इस बारे में जानकारी देते हुए इस शोध से जुड़े शोधकर्ता दशुन वांग ने बताया कि धरातल पर ऐसा प्रतीत होता है कि शोधकर्ता उतने ही उत्पादक है जितने वो हुआ करते थे। लेकिन देखा जाए तो उन्होंने नई परियोजनाओं को शुरु करने की जगह वो पहले से निर्धारित विषयों पर काम करने, मौजूदा शोध को लिखने या पुराने आंकड़ों को फिर से देखने में व्यस्त थे। उनके अनुसार यह बात ज्यादातर विषयों पर लागु होती है। यही नहीं कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था जो परियोजनाओं में आने वाली कमी से न जूझ रहा हो। 

शोधकर्ताओं को यह भी पता चला है कि महिला शोधकर्ताओं और छोटे बच्चों की देखभाल करने वालों द्वारा नई परियोजनाओं की शुरुआत में विशेष रूप से गिरावट देखने को मिली थी। जो संभावित रूप से इन समूहों पर महामारी के पहले से ही पड़ रहे असमान प्रभावों को और बढ़ा रहा है।

हालांकि शोध में यह भी सामने आया है कि जो वैज्ञानिक कोविड-19 से सम्बंधित कार्यों से जुड़े थे उनके द्वारा शुरु की जा रही नई परियोजनाओं में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। वहीं शोधकर्ताओं के अनुसार जो आमतौर पर हर वर्ष लगभग तीन नई परियोजनाओं की शुरुवात करते थे, वो 2020 के दौरान घटकर दो पर आ गई थी। 

वांग के अनुसार वैज्ञानिकों ने इस बात की सूचना दी है कि महामारी के शुरुआती चरण में शोध पर खर्च किए जा रहे समय में गिरावट आई थी। उनके अनुसार हालांकि उत्पादकता में जो गिरावट आई थी उसकी भरपाई तो समय के साथ हो जाएगी। पर नई परियोजनाओं  की शुरआत न हो पाने के कारण उसका असर लम्बे समय तक देखने को मिलेगा।     

यदि महामारी से पहले और महामारी के दौरान शोध पर पड़ने वाले कुल असर को देखा जाए तो जहां काम के कुल घंटों में आने वाली कमी अप्रैल 2020 में पहले की तुलना में करीब 14 फीसदी कम थी, जबकि जनवरी 2021 में यह आंकड़ा 4 फीसदी था।  यह दर्शाता है कि इस अवधि के दौरान स्थिति में कुछ सुधार जरूर आया था। 

2019 में जहां केवल 9 फीसदी वैज्ञानिकों ने जानकारी दी थी कि उन्होंने शोध से जुड़ी किसी नई परियोजना की शुरुआत नहीं की थी, पर 2020 में यह आंकड़ा लगभग तीन गुना बढ़कर 27 फीसदी पर पहुंच गया था। 

शोध के अनुसार जो वैज्ञानिक कोविड-19 पर अध्ययन नहीं कर रहे थे उनके काम के कुल घंटों में महामारी से पहले की तुलना में करीब 5 फीसदी की गिरावट आई थी। वहीं नए प्रकाशनों में भी 9 फीसदी की कमी दर्ज की गई थी। इसी तरह नए सबमिशन में 15 फीसदी और नई परियोजनाओं में 36 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी। 

शोधकर्ताओं के अनुसार इस अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो वैज्ञानिक अनुसंधान पर महामारी के लम्बी अवधि के पड़ने वाले प्रभावों को समझने में मददगार हो सकते हैं। कुल मिलकर अच्छी बात यह रही कि वैज्ञानिक अपना जो समय रिसर्च पर खर्च कर रहे थे वो अब महामारी से पहले जितने स्तर पर ही लगभग पहुंच चुका है। वहीं शोधपत्रों की संख्या में इस दौरान मामूली सी कमी दर्ज की गई है।  

दूसरी तरफ विश्लेषण से पता चलता है कि भले ही वैज्ञानिक काम पर लौट रहे हों, लेकिन नई शोध परियोजनाओं को आगे बढ़ाने की उनकी संभावनाएं काफी कम हैं। ऐसे में इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि विज्ञान पर महामारी का प्रभाव लम्बे समय तक रह सकता है।     

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