भारत में होती हैं कीटनाशकों के जहर से होने वाली 60 फीसदी मौतें, पर्यावरण के लिए भी बड़ा खतरा

खेतों में इस्तेमाल होता यह जहर हर साल 11 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। इनमें से करीब 60 फीसदी मौतें भारत में होती हैं

By Lalit Maurya

On: Wednesday 19 October 2022
 

बढ़ते मुनाफे के लिए कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग नित नए खतरों को जन्म दे रहा है। अनुमान है की खेतों में इस्तेमाल होता यह जहर हर साल 11 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। इनमें से करीब 60 फीसदी मौतें भारत में होती हैं। इतना ही नहीं यह कीटनाशक दुनिया भर में 38.5 करोड़ लोगों के बीमार पड़ने की भी वजह है। यह जानकारी आज जारी नई रिपोर्ट ‘पेस्टिसाइड एटलस 2022’ में सामने आई है।

एटलस के मुताबिक दुनिया भर में इन कीटनाशकों के उपयोग के चलते जो 38.5 करोड़ लोगों के बीमार पड़ने के मामले सामने आए हैं उनमें से ज्यादातर करीब 25.5 करोड़ एशिया में दर्ज किए गए थे। वहीं अफ्रीका में 10 करोड़ से ज्यादा और यूरोप में 16 लाख मामले सामने आए थे।

अकेले दक्षिण एशिया में इसकी वजह से हर साल 18 करोड़ से ज्यादा लोग बीमार पड़ रहे हैं, जबकि यह कीटनाशक यहां होने वाली 9,401 लोगों की मौत की वजह है। पता चला है कि इन कीटनाशकों से होने वाली 60 फीसदी मौतें भारत में होती हैं।

1962 में जीवविज्ञानी रेचल कार्सन ने अपनी फेमस पुस्तक "साइलेंट स्प्रिंग" में कीटनाशक के उपयोग और उसके हानिकारक प्रभावों का वर्णन किया था। इसके बावजूद वर्षों से चलती बहस के बावजूद इन कीटनाशकों का उपयोग आज भी बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। लेकिन आज 60 साल बाद भी इन कीटनाशकों के खतरों को दरकिनार करते हुए इनका उपयोग बदस्तूर सिर्फ जारी ही नहीं बल्कि पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है।

रिपोर्ट में इन कीटनाशकों के कारण बिहार में हुई 23 बच्चों की मौत की घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि यह बच्चे चावल और आलू की सब्जी खाने के कुछ मिनटों के भीतर ही मर गए थे। यह खाना उन्हें कुपोषण के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार मिडडे मील के तहत दिया गया था। इस भोजन की फोरेंसिक जांच से पता चला था कि इस भोजन को जिस तेल में पकाया गया था उसमें कीटनाशक मोनोक्रोटोफॉस था, जो इन बच्चों की मौत की वजह था।

आज न केवल हमारे खेतों बल्कि भोजन, फल, सब्जियों, शहद में भी कीटनाशकों के होने के सबूत मिले हैं। इतना ही नहीं यह जहर हमारे शरीर से लेकर हवा, पानी, पर्यावरण तक में घुल चुका है। सिर्फ इंसान ही क्या इस जहर से दूसरे जीव भी सुरक्षित नहीं है।

पता चला है कि इसकी वजह से वैश्विक स्तर पर खेतों में रहने वाली चिड़ियों और तितलियों की आबादी में करीब 30 फीसदी की गिरावट आई है। पता चला है कि कीटनाशकों के चलते यूरोप में 10 में से एक मधुमक्खी पर विलुप्त होने का संकट मंडरा रहा है।

यह केमिकल इंसानों में उनकी प्रजनन क्षमता को नुकसान पहुंचाने से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों की भी वजह हैं। इतना ही नहीं हाल ही में किए एक अध्ययन से पता चला है कि दुनिया की 64 फीसदी कृषि योग्य भूमि पर कीटनाशक प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है।

इसके बावजूद दुनिया भर में इसका उपयोग तेजी से बढ़ रहा है जो कहीं न कहीं इंसान में बढ़ते लालच को दर्शाता है। रिपोर्ट से पता चला है कि 1990 के बाद से दुनिया भर में कीटनाशकों का उपयोग लगभग दोगुना हो गया है।

इतना ही नहीं अनुमान है कि इसका वैश्विक बाजार अगले साल तक 10.8 लाख करोड़ रुपए (13,000 करोड़ डॉलर) तक पहुंच जाएगा। पता चला है कि 1990 से 2017 के बीच जहां दक्षिण अमेरिका में कीटनाशकों के उपयोग में 484 फीसदी की वृद्धि हुई है वहीं एशिया में 97 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है।

जहर बेच अरबों की फसल काट रही कीटनाशक कंपनियां

वहीं  संगठन अनअर्थड और पब्लिक आई द्वारा की गयी संयुक्त जांच से पता चला है कि दुनिया की पांच सबसे बड़ी कीटनाशक बनने वाली कम्पनियां अपनी आय का करीब एक तिहाई हिस्सा हानिकारक कीटनाशकों को बेच कर कमा रही हैं, जोकि पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा हैं।  इन एग्रोकेमिकल दिग्गजों में बीएएसएफ, बेयर , कोर्टेवा, एफएमसी और सिन्जेंटा शामिल हैं।

देखा जाए तो दुनिया भर की जानी-मानी कंपनियां कीटनाशकों के साथ जीएम खेती को भी बढ़ावा दे रही हैं, जो इन कीटनाशकों पर निर्भर हैं। विशेष रूप से यह कंपनियां ऐसे देशों में अपने उत्पाद बेच रही हैं जहां नियम कानून उतने कड़े नहीं हैं। लेकिन देखा जाए तो यह देश जैवविवधता के मामले में विशेष रूप से समृद्ध हैं। रिपोर्ट के अनुसार 2018 में भारतीय किसान कीटनाशकों पर प्रति हेक्टेयर 37 फीसदी अधिक पैसा खर्च कर रहे हैं, जितना वो 2002 में जीएम कपास को लाए जाने से पहले करते थे।

पता चला है कि यह कम्पनियां अपने अत्यधिक हानिकारक कीटनाशकों (एचएचपी) को ज्यादातर विकासशील देशों में बेच रही हैं। विश्लेषण के अनुसार भारत में इन कम्पनियों द्वारा बेचे गए कुल कीटनाशकों में एचएचपी का हिस्सा करीब 59 फीसदी था। 

विडम्बना देखिए की यूरोप में पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को देखते हुए जिन कीटनाशकों के उपयोग की अनुमति नहीं है, वो कीटनाशक भी यूरोप जैसे विकसित देशों में न केवल बनाए जा रहें हैं साथ ही उन्हें अन्य देशों को निर्यात भी किया जा रहा है। इस कारोबार में कई यूरोपियन कंपनियां भी शामिल हैं। ऐसे में इन दोहरे मानदंडों के पीछे की राजनीति को समझने की जरूरत है।

भारत सहित दुनिया के कई अन्य देशों में काफी हद तक कृषि इन कीटनाशकों पर ही निर्भर है, जिसमें बड़ी मात्रा में ऐसे कीटनाशक शामिल हैं, जिनका अत्यधिक उपयोग और दुरुपयोग मनुष्यों, जानवरों, जैव-विविधता और पर्यावरण के स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचा सकता है।

भारत को ही नहीं दुनिया को भी लेनी होगी सिक्किम से सीख

देखा जाए तो जिम्मेवारी केवल सरकार की ही नहीं है। इस बारे में लोगों और किसानों को भी जागरूक होना होगा। पिछले कुछ दशकों से किसान पैदावार बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में व्यावसायिक कीटनाशकों के उपयोग पर जोर दे रहे हैं। लेकिन वो न केवल स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरा है साथ ही खेतों को भी भारी नुकसान पहुंचा रहा है।

ऐसे में इन हानिकारक कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग पर लगाम कसना जरुरी है। साथ ही जैविक खेती को बढ़ावा देना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। आर्गेनिक फार्मिंग और प्राकृतिक कीटनाशकों के अलावा कुछ ऐसे कीट हैं जो फसलों में लगने वाले कीटों को रोकने में इन कीटनाशकों से कहीं ज्यादा प्रभावी हैं। लेकिन इसके बावजूद आज भी सरकारें उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही हैं।

भारत के लिए एक अच्छा पहलु यह है कि देश में कई राज्य अब कीटनाशकों के उपयोग को बंद करके आर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ावा दे रहे हैं। इसमें देश के छोटे से राज्य सिक्किम की बड़ी भूमिका है। यह दुनिया का पहला ऐसा क्षेत्र है जहां पूरी तरह जैविक खेती को अपना लिया गया है। यह एक ऐसे देश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है जहां दशकों से कृषि का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग पर निर्भर है।

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